
राजस्थान के बीकानेर की रहने वाली 82 वर्षीया बदाना देवी डग्गा ने 16 जुलाई को जैन समुदाय की धार्मिक रस्म संथारा या संलेखणा का पालन करते हुए मृत्यु आने तक उपवासरत रहने का फैसला किया था. 10 अगस्त को उनके अन्नरहित उपवास का 26वां दिन था और उनके परिजनों समेत जैन मुनि उन्हें जल से भी वंचित कर उनकी मौत का इंतजार कर रहे थे, तभी ऐसा कुछ हुआ कि यह 'धार्मिक कार्य' एकदम से थम गया. इसी दिन राजस्थान हाइकोर्ट ने संथारे की प्रथा को गैरकानूनी करार दे दिया, जिसके बाद इस प्रथा को भारतीय दंड संहिता के अनुच्छेद 309 के तहत आत्महत्या की कोशिश का अपराध माना गया. और अब ऐसा प्रयास करने वाले व्यक्ति की मदद करने वालों पर भी आइपीसी की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला बनेगा.
हाइकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि ''राज्य सरकार को जैन समुदाय में चले आ रहे संथारा और संलेखणा के चलन को रोकना और जड़ से खत्म करना होगा. इस तरह के मामले में मिलने वाली किसी भी शिकायत को आपराधिक मामले के तौर पर दर्ज किया जाएगा.'' यह फैसला मानवाधिकार कार्यकर्ता निखिल सोनी की याचिका पर आया है. यह याचिका उन्होंने 2006 में अपने वकील माधव मित्रा के जरिए दायर की थी. चीफ जस्टिस सुनील अंबवानी और जस्टिस वी.एस. सीराधना की दो सदस्यीय खंडपीठ ने फैसले में कहा है कि ''संथारा जैन धर्म का अनिवार्य नीति-नियम नहीं है,'' लेकिन इस फैसले के साथ ही समस्याओं का पिटारा भी जैसे खुल गया. 24 अगस्त को जब बदाना देवी का मृत्युपर्यंत उपवास चालीसवें दिन में पहुंच गया और बीकानेर की ही एक जैन साध्वी सुंदर कंवर की संथारा शुरू करने के तीसरे ही दिन मौत हो गई तो कई शहरों में धार्मिक नेताओं समेत समुदाय के हजारों लोग विरोध प्रदर्शन करने सड़कों पर उतर आए.
हालांकि संथारे को जैन धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा बताया जाता है लेकिन आज तक ऐसा एक भी मामला सामने नहीं आया है जब किसी भी बड़े जैन मुनि ने अपना जीवन समाप्त करने के लिए संथारे का मार्ग अपनाया हो. यहां तक कि जैन धर्म के प्रमुख धार्मिक संत आचार्य तुलसी, जिनका 1997 में निधन हो गया था और न ही उनकी धार्मिक विरासत के वारिस आचार्य महाप्रज्ञ, जिनकी 2010 में मृत्यु हो गई थी, दोनों में से किसी ने भी स्वैच्छिक मौत का रास्ता नहीं चुना था, बल्कि दोनों धर्मगुरुओं की मृत्यु लंबी बीमारी के बाद हुई थी.
जैन समुदाय में स्वैच्छिक मृत्यु, मृत्युपर्यंत उपवास या संथारे को स्वीकार करने वाले लोग ज्यादातर वृद्ध होते हैं और उनमें भी ज्यादातर ऐसे होते हैं जो गंभीर रूप से बीमार हों और अंतिम सांसें गिन रहे हों. ऐसे लोगों को संथारे के लिए तैयार किया जाता है, और अक्सर उनकी इच्छा के विरुद्ध. यहां तक कि कुछ ऐसे उदाहरण भी मिल जाएंगे जिनमें बच्चों पर भी स्वैच्छिक मृत्यु का दबाव बनाया गया.
