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ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ग्रहण

किसान आत्महत्या और 21वीं सदी के सबसे बड़े सूखे से जूझते ग्रामीण भारत की सामाजिक और आर्थिक दशा को क्या उबार पाएगा आम बजट? क्या अरूण जेटली किसानों को कोई ऐसी सौगात दे पाएंगे जो पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की सौगातों को बौना कर दे?

पीयूष बबेले
  • नई दिल्ली,
  • 05 फरवरी 2016,
  • अपडेटेड 3:28 PM IST

सूरज यादव की उम्र 30 साल थी. बुंदेलखंड के आम इंसान की तरह वह भी खुशमिजाज था. बाकी लोगों की तरह उसने भी 26 जनवरी की परेड टीवी पर देखी. गणतंत्र के इस जश्न के बीच ही पास के लहचूरा गांव में किसान मुन्नालाल कुशवाहा ने आत्महत्या कर ली. खबर बुरी थी, सूरज और उसके साथियों का मन कसैला हो गया. इन किसान और खेत मजदूरों ने राहुल गांधी के महोबा दौरे को लेकर निराशा भरा हंसी-मजाक किया और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के 27 जनवरी के जालौन दौरे को लेकर अटकलें लगाईं.

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इस बारे में तो खैर उन्हें पता भी नहीं रहा होगा कि 4 जनवरी को कृषि से जुड़े एक प्रतिनिधिमंडल को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संकेत दिया है कि आगामी बजट में किसानों का खास ध्यान रखा जा सकता है. बहरहाल, वित्त मंत्री के दफ्तर से 450 किमी दक्षिण में इक्का-दुक्का हरियाले खेतों को छोड़ दें तो दूर-दूर तक धूल उड़ते उजाड़ के बीच बसे गांव में सूरज के एक साथी ने कहा, “किसान मरता रहेगा और गिद्ध चक्कर काटते रहेंगे. यहां खेतों में पानी नहीं है और नेता वादे ही कर रहे हैं.”

इसके बाद वे अपने-अपने घर चले गए. अगली सुबह जब घरवालों ने दरवाजा खोला तो अच्छी तरह प्रेस की हुई सलेटी पेंट और सफेद शर्ट पहने सांवले सूरज की लाश छप्पर से बंधी रस्सी पर झूल रही थी. उस पर 90,000 रु. का कर्ज था. “सूरज और मुन्ना अकेले नहीं हैं. बुंदेलखंड में पिछले साल कम से कम 400 किसानों ने आत्महत्या कर ली या बरबाद फसल देखकर सदमे में मर गए.” भारतीय किसान यूनियन नेता शिवनारायण सिंह परिहार एक झटके में ग्रामीण भारत का सदमा बयान कर गए.

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यह लगातार दूसरे साल पड़े सूखे से उपजी त्रासदी का एक हिस्सा है, जिससे इस समय आधा भारत जूझ रहा है. किसान संगठनों से मिल रहे प्रारंभिक आंकड़ों के मुताबिक, कम से कम 5,000 किसान 2015 में आत्महत्या कर चुके हैं. यह शुरुआती आकलन है और नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के विस्तृत आंकड़े आने के बाद यह संख्या बढ़ सकती है.

यह संकट इस बार देश के 10 राज्यों-उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ में फैला हुआ है. वहीं पंजाब में कपास की फसल को कीड़े खा गए, तो तमिलनाडु में खेती बाढ़ के कारण चौपट हो गई.

तबाही की खेती
सूखे से शुरू हुआ संकट पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लपेटते हुए अब कस्बों की तरफ बढ़ रहा है. बात अब, सिर्फ इतनी भर नहीं है कि किसानों की फसलें तबाह हो गई हैं. अब संकट यह भी है कि फरवरी में ही देश के कई इलाकों में पीने के पानी का संकट खड़ा हो गया है. और जानवरों के लिए चारा गायब है. हालात देखकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों से अब तक किए गए राहत कार्यों का ब्योरा तलब किया है. मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव कहते हैं, “बुंदेलखंड में इस बार सूखा नहीं, अकाल है. पूरे देश के किसानों की हालत इस बार उससे कहीं ज्यादा खराब है जिसका अनुमान सरकार या शहरी मध्यवर्ग लगा रहा है.”

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पिछले दो साल का गणित देखें तो खरीफ की दो फसलों पर खराब मॉनसून की मार पड़ी, तो 2014-15 की रबी फसल पर अतिवृष्टि और इस बार की रबी फसल पर अल्प वृष्टि का संकट है. चार फसलें चौपट होने के बाद किसान के पास इतनी पूंजी नहीं बचती कि वह अपना घर चला सके. ऐसे में उसके पास दो ही रास्ते बचते हैं कि या तो वह वैकल्पिक रोजगार खोजे या फिर बैंक या साहूकार से और कर्ज ले. अगर परिवार में कोई शादी है, जो कि अक्सर होती ही है, तब तो घर-जमीन गिरवी रखकर भी कर्ज लेना पड़े तो लिया जाता है.

