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राजधानी दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में सियासत की लीला तीन महीने में ही कहीं से कहीं पहुंच गई है. 10 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने तीन नए-नवेले मुख्यमंत्रियों महाराष्ट्र के देवेंद्र फड़नवीस, हरियाणा के मनोहर लाल खट्टर और झारखंड के रघुवर दास को साथ लेकर दिल्ली विधानसभा चुनाव का शंखनाद करने आए तो भारतीय जनता पार्टी वादे के मुताबिक 1 लाख लोगों को जुटाने में नाकाम रही. दूसरी ओर 19 अप्रैल को उसी जगह कांग्रेस की किसान मजदूर बचाओ महारैली आयोजित की जाती है, जो न सिर्फ हतोत्साहित कांग्रेस में जान फूंक देती है, बल्कि यह आभास भी दिलाती है कि राजनैतिक रंगभूमि से उसके उपाध्यक्ष की 56 दिन लंबी रहस्यमय गैर-मौजूदगी एक बीती बात हो चुकी है. और अब वे 56 इंच की छाती से लड़ने को तैयार हैं.
इन तीन महीनों में एक तरफ प्रचंड बहुमत वाली सरकार कोने में दुबकी रही, तो दूसरी तरफ आम चुनाव में एक-एक सीट को तरस गई कांग्रेस के हौसले बुलंद हो गए. कहानी की शुरुआत तब हुई जब मोदी मंत्रिमंडल ने भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 में उचित मुआवजे और पारदर्शिता के अधिकार के पर कतर दिए और 1 जनवरी, 2015 से इसे लागू करने के लिए अध्यादेश जारी कर दिया. अध्यादेश के साथ ही घटनाओं की एक शृंखला चल पड़ती है, जिसमें 22 अप्रैल को आम आदमी पार्टी (आप) की एक रैली में एक किसान की आत्महत्या शामिल है. इसका नतीजा यह निकला कि माहौल बनाने की लड़ाई में सरकार विपक्ष के आगे नतमस्तक हो गई. दूसरी तरफ, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को अपने विदेश प्रवास से लौटने और खुद को किसानों के अधिकारों के चैंपियन के रूप में पेश करने के लिए एक आदर्श परिस्थिति मुहैया हो गई. सरकार में आने के एक साल के भीतर, मोदी संभवतः अब तक के अपने सबसे बड़े राजनैतिक संकट का सामना कर रहे हैं.
संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार को संघ परिवार के हाशिए पर पड़े तत्वों के ''घर वापसी'' जैसे विवादास्पद कार्यक्रमों की वजह से विपक्ष के हमलों का सामना करना पड़ा था. दरअसल सरकार चाह रही थी कि अध्यादेश के जरिए कथित आर्थिक सुधारों का माहौल बनाया जाए. ठीक वैसे ही जैसे बीमा सुधार पर अध्यादेश लाया गया था और कोयला ब्लॉकों की नीलामी की गई थी. लेकिन जहां बाद में दूसरे अध्यादेश संसद में पारित होते चले गए, वहीं जमीन अधिग्रहण से पहले 80 फीसदी किसानों की मंजूरी और सामाजिक अध्ययन के प्रावधान हटाना सरकार के गले की हड्डी बन गया. इन मुद्दों पर चढ़कर विपक्ष ने सरकार को रक्षात्मक रवैया अपनाने पर मजबूर कर दिया.
विपक्षी दलों की दलील थी कि दो साल की मेहनत के बाद भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 जब पास किया गया तब बीजेपी ने इसे पूरा समर्थन दिया था, तो अब नया कानून लाने से पहले बीजेपी ने विपक्ष को विश्वास में लेने की जरूरत तक क्यों महसूस नहीं की. यहां तक कि भारतीय किसान संघ, स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ जैसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सहयोगी संगठनों ने भी सलाह-मशविरे में शामिल न किए जाने को लेकर आंखें तरेरीं.