संथारे पर बंटा समाज
समाजविज्ञानी रश्मि जैन इस तरह की इच्छा मृत्यु को ''पागलपन और सनक से भरा धार्मिक कृत्य'' करार देती हैं. वे संथारे को सती प्रथा के बराबर बताती हैं जिसे अब गैरकानूनी माना जाता है. उनकी तरह जैन समुदाय के कई लोग हैं जो अदालत के फैसले का समर्थन कर रहे हैं, हालांकि समुदाय का एक बड़ा तबका इसकी आलोचना कर रहा है. सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यकर्ता संदीप भूतोडिय़ा कहते हैं, ''मेरे ख्याल से संथारा अमानवीय है.'' वे यह भी कहते हैं, ''इसका आम तौर पर गलत इस्तेमाल होता रहा है. जो लोग किसी बीमारी के कारण लंबे समय तक जीने में सक्षम नहीं होते, उन्हें धार्मिक परंपरा के नाम पर भूखे रहने को मजबूर किया जाता है.''
अखिल भारतीय जैन जागृति परिषद के महासचिव मान सिंह खंडेला तो संथारे को जैन धर्म के धार्मिक संदेशों के ठीक विपरीत बताते हैं. वे कहते हैं, ''स्वाभाविक है कि जो लोग किसी को संथारा अपनाने या उसका पालन करने में मदद करते हैं वे भी दरअसल उसे आत्महत्या के लिए उकसा रहे होते हैं.'' वे कहते हैं, अनेक धार्मिक संगठनों की ओर से जबरदस्त विरोध के बावजूद अदालतों ने मंदिरों में पशुओं की बलि देने पर रोक लगाई थी. खंडेला कहते हैं, ''चाहे सती प्रथा हो या संथारा, आप किसी को जीवन नहीं दे सकते तो आपको उसे खत्म करने का अधिकार भी नहीं है.''
राजस्थान के सीकर जिले के देवराला गांव में 1987 में जब एक किशोरवय विधवा रूप कंवर अपने पति की चिता पर सती हो गई और हजारों की संख्या में लोगों ने वहां इक्टठा होकर इसका जश्न मनाया तब सती प्रथा के विरोध में एक विशेष अधिनियम लाया गया था, इसका भी देशभर में भारी विरोध हुआ था. आजादी के बाद से 1987 तक राजस्थान में सती होने के केवल आठ मामले दर्ज हुए. इसके मुकाबले संथारे के मामले कहीं ज्यादा हैं. परंपरावादियों की मानें तो हर साल इस तरह की स्वैच्छिक मौत का आंकड़ा 300 को छूता है.
अदालत के फैसले के आलोचक भी इसी ओर संकेत करते हैं. बुलंद स्वरों में संथारा प्रथा को सती प्रथा और आत्महत्या से बिल्कुल भिन्न बताते हुए इस फैसले के आलोचक चेतावनी देते हैं कि इसके कारण सियासत और न्यायालय के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट सकता है, जैसा कि 1987 में सती प्रथा पर रोक के खिलाफ हुआ था. तेजतर्रार जैन मुनि तरुण सागर कहते हैं, ''संथारा आवेश में आकर किया जाने वाला काम नहीं है. यह एक सनातन क्रिया है जिसमें व्यक्ति को पूरी तरह से भोजन छोडऩे में 12 साल का वक्त लगता है.'' एक अन्य जैन मुनि प्रमाण सागर इसे जैनियों के मूल ध्यान और चिंतन का हिस्सा मानते हैं.
