
'साहित्य आजतक' के हल्लाबोल मंच का पांचवां सत्र 'बोल के लब आजाद हैं तेरे' गायक हरप्रीत सिंह के नाम रहा. हरप्रीत ने सूफी संगीत और हिंदी कविता को नई दिशा में मोड़ा है और उसे नौजवानो से जोड़ा है.
इस सत्र की शुरूआत हरप्रीत ने कबीर के 'इस घट अंतर बाग-बगीचे, इसी में सिरजनहारां. इस घट अंतर सात समुंदर, इसी में नौ लख तारा' से की. हरप्रीत को कबीर का निर्गुण बेहद पसंद है और इसे सुरों में बांधकर उन्होंने नया आयाम दिया है.
हरप्रीत, बुल्ले शाह से लेकर निराला, पाश, फैज जैसे कवियों के गीत युवाओं के बीच नए तरीके से पहुंचा रहे हैं. उनकी दूसरी पेशकश बाबा बुल्लेशाह की 'माटी कुदम करन्दी यार, माटी जोड़ा माटी घोड़ा, माटी दा असवार'. बुल्लेशाह इस काफिए के जरिए बताना चाह रहे हैं कि जब शरीर माटी का है, माटी का ही घोड़ा है और हथियार भी माटी का है, तो लड़ाई किस बात की.
हरप्रीत ने कबीर द्वारा रचित 'गगन की ओट निसाना है, दाहिने सुर चंद्रमा बांये, तिन के बीच छिपाना है' भी गाया. उन्होंने दीपक धमीजा और महीप सिंह का लिखा हुआ 'कुत्ते' भी गाकर सुनाया. इस गीत में धरती के कुत्ते भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं कि उन्होंने इंसान क्यों बनाया. आज के दौर में कविताएं, दोहे, काफिये जब किताबों में बंद होकर रह गए हैं, हरप्रीत इन्हें गीत में पिरोकर युवाओं के बीच नए अंदाज में पहुंचा रहे हैं. हरप्रीत की आखिरी पेशकश भवानी प्रसाद मिश्र की लिखी 'जी हां हुजूर मैं गीत बेचता हूं.'
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