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राजस्थान के नागौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की सालाना बैठक का मुख्य मंडप डॉ. भीमराव आंबेडकर को समर्पित था. प्रवेश द्वार पर ही आंबेडकर की बड़ी-सी तस्वीर और अंदर घुसते ही दाईं तरफ एक छोटे-से मंडप में संघ के पूर्व सरसंघचालक बाला साहब देवरस की तस्वीर के साथ चित्र प्रदर्शनी लगाई गई थी. 11-13 मार्च की इस बैठक में संघ ने सामाजिक समरसता पर एक विशेष प्रस्ताव के जरिए सभी नागरिकों, धार्मिक-सामाजिक संगठनों से अपील की कि वे समतायुक्त और शोषणमुक्त समाज की दिशा में प्रयास करें.
संघ की इस दिशा में लगातार पहल उसकी सुविचारित रणनीति का हिस्सा है ताकि कह दलितों-पिछड़ों में अपनी पैठ बढ़ा सके. देवरस ने 1973-74 में हिंदू समाज से अस्पृश्यता को दूर करने के लिए संघ की ओर से विशेष मुहिम चलाई थी. इन प्रतीकों के जरिए संघ 'बाबा साहब' से 'बाला साहब' तक के विचारों को एक फ्रेम में फिट करने का प्रयास कर रहा है. इसलिए वह अनुसूचित जाति-जनजाति के आरक्षण को न्यायोचित मानता है, लेकिन पिछड़ों के आरक्षण पर उसके बोल बीजेपी के लिए मुसीबत बन गए हैं.
नागौर में बैठक समाप्त होने के बाद मीडिया से रू-ब-रू संघ के सरकार्यवाह भैय्याजी जोशी से हरियाणा के जाटों और गुजरात में पाटीदारों की ओर से आरक्षण के संघर्ष पर सवाल पूछा गया तो उनका कहना था, ''समाज का संपन्न वर्ग भी जब आरक्षण की मांग करता है तो हमें लगता है कि यह सोच सही दिशा में नहीं है. संपन्न लोगों को तो दुर्बल वर्ग की सहायता करनी चाहिए, लेकिन ऐसा करने की बजाए अपने लिए आरक्षण मांगना आंबेडकर की सोच के खिलाफ है.'' इस कड़ी में इंडिया टुडे के साथ विचार साझा करते हुए संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य कहते हैं, ''जाट और पटेल संपन्न वर्ग रहे हैं. इन्हें मांगने के बदले दूसरों को सुविधा देनी चाहिए. दलितों में भी जो कमजोर वर्ग है, उन तक 60 साल बाद भी आरक्षण का लाभ नहीं पहुंचा है तो उसका अध्ययन होना चाहिए. इसमें समाज के लोगों को ही खुद आगे आना चाहिए. यही बात सरसंघचालक (मोहन भागवत) जी ने भी उस समय (बिहार चुनाव से ऐन पहले) कही थी.''
क्या है संघ की रणनीति
हाल ही में हरियाणा में जाटों ने आरक्षण की मांग को लेकर जिस तरह हिंसक आंदोलन किया, उसने केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ बीजेपी की पेशानी पर बल ला दिए. गुजरात में भी पाटीदार हिंसक आंदोलन कर चुके हैं. इन आंदोलनों ने स्वाभाविक तौर पर संघ की चिंता को बढ़ा दिया. संघ परिवार से जुड़े एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, ''संघ हमेशा एक राष्ट्र के रूप में सोचता है और सजातीय समाज की बात करने वाला हर शख्स या संगठन वही कहेगा जो सरसंघचालक ने बिहार चुनाव के समय कहा था या अब नागौर बैठक से आवाज निकली है.''
