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"आनुषंगिक संगठन मुद्दों पर बोलें, लेकिन उस पर टिके न रहें." राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पितृसंगठन के नाते जब यह निर्देश दिया तो संसद के बजट सत्र से पहले तक सरकार को आंखें दिखाने वाले स्वदेशी के योद्धाओं के तेवर ढीले पड़ गए. जुबान से मोदी सरकार की तारीफ वैसे ही अटक-अटक कर निकल रही है, जैसे बदहजमी से निकलने वाली डकार. इन संगठनों के लिए मोदी की तारीफ वैचारिक पृष्ठभूमि का तकाजा है तो विरोध के मद्धिम सुर अस्तित्व बचाने की मजबूरी. संघ के इस निर्देश के पीछे उसकी बड़ी चिंता है—वाजपेयी सरकार के समय कंधार, करगिल, ताबूत तथा यूटीआइ घोटाला और संसद पर हमले जैसी बड़ी घटनाओं के बावजूद छह साल में भी उसकी छवि में ऐसी गिरावट नहीं दिखी, जैसी एक साल में मोदी सरकार की दिखने लगी है. संघ के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक, "यह हमारे लिए अध्ययन का विषय है." लेकिन मोदी सरकार के प्रति संघ की नरमी की वजह क्या वाकई बदलते राजनैतिक हालात भर हैं या फिर सत्ता की छाया में अपने विस्तार की मजबूरी?
क्यों मंद हुई 'बिगुल' की आवाज
पिछले एक साल में विपक्ष के तेवर ही नहीं बदले हैं, बल्कि संघ में भी काफी कुछ बदला है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने छुट्टी के बाद आक्रामक वापसी तो की ही, 'सूटबूट की सरकार' का जुमला मोदी सरकार पर ऐसा चस्पां किया कि उससे छुटकारा पाना बीजेपी के लिए मुश्किल है. दूसरी तरफ, जनता परिवार एकजुट हो रहा है तो दिल्ली की चुनावी हार ने भी पार्टी की पेशानी पर बल डाल दिए. इसके अलावा भूमि अधिग्रहण बिल पर जल्दबाजी ने सरकार की छवि को किसान विरोधी बना दिया और उसमें सुधार की कोशिशें भी इस छवि को तोडऩे में फिलहाल नाकाम साबित हुई हैं. एक तरफ विपक्ष की लामबंदी और दूसरी तरफ सरकार की मजदूर-किसान-आर्थिक नीतियों पर स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ और भारतीय किसान संघ के जहर बुझे तीर सरकार के लिए मारक साबित हो रहे थे. अगर इन संगठनों की मोर्चाबंदी जारी रहती तो विपक्ष की धार और तेज होती. लिहाजा, संघ ने वक्त रहते इन संगठनों पर लगाम कस दी. लेकिन रार नहीं ठानने की नसीहत के साथ मुद्दों पर बोलने की छूट दे दी गई ताकि इन संगठनों के अस्तित्व पर सवाल न उठे.
लेकिन माधव के दावे से इतर संघ सरकार की तेजी से गिरती छवि से चिंतित है. चिंता की बड़ी वजह यह है कि जो कांग्रेस लोकसभा में विपक्ष का नेता पद पाने तक का आंकड़ा नहीं जुटा पाई, वह आज अपने दम पर बहुमत हासिल करने वाली बीजेपी पर भारी पड़ रही है. संघ के एक नेता की दलील है कि भूमि अधिग्रहण के मसले को सरकार सही तरीके से नहीं संभाल पाई. संघ का मानना है कि अगर सरकार का कोई मंत्री इस मसले पर पहले अण्णा हजारे से एक बार बात कर लेता तो शायद इतनी छीछालेदर नहीं होती.
हालांकि बीजेपी की गलती ही संघ की नरमी की एकमात्र वजह नहीं है, संघ की भी अपनी मजबूरी है. मोदी को मिले बड़े जनादेश को बीजेपी के साथ-साथ संघ अपने विस्तार के लिए भी मुफीद समय मानता है. इसलिए संघ ने मार्च में आयोजित अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में अपनी 'सर्वव्यापी, सर्वस्पर्शी' मुहिम के लिए एक मंदिर, एक कुआं, एक श्मशान का नारा दिया था. उस बैठक के बाद संघ के सरकार्यवाह भैय्याजी जोशी ने भी कहा था कि सरकार अपना काम करे, एक साल का समय काफी नहीं होता. लेकिन पिछले दिसंबर में 'घर वापसी' की मुहिम पर संसद में हंगामा मचा और संघ की संस्था धर्म जागरण समन्वय समिति के मुखिया राजेश्वर सिंह ने भी आक्रामक रुख अपना लिया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आपत्ति की. संघ ने भी रार ठानने की बजाए राजेश्वर को हटाने में देरी नहीं की. जबकि इसी मुद्दे पर दिसंबर 2014 में हिंदू सम्मेलन में मोहन भागवत ने कहा था, "संघ सभी समाज को एकजुट करे, हम मजबूत हिंदू समाज बनाना चाहते हैं. जिन्हें लालच देकर धर्मांतरण कराया गया, उन्हें वापस ला रहे हैं तो इसमें क्या गलत है." उन्होंने दो टूक कहा था, "अगर आप हिंदू धर्म में वापसी नहीं चाहते तो कानून लाइए, लेकिन कानून नहीं चाहते और हिंदू धर्म में वापसी नहीं चाहते हैं तो हिंदुओं का धर्मांतरण भी नहीं करें."
