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फिर ढूंढने निकले सरस्वती नदी को

केंद्र में बीजेपी के सरकार में आने से उत्साहित भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने मिथक बन चुकी सरस्वती नदी की तलाश फिर से शुरू कर दी है.

अनुभूति विश्नोई
  • नई दिल्ली,
  • 14 अक्टूबर 2014,
  • अपडेटेड 3:38 PM IST

नरेंद्र मोदी को केंद्र की सत्ता में आए महज कुछ महीने हुए हैं, लेकिन संघ परिवार की एक पसंदीदा परियोजना में फिर से जान फूंकने की कवायद शुरू हो गई है. यह सपना है काफी समय पहले लुप्त हो चुकी उस सरस्वती नदी की तलाश, जिसे वेदों में पावन बताया गया है.

अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार और तत्कालीन पर्यटन और संस्कृति मंत्री जगमोहन मल्होत्रा ने सरस्वती की तलाश करने के लिए वैज्ञानिक और पुरातात्विक संसाधनों को लगाने के निर्देश दिए थे, लेकिन यूपीए सरकार ने आते ही इस परियोजना को 2004 में समेट डाला. इसके बारे में जयपाल रेड्डी ने संसद में कहा था कि कोई भी अनुसंधान इस ‘मिथकीय’ नदी का पता लगाने में कामयाब नहीं हो सका है.

अब बीजेपी सरकार के दोबारा आने से यह परियोजना फिर जिंदा हो गई है. जल संसाधन, नदी विकास और गंगा को नया जीवन देने के लिए बने विभाग की केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने अगस्त में लोकसभा को बताया कि उनकी सरकार पूरी गंभीरता से नदी को खोजने की मंशा रखती है.

उनके मंत्रालय ने केंद्रीय भूजल बोर्ड को इलाहाबाद के एक किले के भीतर मौजूद कुएं का पानी जांचने के आदेश दिए हैं ताकि लुप्त हो चुकी नदी का स्रोत और उसका रास्ता तलाशा जा सके. ऐसा लगता है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) और संस्कृति मंत्रालय ने इस परियोजना में नए सिरे से जगी दिलचस्पी पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है.

उच्च पदस्थ सूत्रों ने इंडिया टुडे को पुष्टि की कि नवंबर से एएसआइ घग्घर-हकरा नदी मार्ग पर कुछ प्रमुख स्थलों की खुदाई करेगा. माना जाता है कि कभी सरस्वती नदी का यही रास्ता रहा होगा. घग्घर नदी हिमाचल प्रदेश से निकलती है और पंजाब तथा हरियाणा से होते हुए राजस्थान तक जाती है.

हकरा पाकिस्तान से आती है और उसे भारत में घग्घर का ही विस्तार माना जाता है. एएसआइ की योजना इस महीने के अंत में घग्घर-हकरा नदी मार्ग के शुरुआती हिस्सों में प्राचीन रिहाइशों की पहचान करना है ताकि नए सिरे से खुदाई की शुरुआत की जा सके. इनमें से आरंभिक स्थल राजस्थान या हरियाणा में होंगे.

इंडिया टुडे को एक उच्च पदस्थ सूत्र ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर बताया, “हमारा उद्देश्य सीमित है. एएसआइ पुनरुत्थान परियोजनाओं पर काम नहीं कर सकता, इसीलिए हम घग्घर-हकरा नदी मार्ग के इर्द-गिर्द स्थलों की खुदाई और अन्वेषण का काम करेंगे. इससे उस दौर के लोगों की वास्तुकला, नियोजन और जीवनशैली का आकलन किया जा सके. हमें अगले महीने से खुदाई शुरू करने की उम्मीद है.” इस तरह की खुदाई नदी घाटी सभ्यता की खोज में खासी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है.

फूंक-फूंक कर कदम
इस बार एएसआइ काफी सतर्क ता से नियमों को साथ लेकर चल रहा है और इसकी दुरुस्त वजहें भी हैं. 2006 में सीपीएम नेता सीताराम येचुरी की अध्यक्षता वाले एक संसदीय पैनल ने इस प्रक्रिया की खामियों और एनडीए के शुरू किए गए सरस्वती विरासत प्रोजेक्ट के वैज्ञानिक आधार पर सवाल उठाया था. इसने एएसआइ की खिंचाई करते हुए पूछा था कि आखिर यह संस्थान किसी नदी के पुनरुद्धार और अन्वेषण की परियोजना को कैसे अपने हाथ में ले सकता है जब किसी भी संस्थान ने ऐसे अध्ययन को मंजूरी नहीं दी है, जो कि बुनियादी शर्त है.

सरकार बदलने के साथ इस बार एएसआइ के पास कई प्रस्ताव आए हैं जिनमे घग्घर-हकरा नदी मार्ग पर खुदाई का प्रस्ताव है. जिन्होंने ऐसी सिफारिश की है उनमें एएसआइ, दिल्ली की अन्वेषण शाखा और दक्कन कॉलेज, पुणे समेत कई अन्य संस्थाएं हैं.