संघ का मानना है कि राजनीति और वोट बैंक की वजह से पिछड़े वर्ग के आरक्षण का मसला गाहे-बगाहे उछलता रहता है. उसकी चिंता इस बात को लेकर भी है कि लोग समाज और देश के लिए महान कार्य करने वाली विभूतियों की जयंती जाति के नाम पर मनाते हैं, जो सामाजिक अभिशाप है. जबकि संघ ने अपनी स्थापना से अब तक जाति के नाम पर कभी कोई सम्मेलन नहीं किया. उसका मानना है कि सत्ता के लिए राजनैतिक लोगों ने जाति के नाम पर सामाजिक अभिशाप को बढ़ावा दिया और वर्तमान परिदृश्य में देखा जाए तो यह कैसे खत्म होगा और इसकी शुरुआत कौन करेगा, इसकी कोई तस्वीर नहीं दिखती.
हालांकि दलित-आदिवासी आरक्षण को लेकर संघ की सोच कुछ नरम है. उसका विचार है कि सदियों से सामाजिक अन्याय के शिकार लोगों को सहारा देना किसी भी राष्ट्र का धर्म है, लेकिन उस आड़ में सियासी गोटी फिट करना गलत है. संघ चाहता है कि आरक्षण को लेकर एक राष्ट्रव्यापी बहस खड़ी होनी चाहिए और भागवत के बाद संघ का ताजा बयान भी उसी संदर्भ में है. लेकिन एक नेता यह मानते हैं कि फिलहाल ऐसा होता नहीं दिख रहा. भागवत के बयान ने स्वयंसेवकों को दिशा तो दी, लेकिन संघ परिवार की दुविधा यह है कि राजनैतिक क्षेत्र में काम करने वाला उसका वैचारिक संगठन बीजेपी किसी भी सूरत में आरक्षण की समीक्षा का समर्थन नहीं कर सकती.
कैसे निगले या उगले बीजेपी?
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने पहली बार बीजेपी में ओबीसी मोर्चा का गठन किया तो पिछले साल 10 जुलाई को इस नए मोर्चे के सम्मेलन में उन्होंने कहा था, ''हम सत्ता में बहुत कम समय रहे हैं, लेकिन सबसे ज्यादा ओबीसी मुख्यमंत्री, सांसद-विधायक बीजेपी ने दिए हैं और आज भी इस वर्ग के सबसे ज्यादा सांसद-विधायक बीजेपी के पास हैं. यहां तक कि देश को सबसे पहला ओबीसी प्रधानमंत्री भी हमने ही दिया है.''
लोकसभा चुनाव में आरक्षित वर्ग से मिला समर्थन
शाह के इस उत्साह की वजह लोकसभा चुनाव में पार्टी को ओबीसी से मिला अपार समर्थन है. बीजेपी को 34 फीसदी ओबीसी वोट मिले जो 2009 के आम चुनाव के मुकाबले 12 फीसदी ज्यादा थे. जबकि 282 लोकसभा सीटों में से 244 सीटें सिर्फ हिंदी पट्टी में हासिल करने वाली बीजेपी को इस पट्टी से 48 फीसदी ओबीसी वोट हासिल हुए थे. आठ राज्यों में से दो राज्यों झारखंड और मध्य प्रदेश में भी बीजेपी के मुख्यमंत्री ओबीसी समुदाय से हैं. अकेले उत्तर प्रदेश में बीजेपी के कुल 71 सांसदों में से 26 ओबीसी के हैं.
लेकिन बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व आरक्षण की समीक्षा वाले संघ के लगातार बयानों से सांसत में है. सूत्रों के मुताबिक, बीजेपी के शीर्ष रणनीतिकारों का मानना है कि भैय्याजी अगर चाहते तो आरक्षण संबंधी सवाल पर इस तरह के बयान से बच सकते थे, क्योंकि केंद्र के साथ-साथ जिन राज्यों में इन दिनों आरक्षण को लेकर हिंसक जातीय संघर्ष की स्थिति पैदा हुई, वहां भी बीजेपी की सरकारें हैं. मौजूदा परिस्थिति में संघ के बयान को पार्टी अनावश्यक मान रही है क्योंकि हरियाणा में जाटों को आरक्षण देने के लिए पार्टी की ओर से विशेष पहल हो रही है. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, ''जाटों को आरक्षण देने के बाद फिर अदालत में चुनौती दी गई और वह पहले की तरह ही खारिज हो गया तो यही संदेश जाएगा कि बीजेपी ने संघ के दबाव में जान-बूझकर सही ढंग से पैरवी नहीं की. ऐसे में हालात से निबटना और भी कठिन हो जाएगा.''
