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सेक्स ही नहीं है हर चीज की स्वतंत्रता: अनुजा चौहान

साहित्य आज तक के महामंच से अंग्रेजी के पॉपुलर इंडियन लेखक रविंदर सिंह, अनुजा चौहान और श्रीमोई पियू कुंडु श्रोताओं से रू-ब-रू हुए. मोरल पुलिसिंग और सेक्स के सवालों पर कली पुरी के चुभते सवालों का दिया जवाब...

Sahitya Aajtak - Kalie Purie Sahitya Aajtak - Kalie Purie
विष्णु नारायण
  • नई दिल्ली,
  • 13 नवंबर 2016,
  • अपडेटेड 8:05 PM IST

अंग्रेज़ी के साहित्य सम्मेलन हिंदी के लेखकों को थोड़ा सा स्थान देकर कृतार्थ करने का काम करते आ रहे हैं लेकिन ये कृतार्थ करने का यह क्रम बदलने के मकसद और तैयारी से आज तक के साहित्य महाकुंभ में अंग्रेज़ी के लेखकों का भी एक सत्र रखा गया और इसका संचालन किया इंडिया टुडे ग्रुप की डायरेक्टर कली पुरी ने. साहित्य सम्मेलन भाषाओं के सम्मान का और सबको साथ लाने का, अवसर देने का पर्व है, इस टिप्पणी के साथ शुरू हुए इस सत्र में अंग्रेज़ी के तीन युवा लेखक अनुजा चौहान, श्रीमोई पियू कुंडु और रविंदर सिंह मौजूद थे.

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इस सत्र में लेखन की दिक्कतों, हमारे समाज में सेक्स को लेकर जारी दोहरेपन और मॉरल पुलिसिंग जैसे मुद्दों पर चर्चा हुई. पेश हैं इस सत्र के कुछ झलकियां-

सवाल- आप अपने पैरों को मोड़ कर बैठी हैं, आप अंग्रेजी में लिखती हैं और यहां हिंदी तौर-तरीकों में बैठी हैं.
यहां पहलेपहल कंफर्टेबल होने का मामला है. मैं ऐसे बैठ कर खुद को अपेक्षाकृत सहज पाती हूं. ऐसा ही लिखने के मामले में भी है. मैं इस तरह आसानी से लिख सकती हूं.

आप सभी अपने सोचने और लिखने के भाषायी माध्यमों के बारे में बताएं?
रविंदर सिंह- मैं हिंदी में सोचता हूं, कई बार तो पंजाबी में भी सोचता हूं. कई बार लिखने के क्रम को इंटरेस्टिंग बनाने के क्रम में हम पर्यायवाची शब्द खोजते हैं. कई बार इस क्रम में व्याकरण फंस जाता है. मेरे सोचने की प्रक्रिया 60 फीसदी हिन्दी या पंजाबी में ही चलती है. मैं उसके बाद लिखता हूं. मैं एक पूरा पैराग्राफ हिन्दी में लिखने और बोलने के बजाय अंग्रेजी में खुद को सहज पाता हूं.

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अनुजा चौहान- हम सभी द्विभाषी हैं. घर पर हिन्दी बोलते हैं और स्कूलों में अंग्रेजी बोलने लगते हैं. कई लोग तो तीन भाषाओं में भी बोल लेते हैं. हम अपने गुस्से को जाहिर करने के लिए अपनी नजदीकी भाषा का इस्तेमाल करते हैं. यह अच्छा है कि हमें इतनी भाषाएं आती हैं.

श्रीमोई- मैं बंगाल में पली और बढ़ी. ऐसे में मैं उस भाषा के साथ सहज हूं. मैं कैरेक्टर के हिसाब से सोचती हूं और लिखती हूं. सपनें तो किसी भाषा में नहीं दिखते.

सवाल- क्या आप हिंग्लिश में लिखेंगी?
हां बिल्कुल, मैं कोशिश करूंगी. हम कई बार कई सीमाओं में फंस जाते हैं. हमारे शब्दों से कई बार प्रकाशकों को दिक्कत हो जाती है.

क्या भाषा के स्तर पर चीजें बदल जाती है?
अनुजा चौहान- हां ऐसा होता है. ट्रांसलेटर के चक्कर में कई बार अजब-गजब शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं. एक बार हम फंस जाते हैं. जैसे कि मेरे ड्राइवर ने जब मेरी अनुवाद की गई किताब पढ़ी तो वह रिएक्शन मेरे लिए असहज कर देने वाला था.