जहां सरकार ने अध्यादेश को लोकसभा से अपने विशुद्ध बहुमत के आधार पर पारित करा लिया, वहीं संक्चया का अभाव होने के कारण वह राज्यसभा में ऐसा करने की हिम्मत नहीं जुटा सकी. 17 मार्च को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इस कदम के खिलाफ 14 विपक्षी दलों को लामबंद कर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को याचिका सौंपने के लिए एक मार्च का नेतृत्व किया. इसके बाद सरकार ने संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर अध्यादेश को पास कराने का अपना इरादा छोड़ दिया. सरकार जानती थी कि अध्यादेश राज्यसभा में पास नहीं हो पाएगा इसलिए राज्यसभा के सत्र को बीच में ही खत्म कर दिया गया. इसके बाद सरकार नए सिरे से अध्यादेश ले आई. संसद को पीठ दिखाकर फिर से अध्यादेश की राह पर लौटी सरकार यही साबित कर रही थी कि इस मुद्दे पर विरोधी कहीं ज्यादा प्रभावशाली हो चुके हैं.
अब तक जमीन अधिग्रहण का मुद्दा राजनीति के गलियारों से निकल गांव की चैपालों का विषय बन चुका था. लोग यह तौलने लगे थे कि क्या सरकार ने वाकई कोई किसान विरोधी कदम उठा लिया है. इसी बीच बिन मौसम बारिश और ओलावृष्टि ने परिदृश्य को कहीं दारुण बना दिया. एक अनुमान के मुताबिक, देश भर में 93 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में रबी की खड़ी फसल और खास कर गेहूं की फसल चैपट हो गई. पश्चिमी यूपी के अपने गेहूं के खेत में खड़े भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत ने फोन पर इंडिया टुडे को बताया, ''फसल की उपज आधे से भी कम हो गई है. इससे भी बढ़कर यह कि जो फसल बच गई है, वह इस कदर घटिया है कि घरेलू बाजार में इसका कोई खरीदार नहीं मिलने वाला.''
इस बीच, सोनिया गांधी एक बार फिर काम में जुट गईं. वे 21 मार्च को हरियाणा के रेवाड़ी और राजस्थान के कोटा में प्रभावित किसानों से मिलने गईं. उसके बाद उन्होंने मध्य प्रदेश का रुख किया. ऐसे में सरकार को नुक्सान का निरीक्षण करने के लिए राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और अरुण जेटली जैसे नेताओं को मौके पर भेजना पड़ा. उसके बाद मोदी ने जब खरीद मापदंडों को आसान बनाने और सरकारी राहत मापदंडों को सहज बनाने की घोषणा की तो यह कवायद सोनिया की बराबरी करने की कोशिश और कांग्रेस को मिले शुरुआती लाभ को नकारने की तरह ज्यादा लग रही थी.
किसी तरह दोनों मुद्दे आपस में जुड़ कर किसानों के प्रति सरकार की ''असंवेदनशीलता'' और कॉर्पोरेट भारत की ''खुशामद'' की एक व्यापक कहानी में बदल गए. यह स्वीकार करते हुए कि उसका पक्ष लेने के कारण किसान समुदाय कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों की ओर झुका है, भूमि अध्यादेश के मसले पर टिकैत कहते हैं, ''किसान विकास के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन आखिर सरकार क्यों उद्योगपतियों के लिए एक दलाल का काम करेगी और भूमि मालिकों की सहमति के बिना भूमि ले लेगी.''