बिहार विधानसभा चुनाव के समय भी पिछले साल 21 सितंबर को जब भागवत की ओर से पाञ्चजन्य को दिए गए इंटरव्यू पर बवाल मचा था तो पार्टी ने संघ से गुहार लगाकर डैमेज कंट्रोल की कोशिश की थी. लेकिन इस बार बीजेपी ने इस पूरे मसले पर चुप्पी साध ली है. सूत्रों के मुताबिक, संघ के बयान के बाद पार्टी प्रवक्ताओं को निर्देश दे दिया गया कि इस मसले पर कोई टिप्पणी नहीं करनी है. हालांकि ओबीसी आरक्षण की समीक्षा के मसले पर बीजेपी ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष एस.पी. सिंह बघेल ने इंडिया टुडे से कहा, ''संसद में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जो बयान दिया है वही पार्टी का स्टैंड है.''
14 मार्च को राज्यसभा में बीएसपी नेता मायावती, सपा नेता रामगोपाल यादव के आरोपों पर जेटली ने कहा था, ''सरकार की नीति स्पष्ट है कि आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था बनी रहेगी. हर हालत में बनी रहेगी.'' लेकिन बघेल ने मांग की कि जाति आधारित जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक किए जाएं, जिनसे आरक्षण को लेकर बना भ्रम दूर हो सके. उन्होंने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने की मांग की. बघेल कहते हैं, ''जीवन के हर सोपान (लोकसभा-विधानसभा, सरकार की सारी लाभकारी योजनाओं) में अंत्योदय होना चाहिए. सबसे निचले स्तर के लोग भी आरक्षण का लाभ उठाएं, यही सामाजिक और प्राकृतिक न्याय है.''
अमूमन यही राय संघ की भी है, लेकिन बीजेपी खुद को आरक्षण की आग में झुलसाकर अपना पिछड़ा आधार कमजोर नहीं करना चाहती. पार्टी के एक नेता का मानना है कि यह संभव नहीं है कि किसी जाति को आरक्षण का लाभ दिए जाने के बाद वापस लिया जा सके. यह सिर्फ स्वैच्छिक तौर से हो सकता है. हालांकि पार्टी में एक राय यह भी है कि जिस तरह यूपी के मुख्यमंत्री रहते हुए राजनाथ सिंह ने सामाजिक न्याय से जुड़ी एक रिपोर्ट के आधार पर दो-दो, तीन-तीन जातियों का गुच्छा बनाकर आरक्षण के भीतर आरक्षण निर्धारित करने की पहल की थी, उसी तरह की पहल की जरूरत है.
हालांकि इस मुद्दे पर विवाद को देखते हुए संघ की दलील है कि आरक्षण की समीक्षा इन्हीं वर्गों के प्रबुद्ध लोगों को करनी चाहिए. लेकिन सरकार और बीजेपी पर दबाव की स्थिति पर संघ के एक वरिष्ठ पदाधिकारी का कहना है कि सत्ता में कोई भी पार्टी हो, उससे संघ को फर्क नहीं पड़ता, उसका काम समाज में जनजागरण करना है ताकि सरकारों को बात मानने के लिए मजबूर किया जा सके. लेकिन संघ की पहल को ओबीसी सांसदों के फोरम के अध्यक्ष और कांग्रेस सांसद वी. हनुमंत राव का कहना है कि संघ आरक्षण को खत्म कराना चाहता है इसलिए नए-नए सुर्रे छोड़ रहा है, जबकि हकीकत यह है कि 27 फीसदी आरक्षण के बावजूद किसी भी क्षेत्र में ओबीसी की संख्या 9-10 फीसदी से अधिक नहीं पहुंच पाई है. संसद के दोनों सदनों को मिलाकर ओबीसी सांसदों की संख्या 15वीं लोकसभा में 135 थी जो 16वीं लोकसभा में घटकर 100 के करीब रह गई है.