पंजाब जैसे राज्यों में कर्ज सिर्फ शादी के लिए नहीं लिए जाते. अक्तूबर 2015 में बठिंडा में आत्महत्या करने वाले किसान जगदेव सिंह के पुत्र सुखदीप कहते हैं, “पंजाब में तो किसान एक कर्ज चुकाने के लिए दूसरा और दूसरा कर्ज चुकाने के लिए तीसरा कर्ज ले रहा है.” 10 एकड़ से ऊपर का किसान कोशिश करता है कि हर हाल में उसका बेटा कनाडा या किसी दूसरे देश में जाकर कमाई करे. लेकिन विदेश से कमाई जब होगी तब होगी, उससे पहले वहां भेजने का इंतजाम करने के लिए कर्ज लेना पड़ता है. ऐसे में एक भी फसल बरबाद होते ही, संकट कई गुना बढ़ जाता है.

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कर्ज के बढ़ते बोझ को समझाते हुए पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के प्रो. सुखपाल सिंह कहते हैं कि अगर छोटा किसान ट्रैक्टर लेता है तो असल में उसका ट्रैक्टर साल में दो महीने काम करता है और 10 महीने खड़ा रहता है. यानी उसने एक अनुत्पादक कर्ज लिया है. पिछले 10 साल में खेती की लागत बढ़ती जा रही है, जबकि फसल का मूल्य उस अनुपात में नहीं बढ़ा है.

सूखे के बारे में सुप्रीम कोर्ट में पेश पीआइएल में भारतीय किसान यूनियन के हवाले से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गेहूं की उत्पादन लागत और मूल्य का जो आंकड़ा पेश किया गया, उसके मुताबिक, एक हेक्टेयर जमीन में गेहूं उत्पादन की लागत 77,830 रु. है, जबकि इस गेहूं का बाजार मूल्य 61,400 रु. ही है. वहीं बुंदेलखंड जैसे असिंचित क्षेत्र में लागत और ज्यादा बढ़ जाती है. महंगी सिंचाई और समय पर खाद का न मिल पाना किसान के संकट को और गहरा कर देता है. यानी अच्छी फसल होने के बावजूद किसान के पास इतना पैसा नहीं बचता कि वह गाढ़े वक्त के लिए बचा कर रख सके.

ऐसे में किसान या खेत मजदूर या तो गांव के आसपास ही कोई वैकल्पिक रोजगार देखना चाहते हैं या फिर शहर का रुख करना चाहते हैं. लेकिन शहर में भी नौकरी कहां है. मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले से काम की तलाश में दिल्ली आए रमेश अहिरवार कहते हैं, “मैं इसी उम्मीद में यहां आया था कि फरीदाबाद या गाजियाबाद में किसी बिल्डिंग निर्माण में काम मिल जाएगा. लेकिन इस बार उस तरह काम उपलब्ध नहीं है, जैसा दो साल पहले तक होता था. परिवार के साथ यहां टिके रहना मेरे लिए कठिन है.”

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उधर गांव में ही काम देने वाली मनरेगा का ढांचा पहले से कमजोर हो गया है. रियल एस्टेट में चल रही मंदी के कारण स्टोन क्रशर भी उस पैमाने पर रोजगार नहीं दे पा रहे, जैसे वे पहले दिया करते थे. छतरपुर और आस-पास के इलाके में स्टोन क्रशर रोजगार का एक बड़ा जरिया रहे हैं. सूखे के समय प्रशासन मनरेगा को चुस्त करने का दावा कर रहा है, लेकिन दो साल में इसकी इतनी उपेक्षा की गई कि इसे तुरंत खड़ा कर पाना कठिन है. मोदी सरकार के लगातार दो बजटों में मनरेगा के आवंटन घटाए गए हैं (देखें चार्ट). ऐसे में मनरेगा के कार्यदिवस 100 से बढ़ाकर 150 किए जाने के बावजूद, इसका असर दिखने में अभी लंबा वक्त लगेगा.