रविंदर सिंह- हम ऐसी भाषा में बोलने और लिखने की कोशिश करते हैं जिनमें हम सहज होते हैं. हम हिंग्लिश में खुद को अपेक्षाकृत सहज पाते हैं.

अनुजा चौहान- हम जब कोई बात किसी ऐसे इंसान से कहते हैं जो हमारी भाषा नहीं समझता तो हमारे भाव ही प्रधान होते हैं. जैसे कि आई लव यू बोलने के क्रम में हमारी आखें और हमारे चेहरे का भाव प्रधान होता है. श्रीमोई- देखिए, आई लव यू किसी भी भाषा में अच्छा लगता है. वहां आपका इरादा महत्वपूर्ण हो जाता है. जैसे कि बंगाली में भी आई लव यू बोलना ठीक वैसा ही है जैसा किसी और भाषा में होगा. प्यार लैंग्वेज की सीमा से परे है. हम लिखने के क्रम में जिस तरह लिखते हैं. ट्रांसलेशन के क्रम में वह सारा भाव खत्म सा होने लगता है.

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हम डबल स्टैन्डर्ड वाले लोग हैं. एक तरफ हम सेक्सुअल शब्दों से परहेज करते हैं वहीं हमारे देश में बड़ी संख्या में बलात्कार के मामले दर्ज किए जाते हैं. जैसे कि एक किशोर ने एक दस साल की बच्ची के साथ लगातार बलात्कार किया और उसे महज 25,000 की जमानती राशि पर छोड़ दिया गया. हम उन पर कोई मजबूत फैसला लेने से परहेज करते हैं. एक तरफ Demonetisation का शोर है. लंबी कतारें हैं और वहीं दूसरी तरफ अफरातफरी है. प्रधानमंत्री मैरिटल रेप और किशोरवय अपराध पर कड़े कानून क्यों नहीं लाते. हम चाहे जितना कुछ लिख लें मगर न्यायालय और पुलिस की ओर से कोई सहयोग मिलता नहीं दिखता. स्पीडी ट्रायल भी नहीं हो रहे.

क्या हमें सेक्स पर बात करने के क्रम में फ्री होना चाहिए?
अनुजा चौहान- हमें हर मुद्दे पर बात करनी चाहिए. हम दोहरे मापदंड वाले लोग हैं. हम सबसे अधिक पॉर्न देख रहे हैं लेकिन उसे कोई स्वीकार नहीं करना चाहता. मैं तीन बच्चों को पाल रही हूं. हमें इस शब्द से निषिद्धता को हटाने की जरूरत है. हमारे यहां चीजें उलझी हुई हैं.

रविंदर सिंह- हमारे यहां सेक्स को हौवे की तरह परोसा गया है. हम सेक्स पर कान पकड़ कर बातें करते हैं. वे इसी क्रम में अपनी बचपन की जिज्ञासा का जिक्र करते हैं. वहां वे अपनी मां और पिता से अपनी पैदाइश पर पूछे गए सवाल का जिक्र करते हैं. मां जहां उन्हें दुकान से लाने की कहते हैं वहीं पिताजी गुरुद्वारे का जिक्र करते हैं. वे उस समय ही इस गड़बड़झाले को समझ गए कि झूठ बोला जा रहा है. हम इस बात को स्वीकार करने से कतराते हैं कि हमारे माता-पिता ने कभी सेक्स किया होगा. हम उनके ही माध्यम से इस दुनिया में आए हैं. मैं 9वीं क्लास की अपनी ही किताबों से परेशान था. उस किताब में रिप्रोडक्शन और सेक्स पार्ट का जिक्र था. वे उसे अपने ही घर में मां से छिपाए रखते.

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श्रीमोई- हम अपने बच्चों के समक्ष सेक्स पार्ट को उनके वास्तविक नामों से बोलने में कतराते हैं. हम उन्हें चूं-चूं, नूनू कह कर संबोधित करते हैं. ऐसे में गलत करने वालों को बढ़ावा मिलता है. हम लैंग्वेज के मामले में दोहरे मापदंड इस्तेमाल करने वाले हैं.