बुंदेलखंड में उबाल
राजस्थान हाइकोर्ट के संलेखणा को आत्महत्या का दर्जा देने के बाद आक्रोश की लहर बुंदेलखंड के जैन समाज तक पहुंच गई. ललितपुर के जैन समुदाय के पंद्रह हजार से ज्यादा लोगों ने अदालत के फैसले के विरोध में प्रदर्शन करते हुए अपने सिर मुंडवा लिए और आंदोलन खड़ा कर दिया. इस मुद्दे पर कई राजनैतिक दल भी समुदाय के साथ हैं. पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्य मंत्री और कांग्रेस नेता प्रदीप जैन भी इस सामूहिक मुंडन का हिस्सा बने. इस मुद्दे को सियासी रंग लेने में जरा भी देर नहीं लगी और सामूहिक मुंडन के अगले ही दिन झांसी सदर सीट से बीजेपी विधायक रवि शर्मा ने भी कलेक्ट्रेट परिसर में सिर मुंडवाकर जैन समुदाय का समर्थन किया.
सामूहिक मुंडन के तौर पर शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन अब बड़े आंदोलन की शक्ल लेता जा रहा है. ललितपुर के अटा मंदिर में हर रोज बड़ी संख्या में जैन समाज के लोग सामूहिक मुंडन आंदोलन में पहुंचकर केशदान कर रहे हैं.
प्रदीप जैन कहते हैं, ''राजस्थान हाइकोर्ट ने संथारे को आत्महत्या की श्रेणी में रखने का जो फैसला दिया है, वह दुर्भाग्यपूर्ण है. जैन समाज अहिंसा परमो धर्मः के सिद्धांत पर ही चलता है. जहां एक चींटी को मारना भी पाप की श्रेणी में माना जाता हो वहां कोई किसी को आत्महत्या जैसे अपराध के लिए कैसे उकसा सकता है?'' जैन कहते हैं कि इस फैसले से समाज के लोग आहत हैं और इस मामले में राजस्थान सरकार और प्रधानमंत्री को आगे आकर हाइकोर्ट के फैसले को वापस लेने का अनुरोध करना चाहिए. वे चेतावनी देते हैं कि अगर ऐसा नहीं हुआ तो धर्म को बचाने की खातिर देश भर में बड़ा आंदोलन खड़ा हो जाएगा.
धर्म गुरुओं और नेताओं की तरह जैन समुदाय के कई नामी गिरामी लोग भी अदालत के फैसले की आलोचना कर रहे हैं. इनमें कुछ पूर्व न्यायाधीश, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड के पूर्व प्रमुख डी.आर. मेहता, राजस्थान के गृह मंत्री गुलाबचंद कटारिया और राजस्थान बीजेपी के प्रमुख अशोक परनामी भी शामिल हैं. कटारिया ने तो जैन समुदाय से इस मामले में कानून का सहारा लेने का आह्वान किया है और परनामी 24 अगस्त को जयपुर में जैन समुदाय के विरोध प्रदर्शन में शामिल भी हुए थे. हालांकि समुदाय के लोगों को यह अंदाजा तो है कि महज विरोध प्रदर्शन करने से न्यायिक प्रक्रिया पर कोई असर नहीं पडऩे वाला. इसलिए हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका और अपीलें डाल दी गई हैं.
इधर बदाना देवी महज पानी पर जी रही हैं (यह रिपोर्ट 27 अगस्त को लिखी गई थी), इस मुद्दे पर दरार और चौड़ी होती जा रही है और मतभेद और भी गहरे होते जा रहे हैं. उनके परिजनों और समुदाय के अन्य लोगों को भरोसा है कि संथारे के मामले में सर्वोच्च अदालत तर्कसंगत तरीके से विचार करेगी. जबकि इस प्रथा का विरोध करने वालों का मानना है कि इच्छा मृत्यु को अपनाने वाले लोगों की संख्या इतनी कम है कि इस परंपरा को बंद कर देने से धर्म का कोई नुक्सान नहीं होगा. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि जो सरकार नवंबर 2000 से सशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम (एएफएसबीए) के खिलाफ भूख हड़ताल कर रही मणिपुर की एक्टविस्ट इरोम शर्मिला को जबरन खिला रही है, वह धर्म के नाम पर होने वाली इस भूख हड़ताल को रोकने के लिए क्या कोई कदम उठा पाएगी?
(साथ में संतोष पाठक)