ठीक यही वह झुकाव था, जिसने राहुल गांधी को लंबी राजनैतिक खामोशी के बाद अचानक सत्ता पक्ष पर टूट पड़ने का मौका दिया. इसकी शुरुआत 19 अप्रैल को रामलीला मैदान रैली में भूमि अध्यादेश की आलोचना करने वाले एक भाषण के साथ हुई. उसके बाद उन्होंने संसद में दो बार जोश-खरोश के साथ हस्तक्षेप किया. ये भाषण ''सूट-बूट की सरकार'' की तरह की चुटीली बातों से भरपूर थे. जब 22 अप्रैल को दिल्ली में आयोजित आप की एक रैली में राजस्थान से आए एक किसान ने आत्महत्या कर ली, तो जिस अस्पताल में शव रखा था, उस अस्पताल तक पहुंचने वाले वे सबसे पहले नेता थे. अगर जमीन के मुद्दे पर पहला कदम बढ़ाने वाली सोनिया थीं, तो एक पूर्व केंद्रीय मंत्री कहते हैं, ''संसद में अपने भाषण के जरिए, नेट न्यूट्रेलिटी के मुद्दे पर राहुल को पहला कदम बढ़ाने का लाभ हासिल हुआ. इससे यह साबित हुआ कि हमारी पार्टी सिर्फ किसानों के लिए नहीं बल्कि आकांक्षाओं से भरे हुए और आगे बढ़ते भारत के लिए भी खड़ी है.''
कांग्रेस उपाध्यक्ष के अचानक सक्रिय हो जाने से पार्टी का मनोबल बढ़ गया है. खासकर पार्टी की उस युवा ब्रिगेड में नई जान आ गई है जो आम चुनाव में कांग्रेस की शर्मनाक हार से सहम गई थी. यही नहीं, लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस जैसे दलों ने जब विपक्ष में अपना वर्चस्व बढ़ाया तो इस ब्रिगेड की रही-सही आस भी टूटने लगी. आम कार्यकर्ता को लगने लगा है कि निराशा के भंवर में फंसने के बाद पार्टी एक बार फिर राजनीति के केंद्र में वापस आ गई है. लोकसभा में कांग्रेस के मुख्य सचेतक ज्योतिरादित्य सिंधिया कहते हैं, ''गरीबों के प्रति राहुल गांधी की प्रतिबद्धता के बारे में कोई संदेह कभी नहीं था. वे निश्चित रूप से भविष्य में और अधिक मुखर रहेंगे और अधिक नजर आएंगे.''
वास्तव में पार्टी के नेता तो एक लंबे अंतराल के बाद उनकी वापसी को भी बिल्कुल सही समय पर घटी घटना के तौर पर पेश कर रहे हैं. यूपीए सरकार में मंत्री रहे जितिन प्रसाद कहते हैं, ''हमने जनादेश का सम्मान किया और भारी बहुमत के साथ आई सरकार की तुरंत खिंचाई शुरू नहीं की. लेकिन जैसे ही उसने लोगों, विशेष रूप से गरीबों के हितों के खिलाफ निर्णय लेने शुरू किए, हम उसका मुकाबला करने मैदान में आ गए.''
एक पूर्व यूपीए मंत्री का दावा है कि सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन यह आया है कि राहुल अब एक अनमने नेता नहीं रह गए हैं. वे कहते हैं, ''उनके साथ हुई बातचीत से जो पहली चीज मैंने गौर की वह यह है कि छुट्टी से लौटने के बाद वे एक पूर्णकालिक नेता हैं.'' सूत्रों के मुताबिक, गांधी परिवार के उत्तराधिकारी के देश के दौरे पर निकलने और स्वयं को आम जनता के नेता के रूप में पेश करने की संभावना है. उनके ''भारत दर्शन'' का पहला पड़ाव या तो महाराष्ट्र होगा, जहां सबसे ज्यादा संख्या में किसानों ने आत्महत्या की है या उत्तर प्रदेश होगा, जो केंद्र में सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही किसी भी पार्टी के लिए हमेशा ही एक महत्वपूर्ण राज्य होता है. इसके साथ ही, राज्यों के नेताओं को क्षेत्रीय रूप से प्रासंगिक मुद्दे उठाने के लिए कहा गया है. उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस नौकरियों और विकास की बात करके युवाओं के साथ जुड़ने की कोशिश करेगी, जो मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी की ''जातिवादी राजनीति'' के विरुद्ध रहेगा. इसके अलावा महाराष्ट्र में पार्टी मराठा भावना के साथ फिर से जुड़ने की कोशिश करेगी, जिस पर ठाकरे चचेरे भाइयों ने लगभग कॉपीराइट हासिल कर लिया है.