आप इसे किस तरह देखती हैं? आपका परिवार?
मैं इस मामले में थोड़ी लकी रही हूं. हम अपेक्षाकृत संपन्न और खुले दिमाग में पले-बढ़े. मेरी मां एक विधवा थीं. अपनी किताब लिखने के क्रम में भी मैंने अपनी 15 से अधिक पत्रकार साथियों से सवाल पूछे. उसमें हर तरह के सवाल थे. पॉर्न देखना, पेड सेक्स, अनसेफ सेक्स जैसे सवाल थे. उनकी प्रतिक्रया अच्छी नहीं थी. वे मुझे शादी की सलाह देते. मुझे कोसते. ऐसी सोच पढ़े-लिखे लोगों की थी. वे इस सर्वे पर बात भी नहीं करना चाहते थे. वे इस किताब के पूरे कंटेंट पर ही सवाल खड़े करने लगे. मेरे रोंगटे इस बात को सोचकर ही खड़े हो जाते हैं कि जब पढ़े-लिखे और शहरी लोग ऐसा सोचते हैं तो गांव-देहातों में क्या स्थिति होगी. यहां तो लोग बुरी आत्माओं से दूर रहने के टोटके में एक महिला की शादी कुत्ते तक से करते हैं. यह अंधविश्वास हम जड़ से नहीं हटा पा रहे हैं.

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लोगों ने उनकी किताब की तुलना फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे से की. हालांकि लोगों ने इस किताब को पढ़ने के बाद अपनी राय बदली.

छोटे शहरों और मेट्रोपॉलिटन शहरों में सेक्स को लेकर क्या फर्क है?
रविंदर- मेरी अंतिम किताब में विवाहेतर संबंध की बात है. इस क्रम में मैंने कई लोगों से बात की. सामाजिक तौर पर और पब्लिक में जिस बात की लोग भर्त्सना करते हैं वहीं निजी तौर पर वही सारी चीजें करते हैं. पहले मुझे लगता था कि ऐसी दिक्कतें सिर्फ बड़े शहरों में है लेकिन मेरी किताब के मार्केट में आने के बाद आने वाली प्रतिक्रिया तो कुछ और ही थी. लोग फेसबुक पर मुझे मैसेज कर रहे थे. यदि दिल्ली से सटे इलाकों को देखें तो हम पाते हैं कि वहां पति-पत्नी की अदलाबदली होती है.

अनुजा चौहान- सेक्स कोई क्रांति नहीं है. यदि आप एक ही समय में कई लोगों के साथ इन्वॉल्व हैं तो यह प्रगतिशील होना नहीं है. नारीवादी होना नहीं है. हम बाजार द्वारा तय की गई बातों पर अधिक विश्वास करते हैं. हमारे समाज में सेक्स से भी जरूरी चीजें हैं जैसे कि कास्ट, डेमोक्रेसी और एजुकेशन. हमें उन पर बात करने की अधिक जरूरत है. हम सेक्स में अपनी आजादी ढूंढने लगें तो यह गड़बड़ है.

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श्रीमोई- छोटे शहरों की महिलाओं को तो और भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. छोटी उम्र में शादी के बाद लगातार घरेलू हिंसा का सामना करना बड़ा मुश्किल होता है. वह भी बाहर निकलना चाहती हैं.

इस दौर में मोरल पुलिसिंग को लेकर आप क्या राय रखती हैं?
श्रीमोई- जब मेरी किताब मार्केट में आई तो उस समय 2014 के आमचुनाव का दौर था मगर पाठकों की ओर से मिलने वाली प्रतिक्रिया लाजवाब थी. इस किताब में किरदार बड़ी मजबूती से उभर कर आया है. मैंने सलमान खान पर एक पोस्ट लिखी और उनके समर्थकों ने मेरे बलात्कार तक की धमकी दे डाली. मुझे ट्रोल किया गया और मेरा फेसबुक अकाउंट ब्लॉक कर दिया गया, लेकिन हमें लड़ते और आगे बढ़ते रहने की जरूरत है.

रविंदर सिंह- मैं संविधान में विश्वास रखता हूं. बाद बाकी सभी का अपना नजरिया है. जैसे कि एक समय में आप सभी के लिए सही नहीं हो सकते. आप एक चिकन मार कर कुत्ते को खिलाते हैं. ऐसे में आप कुत्ते के लिए तो सही हो सकते हैं मगर चिकन के लिए खराब हो जाते हैं. हमें आपसी सहमति से होने वाली चीजों पर सवाल नहीं खड़े करने चाहिए. हमें एलजीबीटी जैसे मुद्दों पर लीगल रास्ता लेना चाहिए.

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अनुजा चौहान- हमें जजमेंटल नहीं होना चाहिए. लोगों के प्रति दयालु होना चाहिए. जब तक कोई दूसरे को परेशान न करे तब तक किसी को भी नहीं रोका जाना चाहिए. हमें दूसरों पर जल्दी में राय नहीं बनानी चाहिए.

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