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यह वाकया उत्तर प्रदेश के
बदायूं जिले के जरीफ नगर का है. तकरीबन 760 परिवारों वाले इस गांव के
अधिकांश घरों में मार्च, 2015 से पहले कोई शौचालय नहीं था. क्या पुरुष और
क्या महिला, सभी के लिए इस निहायत प्राकृतिक जरूरत को पूरा करने का एक ही
सहारा था—मीलों तक फैले हुए खेत. जैसा कि बिना शौचालयों वाले गांवों में
होता है, इस गांव की भी सभी स्त्रियों के शरीर में एक टाइम मशीन फिट थी. वे
सुबह उजाला होने से पहले और शाम को अंधेरा घिरने के बाद ही दिशा-मैदान का
रुख करतीं. पानी कम पीना और ब्लैडर में बढ़ रहे दबाव को घंटों रोके रखना
इन्हें बखूबी आता था. यह पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा थी, इसलिए चिंता का
कोई बड़ा सवाल भी नहीं था.
लेकिन 31 मार्च की शाम बिना शौचालयों वाला यह
गांव अचानक सुर्खियों में आ गया, जब शौच के लिए गई 12 और 13 साल की दो
नाबालिग लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना सामने आई. तब यह सवाल
पहली बार उठा, ''क्या शौचालय घर में ही नहीं होना चाहिए था?''
यह तो
गांव की घटना थी. अब रुख करते हैं देश की राजधानी दिल्ली के सबसे
प्रतिष्ठित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स का. 32 साल की
अर्चना सिंह पिछले तीन महीने से एम्स के चक्कर काट रही हैं. दिल्ली के
पांडव नगर में बतौर एलआइसी एजेंट काम करने वाली अर्चना सिंह को एक्यूट
यूरिनरी ट्रैक्ट इंफेक्शन (यूटीआइ) है. अमृता इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस,
कोच्चि के स्त्री रोग विभाग की अध्यक्ष डॉ. राधामणि कहती हैं, ''देश में
तकरीबन 50 फीसदी महिलाएं जीवन में कम-से-कम एक बार यूटीआइ की तकलीफ से जरूर
गुजरती हैं.'' लेकिन इसकी वजह? वे बताती हैं, ''50 फीसदी से ज्यादा
महिलाओं को अपनी इस प्राकृतिक जरूरत को दबाने और नियंत्रित करने में महारत
हासिल है, जो यूटीआइ का बहुत बड़ा कारण है.''
समाज में स्त्री-पुरुष का
भेद चाहे जितना गहरा हो, लेकिन हमारे शरीर से पानी के जरूरी अवयवों को
फिल्टर कर बाकी अपशिष्ट बाहर निकालने वाले ब्लैडर में इस बात का बोध
बिल्कुल नहीं है. वह देश-काल और शौचालय की उपलब्धता देखकर काम नहीं करता.
अगर टॉयलेट जाने के डर से स्त्रियां पानी ही कम पीने लगें तो ब्लैडर को वह
भी गवारा नहीं. अगर उसके पास करने के लिए काम ही न हो तो भी वह शरीर में दस
नई बीमारियां पैदा करेगा. एम्स के स्त्री रोग विभाग में असिस्टेंट
प्रोफेसर डॉ. सीमा सिंघल कहती हैं, ''सिर्फ ब्लैडर में ही नहीं, बल्कि पानी
कम पीने पर डिहाइड्रेशन की वजह से किडनी में स्टोन होने का खतरा भी कई
गुना बढ़ जाता है.'' डॉ. सिंघल कहती हैं कि स्त्री की संरचना ऐसी है कि
पुरुष के मुकाबले उसमें इंफेक्शंस का खतरा 60 गुना ज्यादा होता है. गंदे
टॉयलेट के इस्तेमाल से यूटेरस में इंफेक्शन होना भी सामान्य बात है.
इस
समस्या से निपटने का यही तरीका है कि स्त्रियां खूब पानी पिएं और
प्राकृतिक जरूरत को दबाएं नहीं. बात तो ठीक है, लेकिन इस पर अगला सवाल
सीपीएम की पोलितब्यूरो सदस्य और जनवादी महिला संगठन की सक्रिय कार्यकर्ता
वृंदा करात का है. वे पूछती हैं, ''लेकिन आप उस शर्मिंदगी को कैसे दूर
करेंगे, जो स्त्रियों में अपने शरीर और उसकी प्राकृतिक जरूरतों के प्रति भर
दी गई है. हम सुपर पावर तो बनना चाहते हैं, लेकिन पब्लिक टॉयलेट की समस्या
को अभी तक हल नहीं कर पाए.''