एएसआइ इस बार फूंक-फूंक कर कदम रख रही है क्योंकि पिछले साल उत्तर प्रदेश के डौंडिया खेड़ा में खजाने की तलाश के लिए खुदाई करके एक बार उसने अपने हाथ जला लिए हैं. यह खुदाई शोभन सरकार नाम के एक संत के सपने के आधार पर की गई थी. इसीलिए इस बार एएसआइ को इस खुदाई के लिए सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड ऑफ आर्कि योलॉजी (सीएबीए) की अनुमति का इंतजार है.

सीएबीए एएसआइ की सर्वोच्च संस्था है जो किसी खुदाई परियोजना को हरी झंडी देने से पहले उसकी पुरातात्विक विशिष्टताओं पर विचार करती है. इस बार उसके सामने घग्घर-हकरा नदी मार्ग पर खुदाई समेत 140 प्रस्ताव लंबित हैं.

पुरातत्वविज्ञानी और एएसआइ के अतिरिक्त महानिदेशक बी.आर. मणि ने इस कदम का बचाव करते हुए कहा कि संस्था ने प्राचीन हड़प्पा स्थलों यानी घग्घर-हकरा स्थलों पर अन्वेषण और अनुसंधान का काम वास्तव में कभी नहीं रोका था, जिसे एनडीए शासनकाल की सरस्वती परियोजना के हिस्से के तौर पर शुरू किया गया था. राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले का हड़प्पा कालीन कालीबंगा शहर बिल्कुल घग्घर नदी में ही बसा था. यहां बहुत पहले खुदाई की जा चुकी है और यहां एएसआइ का संग्रहालय भी है.

उन्होंने इंडिया टुडे को मेल से बताया, “एएसआइ और दूसरी विद्वान संस्थाएं हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और गुजरात में काम कर रही हैं और उन्होंने कई अहम स्थलों तथा पुरातात्विक सामग्री की खोज की है. हरियाणा के भिराणा जैसे स्थलों पर पाई गई नई सामग्री का विवरण ईसा पूर्व आठवीं सदी तक भारतीय सभ्यता के निशानदेही करता है. एएसआइ और अन्य संस्थाएं इस क्षेत्र में नए स्थलों पर खुदाई का काम करेंगी और इस पर सीएबीए की स्थायी समिति की बैठक के बाद जल्द ही फैसला होगा.”

मणि ने 14 से ज्यादा अन्वेषण परियोजनाओं का निर्देशन किया है जिनमें लाल कोट (दिल्ली), सालिमगढ़ (दिल्ली), मुहम्मद नगर और हरनोल (हरियाणा), सिसवनिया, संकिसा, अयोध्या, लाठिया (यूपी) और कनिसपुर तथा अंबारण (जम्मू-कश्मीर) शामिल हैं. उन्होंने ‘सिंधु-सरस्वती’ सभ्यता पर भी काफी मात्रा में लिखा है. हाल ही में अपने एक लेख ‘लुप्त’ नदी घाटी में ईसा पूर्व आठवीं सदी्य्य में मणि ‘लुप्त’ सरस्वती/हकरा घाटी के बारे में लिखते हैं और प्राक-हड़प्पा संस्कृति के केंद्रों के रूप में हरियाणा और राजस्थान को स्थापित करते हैं.

मणि लिखते हैं, “चोलिस्तान में हकरा नदी घाटी ‘लुप्त’ सरस्वती घाटी का ही विस्तार है. यहां खुदाई में ऐसे मिट्टी के बरतन मिले हैं जिन्हें ‘हकरा वेयर’ कहा जाता है. इससे इस बात की पुष्टि होती है कि ‘लुप्त’ सरस्वती नदी की घाटी में मिला सांस्कृतिक स्तर भारतीय सभ्यता का पालना है.” उनका दावा है कि भिराणा, राखीगढ़ी और कालीबंगा में प्राप्त रेडियोमीट्रिक तारीखें स्पष्ट तौर पर बताती हैं कि इस उपमहाद्वीप में हड़प्पा संस्कृति के विकास के चरण क्या थे.

यह सरस्वती नदी का पुनरुद्धार के अभियान के बिल्कुल उपयुक्त बैठता है, जिसे न सिर्फ नदी बल्कि एक सभ्यता के तौर पर देखा जाएगा.