चरमरा गई आर्थिक गतिविधि
ये सारी प्रवृत्तियां ग्रामीण भारत की गैर-कृषि आय को झकझोर रही हैं. रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री डी.के. जोशी स्थिति की गंभीरता समझाते हैं, “ग्रामीण मजदूरी वृद्धि की रफ्तार पिछले कुछ सालों तक दहाई अंकों में हुआ करती थी, लेकिन अब यह आंकड़ा इकाई अंकों तक सिमट गया है.” यानी गांव वालों की आमदनी के स्रोत तेजी से सूख रहे हैं. उधर, दुपहिया और तिपहिया वाहनों की बिक्री में गिरावट दर्ज की जा रही है और ट्रैक्टरों की बिक्री में जबरदस्त गिरावट आई है.

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ओडिशा में किसान कृषि कर्ज मुक्ति आंदोलन के नेता गौरी शंकर जैन कहते हैं, “किसानों के पास जहर खाने के लिए पैसा नहीं है, आप गाडिय़ों की बात कर रहे हैं? गांवों में पक्के मकानों का निर्माण थम सा गया है और तीज-त्योहार की रौनक जा रही है.” गांव में छाई इस आर्थिक तंगी का सीधा असर सोने की मांग पर दिख रहा है. देश में सोने की 60 फीसदी मांग ग्रामीण क्षेत्र से ही आती है.

इंडियन बुलियन ऐंड ज्वैलर्स एसोसिएशन के मुताबिक, फरवरी से शुरू हुए शादी के सीजन में सोने की मांग में 20 फीसदी तक की कमी रहने की आशंका है. ग्रामीण भारत में आई मंदी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक दशक में पहली बार ग्रामीण भारत में हेयर ऑयल और टूथ पेस्ट की मांग गिरी है. कहने को यह बहुत मामूली चीजें हैं, लेकिन गांवों के माथे पर लिखी गुरबत की स्याह इबारत का मर्म समझने के लिए यह खासी मददगार हैं. इसका सीधा मतलब है कि गांवों को समय रहते संभाला नहीं गया तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था का संकट देश की अर्थव्यवथा के संकट में बदल सकता है. जोशी कहते हैं, “ग्रामीण मांग में गिरावट का सीधा असर ऑटोमोबाइल और उपभोक्ता कंपनियों के रिजल्ट्स पर दिख रहा है.”

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ऐसे ही हालात से निबटने के लिए यूपीए सरकार ने फौरी कदम उठाते हुए 2008-09 में किसानों का 52,000 करोड़ रु. का कर्ज माफ कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बेलआउट पैकेज दिया था. और उसके बाद मनरेगा के तहत गांव और कस्बों में रोजगार देने के साथ ही न्यूनतम मजदूरी व्यावहारिक रूप से बढ़ा दी थी. यह सब ठीक उस समय हुआ था, जब भारत में ग्लोबल मंदी अपना असर दिखाने वाली थी, लेकिन ग्रामीण भारत ने हमें मंदी के चरम असर से बचा लिया था. यूपीए-2 में ग्रामीण विकास राज्यमंत्री रहे प्रदीप जैन आदित्य मांग करते हैं, “वित्त मंत्री को पूंजीपतियों की चिंता छोड़, गांवों के लिए बजट का मुंह खोलना चाहिए.”

समय रहते क्यों नहीं हो सकी कार्रवाई
तो, क्या सरकारी एजेंसियों के पास इस समस्या से समय रहते निबटने का कोई उपाय नहीं था. या फिर सरकार ने जो उपाय किए वे कारगर नहीं हो पाए. यह जानने के लिए जरा इस ब्योरे पर गौर फरमाएं. राज्यों ने अपने-अपने यहां सूखे की घोषणा भले ही अक्तूबर में जाकर की हो, लेकिन मौसम विभाग ने अप्रैल में पूर्वानुमान जता दिया था कि इस बार मॉनसून की बारिश कम होगी. अप्रैल से अक्तूबर के दौरान किसानों पर आसन्न संकट को तुरंत हल करने की बजाए सत्ता और विपक्ष बिहार विधानसभा चुनाव में व्यस्त रहा.

प्रधानमंत्री ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शहादत दिवस पर 23 मार्च को पंजाब में हर बुजुर्ग किसान को 5,000 रु. महीना पेंशन देने की बात कही थी, लेकिन इस पेंशन योजना का आज तक कोई अता-पता नहीं है. 2014 के खराब मॉनसून के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने हर खेत को पानी पहुंचाने के नारे के साथ प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना की घोषणा पिछले बजट में की और इसके लिए 5,000 करोड़ रु. दिए. लेकिन यह योजना क्या वाकई हर खेत को पानी दे पाएगी?