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत
अभियान का लक्ष्य यानी शहरों में 25 लाख और गांवों में 12 करोड़ शौचालय
बनवाना अगर सफल होता है तो इससे सबसे ज्यादा फायदा महिलाओं को ही होगा.
लेकिन सरकारी अभियानों की तरह स्वाच्छ भारत अभियान की हकीकत भी छिपी नहीं
है. पिछले एक दशक में घर से बाहर की दुनिया, नौकरी और आर्थिक उत्पादन में
महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, 30 फीसदी भारतीय
महिलाएं शहरों में रहती हैं और आर्थिक उत्पादन में उनकी कुल हिस्सेदारी 29
फीसदी है. लेकिन उनके लिए पुरुषों की तरह बीच सड़क पर कहीं भी अपनी
प्राकृतिक जरूरत से निपट लेने की सुविधा नहीं है. सड़़कों, बाजारों,
दफ्तरों और सार्वजनिक जगहों पर उनकी मौजूदगी तो बढ़ रही है, लेकिन उनकी
सुविधा के लिए साफ और सुरक्षित शौचालय नहीं बढ़ रहे हैं.
महिलाओं के लिए
शौचालय की समस्या पर डॉक्यूमेंट्री फिल्म क्यू टू पी बनाने वाली फिल्मकार
पारोमिता वोहरा कहती हैं, ''घर से बाहर निकलने वाली लड़कियों और स्त्रियों
की बढ़ती संख्या ने सार्वजनिक शौचालयों के संकट को और बड़ा कर दिया है.'' वे
बताती हैं कि फिल्म की शूटिंग के समय घंटों बाहर घूमने के दौरान वे खुद भी
इस समस्या से जूझती रही हैं और परेशानियां झेलती रही हैं. दिल्ली शहर में
घूम-घूमकर डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाने वाली पुष्पा रावत हंसकर कहती हैं,
''हमारे घरों में औरतें कहीं बाहर निकलने से पहले और घर लौटने के बाद सबसे
पहले टॉयलेट जाती हैं. जाहिर है, बाकी पूरे समय वे अपनी जरूरत को दबा ही
रही होती हैं.''
स्वच्छ भारत अभियान 1,2000 रु. देकर लोगों से घरों में
शौचालय बनाने की अपील कर रहा है, लेकिन क्या सिर्फ घरों में शौचालय बनाना
काफी होगा. भिलाई की एक सड़क पर स्वच्छ भारत अभियान के बड़े से बैनर पर लिखा
है—हम हैं भारत की नारी, हमको अपनी लज्जा प्यारी. सामाजिक कार्यकर्ता और ऑल
इंडिया प्रोग्रेसिव विमेंस एसोसिएशन की सेक्रेटरी कविता कृष्णन पूछती हैं,
''शौचालय हमारा बुनियादी अधिकार है. इसमें लज्जा का सवाल कहां से आ गया?
जिन घरों में पीने तक का पानी नहीं है, उन्हें सरकार 12,000 रु. पकड़ाकर
कैसे यह उम्मीद कर सकती है कि वे घरों में शौचालय बनवा लेंगे?''
दक्षिण
एशियाई समाज के विशेषज्ञ और कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर सुदीप्तो
कविराज अपने रिसर्च पेपर फिल्थ ऐंड पब्लिक स्फीयर में विस्तार से बताते हैं
कि ''कैसे आजादी के बाद शहरी विकास की बुनियादी अवधारणा में पब्लिक टॉयलेट
की कोई जगह ही नहीं थी.'' आबादी बढऩे के साथ यह समस्या सघन होती गई है.
संकट पूरे समाज का है, लेकिन स्त्रियों की लड़ाई तो दोहरी है. उनके पास
पुरुषों जैसे विशेषाधिकार कहां? लेकिन सवाल दरअसल पुरुषों जैसा विशेषाधिकार
हासिल करने का नहीं, बल्कि शौचालय का अधिकार हासिल करने का है.