मतलब यह कि अपना विस्तार करने की रणनीति के तहत संघ समन्वय की मुद्रा में है. भागवत ने संघ के तृतीय वर्ष शिविर के समापन पर मोदी सरकार की बेलौस तारीफ करते हुए कहा कि भारत आज दुनिया में सबसे भरोसेमंद देश के तौर पर उभरा है. मोदी का नाम लिए बिना उन्होंने कहा कि आज हर भारतीय एक बदलाव को महसूस कर रहा है और लोगों की उम्मीदें भी बढ़ी हैं. संघ महसूस कर रहा है कि चाहकर भी इस वक्त मोदी सरकार पर नकेल नहीं कसी जा सकती. एक तरफ मोदी का अपना जादू है तो दूसरी तरफ मोदी, अरुण जेटली और अमित शाह की तिकड़ी सरकार से लेकर संगठन तक में पूरी तरह हावी है. सूत्रों के मुताबिक, संघ इस मामले में पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी के बयान को अपने 'मन की बात' मानता है. लेकिन उसे लगता है कि अगर उसके संगठनों ने सरकार के खिलाफ बड़ा मोर्चा खोला तो समन्वय की गाड़ी बेपटरी हो जाएगी. ऐसे में 'बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक की' वाली कहावत चरितार्थ न हो जाए.
हालांकि संघ के सुर को नरम करने में बीजेपी ने भी जनवरी के बाद से बेहतर समन्वय की रणनीति अपनाई. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय दत्तोपंत ठेंगड़ी से लेकर कई नेताओं ने आर्थिक नीतियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. इससे सबक लेते हुए बीजेपी ने समन्वय के लिए मंत्रियों का समूह बना दिया ताकि फैसलों पर परिवार की तरफ से उंगली न उठे. इसके अलावा पार्टी के स्तर अमित शाह, रामलाल और राम माधव ने तीनों संगठनों के साथ चार बैठकें कीं, जिससे समन्वय की गाड़ी पटरी पर लौटी.
संघ के आनुषंगिक संगठनों में भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस), स्वदेशी जागरण मंच (एसजेएम) और भारतीय किसान संघ नीतिगत मामलों में सरकार से मोर्चा लेते हैं तो विहिप का काम सांस्कृतिक क्षेत्र से जुड़ा है. हालांकि सरकार के एक साल बाद राम मंदिर के मसले पर विहिप में द्वंद्व साफ दिखता है. विहिप को उम्मीद थी कि मोदी सरकार इस दिशा में आगे बढ़ेगी. लेकिन सरकार का एक साल पूरा होने पर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का बयान आया कि उसके पास कोर एजेंडे को पूरा करने के लिए जरूरी दो-तिहाई बहुमत नहीं है. राजनाथ सिंह ने भी राज्यसभा में आंकड़े नहीं होने की मजबूरी जताई. इससे विहिप आहत तो है लेकिन खुलकर बोलने से परहेज कर रही है. सूत्रों के मुताबिक, विहिप के एक वरिष्ठ नेता ने ही नेपथ्य में पड़े पूर्व बजरंग दली और राज्यसभा सांसद विनय कटियार को मंदिर मुद्दे पर मुखर कर दिया है.
ऋषिकेश में हाल ही में संपन्न विहिप के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल की बैठक में बाकायदा प्रस्ताव पारित कर सोमनाथ मंदिर की तर्ज पर कानून बनाकर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की मांग की गई है. लेकिन दूसरी तरफ विहिप के अंतरराष्ट्रीय महासचिव चंपत राय मोदी सरकार के एक साल पर जमकर कसीदे काढ़ते हैं. इंडिया टुडे से वे कहते हैं, "मोदी ने दुनिया में भारत की धाक जमाई है. नवरात्र का त्योहार क्या होता है, यह उस देश में जाकर बता दिया जो यह समझते थे कि भारत में सिर्फ ईद मनाई जाती है. योग का मतलब दुनिया को समझाया." राय का कहना है कि पिछले एक साल में किसी में इतनी हिम्मत नहीं हुई कि हिंदू आतंकवाद की बात कह सके. इसी तरह का हृदय परिवर्तन नीतिगत मामलों पर सरकार को घेरने वाले संघ के संगठनों का भी है.