कृषि मंत्रालय की 2014-15 की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में बोई गई फसल का कुल रकबा 14.08 करोड़ हेक्टेयर था, वहीं सिंचित जमीन सिर्फ 6.53 करोड़ हेक्टेयर थी. यानी देश की बाकी 7.55 करोड़ हेक्टेयर जमीन को सींचने के लिए सरकार ने पहली किस्त के रूप में 5,000 करोड़ रु. दिए. नोएडा स्थित सिंचाई प्रबंधन विशेषज्ञ कुलदीप कुमार जैन इसका गणित समझाते हैं, “एक हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई का इंतजाम करने में इस समय देश में न्यूनतम 35,000 रु. खर्च आता है. इस लिहाज से देश की बाकी जमीन को सिंचित करने के लिए गिरी हालत में 2.6 लाख करोड़ रु. चाहिए. अगर सरकार हर साल 5,000 करोड़ रु. जारी करती रहे तो बाकी देश को सिंचित करने में 52 साल लगेंगे.” ऊपर से कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने इंडिया टुडे से कहा कि योजना में जिला स्तर से खेत स्तर तक पानी पहुंचाने में भ्रष्टाचार व्याप्त है. इसे खत्म किया जाना है.

अब तीसरी चीज सरकार लाई है प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना. योजना देश में पहले से चल रही राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना से बहुत अलग नहीं है. तमाम दावों के बावजूद फसल को हुए नुक्सान का मूल्यांकन करने में इसमें पिछली बीमा योजना जितना ही समय लगना है. हालांकि बीमा के प्रीमियम से कैप हटाकर सरकार ने एक सकारात्मक पहल जरूर की है. इसके परिणाम आगामी खरीफ सीजन में सामने आएंगे.

ऐसे में सरकार के पास ले-देकर राष्ट्रीय आपदा राहत कोष (एनडीआरएफ) और राज्य आपदा राहत कोष बचते हैं. इनका मुख्य मकसद फसल पर प्राकृतिक आपदा आते ही, किसान को तत्काल मदद पहुंचाना है. लेकिन यह “तत्काल” इतना धीमा है कि मुआवजा किसान तक पहुंचने में कम से कम एक साल लगता है. इसे बदलने का कोई इंतजाम न तो पिछली सरकारें कर पाईं, न ये सरकार कर पा रही है.

कहां है स्थायी हल
लेकिन कोशिश तो होती ही है. नीति आयोग के सदस्य प्रो. रमेश चंद समझाते हैं, “किसान की चार बुनियादी जरूरतें हैं. उसे समय पर और सही कीमत पर बीज मिल जाए. सिंचाई का सही इंतजाम हो. खाद की उपलब्धता हो. और उसे अपनी उपज का सही मूल्य मिल जाए. अगर फसल खराब होती है तो उसका बीमा क्लेम समय पर मिल जाए.” इसके अलावा वे चाहते हैं कि बाकी क्षेत्रों की तरह कृषि क्षेत्र में भी निजी पूंजी निवेश को बढ़ावा दिया जाए.

वहीं, कृषि विशेषज्ञ अशोक गुलाटी की सरकार को सलाह है, “किसान को बीमा का क्लेम उस समय चाहिए जब वह सबसे ज्यादा संकट में हो. यानी हफ्ते भर के अंदर फसल नुक्सान का आकलन हो और 15 दिन के अंदर पैसा उसके खाते में आ जाए.” इसके अलावा छोटी जोत के किसानों को कोऑपरेटव फार्मिंग के लिए प्रेरित करना एक दूरगामी जरूरत है. जीडीपी में कृषि की भागीदारी 14 फीसदी तक सिमटने के बाद कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या घटाकर उन्हें वैकल्पिक रोजगार में ले जाना भी बड़ी जरूरत है.

यानी बजट पेश करते समय वित्त मंत्री के सामने फांसी पर झूलते सूरज और मुन्ना जैसे किसानों के चेहरे होंगे. ये मौतें न सिर्फ देश पर कलंक हैं, बल्कि 2014 के चुनाव में पहली बार ग्रामीण भारत में बीजेपी की सशक्त उपस्थिति को टिकाए रखने के लिए भी चुनौती हैं. दूसरी तरफ उन्हें देखना होगा कि देश में सिंचाई का रकबा बढ़ाने के लिए उनकी सरकार खजाने का मुंह किस हद तक खोल पाती है, क्योंकि मौजूदा आवंटन बहुत कम है. और सबसे बढ़कर उन्हें सोचना होगा कि गांवों से उठा यह संकट कहीं पूरी अर्थव्यवस्था को चपेट में न ले ले. क्या वे किसानों को कोई ऐसी सौगात दे पाएंगे जो पी. चिदंबरम की सौगातों को बौना कर दे. -साथ में महेश शर्मा, संतोष पाठक, शुरैह नियाजी

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