
धारा 370 के अंतर्गत राष्ट्रपति के आदेश से 1954 में लागू की गई संविधान की धारा 35ए केंद्र सरकार के लिए अब मुश्किलों का सबब बन गई है.
मामले में आरएसएस से जुड़े थिंक टैंक जम्मू-कश्मीर विचार मंच ने केंद्र सरकार पर आर्टिकिल 35ए को हमेशा के लिए खारिज करने का दबाव बढ़ा दिया है. इधर सुप्रीम कोर्ट ने वी द पीपुल और वेस्ट पाक रिफ्यूजी एक्शन कमेटी-1947 समेत 5 अन्य की याचिका पर सुनवाई के लिए अगली तारीख 21 अक्टूबर तय कर दी है. पहले सुनवाई की तारीख 13 सितंबर के लिए सुप्रीम कोर्ट ने तय की थी.
केंद्र सरकार को इस बीच सुप्रीम कोर्ट में ये जवाब भी दाखिल करना है कि आखिर संवैधानिक तौर पर बगैर संसद की मंजूरी के सिर्फ राष्ट्रपति के आदेश से 1954 में पारित धारा 35ए की मौजूदा संवैधानिक हैसियत क्या है? मामले में मुद्दा ये भी है कि आखिर क्यों संविधान की किसी नई प्रकाशित पुस्तक में इसका जिक्र नहीं आता? जबकि पुराने संविधान की प्रतियों में भी धारा 35 ए को परिशिष्ट में ही रखा गया है.
क्या है धारा 35ए का मामला?
संविधान के अनुच्छेद 35ए को 14 मई 1954 में राष्ट्रपति के आदेश से संविधान में जगह मिली थी. संविधान सभा लेकर संसद की किसी भी कार्यवाही में कभी अनुच्छेद 35ए को संविधान का हिस्सा बनाने के संदर्भ में किसी संविधान संशोधन या बिल लाने का जिक्र नहीं मिलता. अनुच्छेद 35ए को लागू करने के लिए तत्कालीन सरकार ने धारा 370 के अंतर्गत प्राप्त शक्ति का इस्तेमाल किया था.
अनुच्छेद 35ए से जम्मू-कश्मीर सरकार और वहां की विधानसभा को स्थायी निवासी की परिभाषा तय करने का मनमाना अधिकार मिल गया. इसी के साथ राज्य सरकार को ये अधिकार भी मिला कि वो आजादी के वक्त दूसरी जगहों से आए शरणार्थियों और अन्य भारतीय नागरिकों को जम्मू-कश्मीर में किस तरह की सहूलियतें दे अथवा नहीं दे.
धारा 35ए को लेकर विवाद क्यों?
देश के विभाजन के वक्त बड़ी तादाद में पाकिस्तान से शरणार्थी भारत आए. इनमें लाखों की तादाद में शरणार्थी जम्मू-कश्मीर राज्य में भी रह रहे हैं. जम्मू-कश्मीर सरकार ने अनुच्छेद 35ए के जरिए इन सभी भारतीय नागरिकों को जम्मू-कश्मीर के स्थायी निवासी प्रमाणपत्र से वंचित कर दिया. इन वंचितों में 80 फीसद लोग पिछड़े और दलित हिंदू समुदाय से संबंधित हैं. इसी के साथ जम्मू-कश्मीर में विवाह कर बसने वाली महिलाओं और अन्य भारतीय नागरिकों के साथ भी जम्मू-कश्मीर सरकार अनुच्छेद 35ए की आड़ लेकर भेदभाव करती है.
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में लोगों ने शिकायत की है कि अनुच्छेद 35ए के कारण संविधान प्रदत्त उनके मूल अधिकार जम्मू-कश्मीर राज्य में छीन लिए गए हैं, लिहाजा राष्ट्रपति के आदेश से लागू इस धारा को केंद्र सरकार फौरन रद्द करे.
क्या है मौजूदा जम्मू-कश्मीर सरकार का रुख?
जम्मू-कश्मीर सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में जवाब दाखिल किया जा चुका है. जम्मू सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दावा किया है कि 1954 में अनुच्छेद 35ए के पारित होने के बाद पहली बार कोर्ट में राष्ट्रपति के आदेश को चुनौती दी गई है. इस तरह से याचिका प्रस्तुत करने में देरी की गई. इसी आधार पर ही इस याचिका को खारिज कर दिया जाना चाहिए. वैसे याचिका में उठाए गए मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट ने पुरनलाल और संपत प्रकाश के केस में पहले ही खारिज कर दिया है लिहाजा अब इस याचिका का कोई मतलब नहीं बनता है. ...अनुच्छेद 35ए अब निर्णीत कानून बन चुका है, राज्य सरकार और केंद्र ने इसे मंजूरी दे रखी है.
क्या है RSS का रुख?
अनुच्छेद 35ए को खत्म करने के लिए आरएसएस के थिंक टैंक जम्मू-कश्मीर विचार मंच ने ही अदालत से लेकर सड़क तक तार्किक और बौद्धिक लड़ाई छेड़ रखी है. आजतक से बातचीत में जम्मू-कश्मीर विचार मंच के संयोजक आशुतोष भटनागर का कहना है कि ‘केंद्र सरकार को आज नहीं तो कल अनुच्छेद 35ए पर स्टैंड साफ करना पड़ेगा, आखिर कब तक बगैर संसद की मंजूरी के अनुच्छेद 35ए राष्ट्रपति के आदेश मात्र से देश के लाखों नागरिकों के साथ खुलेआम भेदभाव का सबब बनेगी.
जल्द साफ करेंगे अपना रुख
आरएसएस से जुड़े एक अन्य केंद्रीय नेता का कहना है कि हमने मामले में सरकार से जुड़े लोगों से बातचीत की है और साफ किया है कि संविधान की मूल भावना के मुताबिक मामले में सरकार को स्टैंड लेना चाहिए. जम्मू-कश्मीर में लाखों भारतीय नागरिकों के साथ आखिर कब तक इस तरह भेदभाव चलता रहेगा. केंद्र सरकार ने हमें आश्वासन दिया है कि सरकार जम्मू-कश्मीर में किसी भी भारतीय नागरिक के साथ भेदभाव नहीं होने देगी और अनुच्छेद 35ए को लेकर 1954 के राष्ट्रपति के आदेश की भी सरकार गहन समीक्षा कर अपना रुख जल्द अदालत के सामने साफ करेगी.