बजट सत्र से पहले सत्याग्रह की चेतावनी देने वाले बीएमएस के महासचिव विरजेश उपाध्याय अब जन धन योजना, मुद्रा बैंक, तीनों बीमा योजना, यूएन नंबर, यूबीएन कार्ड की पहल को सीधे-सीधे मजदूरों के हित में बताते हैं. लेकिन तारीफ और विरोध का विरोधाभास खूब दिखता है. वे नई पेंशन योजना के साथ निजी स्वास्थ्य बीमा के विकल्प को गलत बताते हैं. लेकिन इस सरकार की ओर से मजदूरों के लिए संहिता लाने की पहल का स्वागत करते हैं. हालांकि संहिता के प्रावधानों पर उन्हें एतराज है क्योंकि इससे ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकारों में कटौती हो रही है. बीएमएस अब एफडीआइ और निवेश का विरोधी नहीं है, लेकिन उसकी शर्तों पर बहस चाहता है. सरकार के कामकाज को वे 10 में से 10 नंबर देते हुए कहते हैं, "मजदूर संगठनों की 10 सूत्री मांग को लेकर यूपीए सरकार के समय हमने तीन बड़ी हड़ताल की और चार साल का इंतजार करना पड़ा, जबकि मोदी सरकार ने एक साल में ही इस पर वित्त मंत्री अरुण जेटली की रहनुमाई में एक कमेटी बना दी." फिर भी मोदी सरकार के खिलाफ माहौल पर उनका अंदाज दार्शनिक हो जाता है, "बदलाव होता है तो उसका विरोध होता ही है, यही चेंज मैनेजमेंट है. मेरी नजर में इस सरकार का खुद का ऐसा कोई काम नहीं है जिससे मजदूरों को नुक्सान होता हो."
इसी तरह भारतीय किसान संघ के राष्ट्रीय मंत्री मोहिनी मोहन मिश्र पहले भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को संसद में गिराने के लिए सभी सांसदों को चिट्ठी लिखने की बात कहते हुए अधिग्रहण की बजाए लीज पर जमीन लेने की मांग कर रहे थे. अब उनका कहना है कि पिछले 67 साल में यह पहली सरकार है जो शहर केंद्रित विकास की बजाए गांवों की ओर देख रही है. उनका कहना है कि इस सरकार में जमीन से जुड़े हुए लोग हैं जिन्होंने सही मायने में गरीबी देखी है. भूमि अधिग्रहण बिल पर उनका कहना है कि इसे संसद से पास किया जाना चाहिए और अमल में आने के बाद कोई दुष्प्रभाव दिखा तो उसके अनुरूप बदलाव के लिए संगठन सामने आएगा.
स्वदेशी के पहरेदार और इस मंच के सह संयोजक अश्वनी महाजन भी सरकार के कदमों का स्वागत करते हैं. उनका कहना है कि मोदी सरकार ने महंगाई पर नियंत्रण किया है और देश को आर्थिक धीमेपन से बाहर निकालकर उत्पादन क्षेत्र को बढ़ावा दिया है. हालांकि बीएमएस से उलट एफडीआइ पर उनका विरोध कायम है. जीएम फसलों पर लगी रोक को वे सरकार पर अपनी जीत बताते हैं. लेकिन भूमि बिल पर उनके सुर अब बेहद नरम हैं, "अधिग्रहण विकास के लिए जरूरी है, पर एसईजेड के नाम पर ली गई जमीन का पहले ऑडिट होना चाहिए और ऐसी पद्धति बने जिसमें किसानों की सहमति हो."
संघ परिवार से निर्देश के सवाल या वैचारिक द्वंद्व को तीनों ही संगठनों के नेता खारिज करते हैं. तीनों संगठनों का ताजा रुख, "मोदी सरकार आने के बाद देश में सकारात्मक माहौल बना है" निश्चित तौर से मोदी सरकार के लिए बड़ी राहत है. लेकिन यह भी तथ्य है कि 'धर्मांतरण', 'घर वापसी' जैसे मुद्दों पर संसद से सड़क तक सरकार के लिए परेशानी खड़ी हुई थी. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जिस लहजे में मोदी सरकार को संदेश दिया था, वह भी चिंता की बात थी. हालांकि बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव श्रीकांत शर्मा संघ के हमलावर या नरम होने के सवाल को खारिज करते हैं. वे सवाल उठाते हैं, "लव जिहाद या धर्मांतरण जैसे मुद्दों पर बयानबाजी से सड़क बनाने की गति में कोई कमी आई क्या?, सरकार लगातार काम कर रही है."