निश्चित तौर से लोकसभा चुनाव और उसके बाद हरियाणा-महाराष्ट्र चुनाव में उम्मीद से ज्यादा सफलता हासिल करने वाली बीजेपी ओबीसी वोट बैंक में बढ़े अपने आधार को खोना नहीं चाहती. हालांकि बिहार में वह चोट खा चुकी है क्योंकि आरक्षण पर भागवत के बयान से उपजे विवाद के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और समूची बीजेपी ने जिस तरह पिछड़ों के हितैषी होने का दंभ भरा, उससे उसके अगड़े वोटर भी खफा हो गए. लिहाजा संघ के तेज कदम से बीजेपी फिर सांसत में है.
वक्त के साथ आरएसएस की कदमताल
वक्त के साथ कदमताल की जुगत में आरएसएस ने साहसिक रुख अख्तियार कर रखा है. नागौर में उसकी अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के फैसलों में भी यह नजर आया. युवाओं को लुभाने के लिए उसने अपने गणवेश में बदलाव कर लिया है तो उसने आरक्षण पर यह जानते हुए भी बेबाक राय जाहिर की है कि इससे बीजेपी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं. दरअसल, उसकी मंशा उस युवा शक्ति को आकर्षित करना है जो आरक्षण को गैर-जरूरी मानती है. युवाओं को लुभाने वाले 'राष्ट्रवाद' के मौजूदा ज्वलंत मुद्दे पर भी उसका रुख साफ था और उसने कुछ विश्वविद्यालयों में लगने वाले कथित देशविरोधी नारों की निंदा की. इसके अलावा प्रगतिशील सोच का परिचय देते हुए उसने मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश का समर्थन किया.
लैंगिक समानता के विषय पर नागपुर की आरएसएस की सभा ने मीडिया से बातचीत में साफ किया कि वह हिंदू मंदिरों के गर्भगृहों में महिलाओं के प्रवेश के पक्ष में है. लेकिन उसका कहना था कि प्रवेश की प्रक्रिया गहन विचार-विमर्श और सहयोग के जरिए तय होनी चाहिए, न कि टकराव के जरिए. बीजेपी के महासचिव मुरलीधर राव कहते हैं, ''आरएसएस हमेशा से धार्मिक किताबों की प्रगतिशील व्याख्या के पक्ष में रहा है. और वेदों का कहना है कि दैवी शक्ति के सामने पुरुष या महिला जैसा कुछ भी नहीं है. कई जानकार आरएसएस के लिए जिस नई सोच की बात कहते हैं वह नई नहीं है, बल्कि शुरुआत से ही उसकी विचारधारा का हिस्सा रही है.'' राव आरएसएस के स्वदेशी जागरण मंच के पूर्व संयोजक और आरएसएस के दिवंगत नेता दत्तोपंत ठेंगड़ी के विश्वासपात्र रहे हैं.
बहरहाल, जिस फैसले ने मीडिया में वास्तव में सनसनी पैदा की, वह आरएसएस के गणवेश में किया जाने वाला बदलाव है. अब खाकी निक्कर की जगह भूरे रंग की पैंट ने ले ली है. इस मुद्दे पर 2010 से ही आरएसएस में बहस होती आ रही थी. गणवेश में बदलाव की मुख्य वजह 91 साल पुराने इस संगठन में युवाओं को आकर्षित करने की कोशिश थी. लेकिन पहनावे में बदलाव ही उन्हें आकर्षित करने के लिए काफी नहीं हो सकता. संघ का नेतृत्व जानता है कि युवाओं को संगठन में लाने की लड़ाई विचारधारा के मोर्चे पर भी लडऩी होगी.
मंडप में लगी बाबा साहब देवरस की तस्वीर
पिछले साल आरएसएस के करीब 15,000 कार्यकर्ताओं ने उसका संदेश फैलाने के लिए अपने घरों से एक हफ्ते की छुट्टी ली थी, जिसके बाद शाखाओं की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ. दूरगामी मकसद यह है कि देश के सभी छह लाख गांवों में एक-एक शाखा होनी चाहिए. हालांकि पिछले छह साल में आरएसएस की पहुंच तेजी से बढ़ी है, पर इसमें शामिल होने वाले ज्यादातर लोगों की संख्या अब भी या तो हायर सेकंडरी स्कूल या कॉलेजों के छात्रों की रही है. इसका एक वर्ग सत्ता की राजनीति से आकर्षित हुआ है, क्योंकि बीजेपी-आरएसएस को सत्ता प्रतिष्ठान की ताकतों के तौर पर देखा जाता है.