भूमि अध्यादेश के बवाल पर मिले उछाल से कांग्रेस के भीतर लंबे समय से चली आ रही वह बहस भी खत्म हो गई है कि क्या पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बदले राजनैतिक माहौल में अपनी ''गरीब-फर्स्ट'' वाली अर्ध समाजवादी विचारधारा पर फिर से लौटना चाहिए. पार्टी में कई लोग यह भी तर्क देते हैं कि कांग्रेस को अपनी ''अल्पसंख्यक समर्थक'' छवि से भी मुक्ति पा लेनी चाहिए. कांग्रेसियों को लग रहा है कि कारोबार को बढ़ावा देने और लोक कल्याण की योजनाओं का बजट कम करने की मोदी सरकार की नीति को जनता से जिस तरह की प्रतिक्रिया मिल रही है, वैसे में यूपीए सरकार की समाजवादी रुझान की नीतियां खुद-ब-खुद प्रासंगिक होती जा रही हैं. प्रसाद कहते हैं, ''लोगों को एहसास होगा कि समग्रता का कांग्रेस मॉडल ही भारत के विकास और स्थिरता के लिए कारगर है.'' सरकार की गति दोनों तरफ से फंसने जैसी है. वह भूमि अध्यादेश पर कदम पीछे खींचती है तो इससे उद्योग जगत में असंतोष पैदा होगा. एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी कहते हैं, ''शर्म-लिहाज करने वाली कोई भी सरकार इतने कम समय में अपने नीतिगत निर्णय से वापस नहीं हट सकती है. भूमि अध्यादेश पर कदम वापस लेने का अर्थ होगा, कांग्रेस के आगे हार स्वीकार कर लेना.''
मौसम विभाग ने मानसून के सामान्य से कम रहने का पूर्वानुमान जताया है. इसका मतलब रबी के मौजूदा सीजन के बाद खरीद के आगामी सीजन में भी किसान के सामने मुसीबत मुंह बाए खड़ी है, इसका असर सरकार पर भी पड़ेगा. फिर भी, बड़ा सवाल उस नेता को लेकर है, जो आज तक लुका-छिपी ही खेलता रहा है और कांग्रेस उपाध्यक्ष बनने के बाद जनवरी 2013 में जयपुर में दिए एक भावुक भाषण, सितंबर 2013 में दोषी ठहराए गए नेताओं को बचाने के लिए यूपीए 2 के अध्यादेश की एक प्रति फाड़ने और जनवरी 2014 में तालकटोरा स्टेडियम, दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सत्र में उग्र भाषण देने जैसी कभी-कभार की चमक से ही खुश है.
केंद्र सरकार आगे बढ़ गई है और उसने 20 अप्रैल को संशोधित विधेयक लोकसभा में पेश कर दिया है. बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव श्रीकांत शर्मा अब भी सख्ती से पेश आ रहे हैं, ''जब तथ्यों को प्रभावी रूप से पेश कर दिया जाएगा, तो कोई भी गलतफहमी लंबे समय तक टिकी नहीं रह सकती.''
लेकिन क्या सरकार ताजा विधेयक को राज्यसभा में पेश करने की हिम्मत जुटा पाएगी? क्योंकि सत्ता का संतुलन तो जस का तस है. जमीन के घमासान में यह देखना बाकी है कि त्योरियां चढ़ाए बैठे दोनों पक्षों में से पहले किसकी पलक झपकती है. वैसे मोदी ने मुद्दत बाद किसान आत्महत्या पर संवेदना जताकर दिखाया है कि हवा के रुख से वे भी वाकिफ हैं भले ही वे उस तरफ चल पाएं या नहीं.