लेकिन यह एकजुटता कब तक रहेगी? यह सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि खुद संघ अनौपचारिक चर्चाओं में मानता है कि मोदी सरकार अभी तक सिर्फ कांग्रेस के एजेंडे को ही नाम बदलकर आगे बढ़ा रही है और उसे मलाल है कि सरकार ने अभी तक ऐसा कुछ नहीं किया जिससे कहा जा सके कि यह राष्ट्रवादी एजेंडे वाली सरकार है.
जब मोदी भारी बहुमत के साथ सत्तासीन हुए तो संगठन की कमान भी हिचकिचाहट के बावजूद संघ ने मोदी की पसंद अमित शाह को सौंपने पर हरी झंडी दे दी. लेकिन जिस तरह सरकार की छवि पर सवाल उठ रहे हैं उससे संघ खुश नहीं है. शाह ने तो सार्वजनिक तौर पर कह दिया कि मंदिर, अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता के मुद्दे को सुलझाने के लिए उसके पास जरूरी संख्या बल नहीं है. इस बारे में संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य इंडिया टुडे से कहते हैं, "शाह ने जो कहा वह सही है. यही बात सरकार को भी बोलने दीजिए. अभी तो एक साल हुआ है, सरकार पांच साल के लिए है." वैद्य दिल्ली विधानसभा में बीजेपी की हार को सरकार के खिलाफ माहौल नहीं मानते. उनका कहना है, "दिल्ली में बीजेपी का वोट शेयर कम नहीं हुआ है. मीडिया जल्दबाजी में निष्कर्ष निकाल लेता है."
संघ दीर्घकालिक रणनीति पर काम कर रहा है. सूत्रों की मानें तो संघ यह मानकर चल रहा है कि सरकार पर उसका जोर नहीं चलेगा, इसलिए उसकी रणनीति संगठन पर जोर देने की है. अगर सरकार की छवि नहीं सुधरी तो संघ अपनी अगली रणनीति को अंजाम दे सकता है. बिहार चुनाव, जिसे मुख्य चुनाव आयुक्त ने हाल ही में तैयारियों के लिहाज से मदर ऑफ ऑल इलेक्श की संज्ञा दी है, सही मायने में मोदी-शाह की जोड़ी के लिए भी सबसे अहम चुनाव साबित होगा. अगर बिहार में बीजेपी पस्त हुई तो संघ अपनी दूसरी रणनीति के तहत संगठन में बदलाव कर सकता है. हाल ही में संघ प्रमुख मोहन भागवत के साथ गृह मंत्री राजनाथ सिंह की मुलाकात में एक नई पटकथा लिखे जाने की खबरें आ रही हैं. सूत्रों के मुताबिक, राजनाथ ने सरकार छोड़कर संगठन की जिम्मेदारी संभालने की इच्छा जाहिर कर दी है. अगर बिहार में बीजेपी की हार हुई तो अमित शाह को शायद ही दूसरा कार्यकाल मिले. खुद शाह को भी ऐसा अंदेशा है और हाल ही में उन्होंने अपने करीबियों के सामने इसका इजहार भी किया है. सूत्रों के मुताबिक, बिहार चुनाव के बाद हालात बदले तो राजनाथ या नितिन गडकरी बीजेपी अध्यक्ष के लिए संघ की पसंद बन सकते हैं. अगर मोदी इन नामों पर राजी नहीं हुए तो छुपे रुस्तम शिवराज सिंह चौहान भी हो सकते हैं.
दरअसल, संघ को लगता है कि मोदी को अपनी टीम बनाने से लेकर संगठन तक में फ्री हैंड दिया गया लेकिन इससे पार्टी मोदीमय नजर आने लगी है. संघ के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक, संघ यह संदेश देगा कि मोदी का सिर संघ की चौखट से ऊंचा नहीं हुआ है.
जाहिर है, मोदी को मिले प्रचंड बहुमत के बाद संघ आत्मसमर्पण की मुद्रा में था, लेकिन बदले राजनैतिक हालात में कमजोर मोदी उसकी रणनीति के लिहाज से मुफीद दिख रहे हैं. ऐसे में फिलहाल संघ की खामोशी तूफान से पहले की शांति भर ही लगती है.