अध्ययनों से पता चलता है कि जो लोग प्राथमिक स्कूल के स्तर पर या छोटी उम्र में इसमें शामिल होते हैं, वे बड़े होकर वैचारिक रूप से कहीं ज्यादा मजबूत होते हैं, जबकि बड़ी उम्र में शामिल होने वाले वैचारिक रूप से उतने पक्के नहीं होते हैं. लेकिन इन दिनों पहले किस्म के लोगों की संख्या कम है, क्योंकि ज्यादातर माता-पिता खाकी निक्कर के संगठन को 'पुराने जमाने' का मानते हैं. वे संगठन की राष्ट्रवादी सोच से प्रभावित होने के बावजूद अपने बच्चों को शाखा में भेजना पसंद नहीं करते. आरएसएस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी कहते हैं, 'निक्कर की जगह पैंट लाने का फैसला काफी सोच-समझकर लिया गया है. इसका मकसद बच्चों को शाखाओं की ओर आकर्षित करना है ताकि उन्हें भविष्य में वैचारिक रूप से मजबूत कैडर बनाया जा सके.''
आरएसएस के पदाधिकारियों के एक समूह का कहना है कि विवाहित प्रचारकों को लेकर अहम बदलाव की जरूरत है. पहले ही दिन से, जब आरएसएस की स्थापना हुई थी, एक आधारभूत नियम चला आ रहा है कि प्रचारक को अविवाहित होना चाहिए और अगर किसी समय वह शादी करना चाहता है तो उसे अपना पद त्यागना पड़ेगा. मजे की बात यह है कि उन्हें महिलाओं के कैडर राष्ट्र सेविका समिति की किसी महिला से शादी करने की भी मनाही है.
बहरहाल, अब ताजा हवा चल पड़ी है. इसकी एक वजह यह है कि ऐसे माता-पिता बहुत कम हैं जो अपने बेटों को प्रचारक बनने की इजाजत देते हैं. आजकल छोटा परिवार होना इसकी अहम वजह है. अतीत में बड़ा परिवार और कई बेटे होने से वे किसी एक को प्रचारक बनने की इजाजत दे देते थे. आरएसएस के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता कहते हैं, ''देर-सवेर आरएसएस को इस मामले में बड़ा बदलाव करना होगाः अविवाहित प्रचारकों की जगह विवाहित प्रचारक आ जाएंगे.''
दो अन्य प्रस्तावों में सस्ती क्वालिटी शिक्षा और सस्ती स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने की जरूरत बताई गई है. आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य कहते हैं, ''आरएसएस अपनी शुरुआत से ही बदलाव की लहर के साथ तालमेल बैठाता रहा है. वैचारिक विरोधियों के हमलों के बावजूद हम आगे बढ़ते जा रहे हैं.''
नागौर की सभा के आखिरी दिन उत्साह दिखाई दिया क्योंकि ज्यादातर विवादित मुद्दों—जिनका इस्तेमाल आम तौर पर वामपंथी रणनीतिकार करते हैं—पर संघ की राय वक्त के माकूल थी. जाति के आधार पर एक वर्ग के साथ भेदभाव (यह बताते हुए कि धार्मिक ग्रंथों में कभी भेदभाव का उपदेश नहीं दिया गया है, बल्कि बाद में उसे विकृत किया गया है) के लिए हिंदुओं को जिम्मेदार बताना सभा की बड़ी कामयाबी रही. मध्यकालीन शहर नागौर अपने मजबूत किले के लिए जाना जाता है और इतिहास में कई बदलावों का ऌगवाह रहा है. यह देश के सबसे बड़े परिवार यानी संघ परिवार में मूलभूत बदलावों का भी गवाह बना. —उदय माहूरकर