काल के प्रवाह में सरस्वती
जगमोहन मल्होत्रा ने जून 2002 में हरियाणा के यमुनानगर स्थित सरस्वती नदी शोध संस्थान में घोषणा की थी कि यह केंद्र लुप्त सरस्वती नदी के मार्ग पर खुदाई का काम करेगा. इसके लिए चार सदस्यों की एक कमेटी गठित की गई और दो चरण में खुदाई की योजना बनी. पहले चरण में यमुनानगर के आदि बद्री से सिरसा वाया कुरुक्षेत्र के भगवानपुरा की योजना थी. दूसरे में खुदाई राजस्थान के कालीबंगा तक की जानी थी.

इस दौरान इसरो के जोधपुर स्थित रीजनल रिमोट सेंसिंग सर्विस सेंटर के वैज्ञानिकों और राजस्थान सरकार के भूजल विभाग ने एक अध्ययन 2004 में किया गया. इसमें बताया कि वैदिक काल की सरस्वती नदी का एक विशाल पैलियो ड्रेनेज सिस्टम इस क्षेत्र में अस्तित्व में है.

एएसआइ की सरस्वती विरासत योजना काफी वृहद थी. खुदाई के लिए पंद्रह स्थलों की पहचान की गई थी. तब तक इनमें से दस में आंशिक खुदाई हो भी चुकी थी, जिनमें हरियाणा के आदि बद्री, थानेसर, संधौली, भिराणा और हांसी, राजस्थान के बरोड़, तरखनवाला डेरा और चक 86 तथा गुजरात के धौलावीरा और जूनीकरण शामिल थे.

इन स्थलों पर खुदाई करने वाले पुरातत्वविद् आर.एस. बिष्ट उस वक्त एएसआइ के उपमहानिदेशक थे और उन्होंने ही मोटे तौर पर सरस्वती प्रोजेक्ट की कमान संभाली थी. इसके बाद 2004 का लोकसभा चुनाव हुआ और पूरा परिदृश्य बदल गया. जैसा कि बिष्ट कहते हैं, “बदकिस्मती से नई सरकार ने बड़ी चालाकी से प्रोजेक्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया.”

रिटायर होने के बाद भी बिष्ट को एनडीए सरकार ने छह माह का सेवा विस्तार दिया था ताकि वे परियोजना को आगे ले जा सकें. सरकार बदलने पर उन्होंने काम बंद कर दिया. अब एक दशक बाद सियासी हवाओं का रुख फिर बदल गया है. माना जा रहा है कि एएसआइ ने सरस्वती की तलाश में खोदे जाने वाले स्थलों के बारे में चुपचाप उनसे सुझाव मांगा है.

वे कहते हैं, “परियोजना को शुरू होने से पहले ही मार दिया गया और सिर्फ इसलिए कि नई सरकार आ गई. इसे भगवाकरण के प्रयास के तौर पर देखा गया. वास्तव में यह इस बात को समझने की एक बहुविधात्मक परियोजना थी कि इतनी रिहाइशें एक साथ कैसे उभर आईं.”

उनके दावों की ऐतिहासिक सटीकता के बारे में और कथित सरस्वती नदी के घग्घर-हकरा नदीतंत्र के साथ एकरूपता को लेकर कई लोग सवाल करते हैं. एएसआइ से जुड़े एक अन्य पुरातत्वविद् नाम न छापने की शर्त पर कहते हं् कि घग्घर-हकरा नदी तंत्र और उसके इर्द-गिर्द की सभ्यताओं का वेदों में वर्णित नदी के साथ कोई संबंध नहीं हो सकता. उन्होंने बताया, “मेरे विचार से घग्घर-हकरा का सरस्वती से कोई लेना-देना नहीं है.

कालीबंगा से राखीगढ़ी तक की समूची रिहाइश स्पष्ट तौर पर प्राचीन व्यापार मार्ग का हिस्सा है. सरस्वती की तलाश तो यहां अंग्रेजों के जमाने से ही हो रही है और धीरे-धीरे यह मामला राजनैतिक हो चुका है. तथ्य यह है कि सरस्वती के प्रवाह का मार्ग दिखाने के लिए कोई पुरातात्विक साक्ष्य मौजूद नहीं है—यह दिखाने के लिए भी नहीं कि सरस्वती नाम की कोई नदी थी भी.”

दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास की प्रोफेसर और पुरातत्वविद् नयनजोत लाहिड़ी दूसरी बात कहती हैं. वे कहती हैं कि सरस्वती की सनक से पार जाना कहीं ज्यादा अहम है. उनके शब्दों में, “अकेले सरस्वती की जगह केंद्र और संस्कृति मंत्रालय को पुरातत्व के लिए एक व्यापक राष्ट्रीय दृष्टि को प्रस्तुत करना चाहिए जो समूचे देश को कवर करती हो.”

यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आइआइटी कानपुर ने पिछले साल नदी घाटी में गहराई में बड़े जल स्रोत को खोज निकाला था. इतिहासकार भले ही इस पौराणिक नदी के अस्तित्व पर बहस करते रहें, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि सरकार की सांस्कृतिक एजेंसियां इसे तलाशने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगी.

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