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कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष होने के नाम पर राजनीति करती है. हालांकि उनकी राजनीति में धर्मनिरपेक्षता का उतना ही महत्व है, जितना ‘Pseudo’ में ‘P’ का. इसी तरह भाजपा हिंदुत्व और बसपा दलितों के नाम पर राजनीति करती है. कितने हिन्दुओं और दलितों का भला इन्होंने किया, ये तो भगवान जानें. इनसे भले तो वो बचे-खुचे वामपंथी ही, जो आज तक रूस की क्रांति और ‘चे’ को यादकर सड़क पर तो बाईं ओर से चलते हैं.
जब सब अपने-अपने हिस्से के मुद्दे उठाकर ले जा चुके थे, तब आंदोलनों के यू-टर्न से एक नई पार्टी जम्हाई लेती निकली ,जिसका नाम था ‘आ आ पा’, ‘आम आदमी’ के नाम से सहूलियत यह हो गई कि उसकी समस्याएं और शिकायतें कभी खत्म नहीं होती, तो इन्होंने निश्चित किया कि ये आम आदमी के नाम पर राजनीति करेंगे. राजनीति में राजनीति भी उसी के भले के नाम पर की जाती है, जिसे आप सबसे आसानी से बुद्धू बना लें. आम आदमी के ब्राण्ड पर कब्जा करने के बाद आम दिखना जरूरी था, जिसके चलते एक बीच दर्जियों के पास ओवरसाइज शर्ट्स सिलाने की बड़ी अजीब-अजीब सी फरमाइशें आने लगीं. फटे स्वेटर मर्तबानों के बदले न बेचकर फिर धोकर पहन लिए गए. जूतों की जगह चप्पल ने ले ली.
उनचास दिनिया हाइप के बाद जब आम पककर टपक गए, तो समस्या ‘असल आम आदमी’ के साथ शुरू हुई. आरके लक्ष्मण के ‘आम आदमी’ को एके ने राजनीतिक बना छोड़ा. अब कोई मजबूरी बयान करते हुए भी कह दे 'भइया मैं तो आम आदमी हूं' तो अगला टांग खींचते हुए कहता, मफलर नहीं दिख रहा तुम्हारा, और तुम्हें तो खांसी भी नहीं है'.
तो जब हर कोई डबल XL साइज शर्ट ,सफेद कुर्तों तले रीबोक का जूता और छप्पन इंची छाती पर आधी बांह का कुरता पहन खुद को आम दिखाने में लगा है, तो आम आदमी को पहचानें कैसे? टोपी से, झाड़ू से, मफलर से?
तो जवाब है, उसकी आदतों से. बिना टोपी वाले आम आदमी को आप उसकी आदतों से एक बार में पहचान सकते हैं. हर पल बचत और जुगाड़ में लगे आम आदमी को तलाशना-पहचानना कोई बड़ा काम नहीं है. वो हर वक़्त बगल वाले बस स्टॉप पर खड़ा होता है. खाने-पीने से शुरू करें, तो आम आदमी को यूं तो कुल्फी पसंद होती है, पर आइसक्रीम पूछिए, तो वो पसंदीदा ‘वनीला’ ही बताएगा. चोकॉबार खाकर उसकी डंडी रख लेता है, जिससे घर में कुल्फी जमा सके. कोल्डड्रिंक पीने के बाद बोतल भी संभालकर रखता है, जिसमें बाद के महीनों तक पानी भर के पिया जा सके.
मच्छरमार अगरबत्ती को कछुआ कहकर बुलाता है और वो भी आधी तोड़कर तब जलाता है, जब मच्छर ज्यादा हो जाएं. शॉपिंग माल में खरीददारी करने से ज्यादा उसे अंत में पॉलिथीन के पैसे देना अखरता है. पित्जा पैक कराने के बाद मिले एक्स्ट्रा सॉस के पैकेट को संभालकर रख लेता है. घर पर सॉस की बोतल भले दो महीने चलाए, पर रेस्तरां में जानबूझकर प्लेट में ज्यादा सॉस डालता है. कई बार तो सिर्फ इसलिए सब्जी मंडी रात में देर से जाता है, ताकि सब्जीवाला घर जाने की जल्दी में सब्जी सस्ती दे जाए.
और जरूरी नहीं कि परिवार की जिम्मेदारी उठा रहा आदमी ही बजट का मुंह देख ये सब करे. आज का युवा हो, तो वो भी हर बार अलग ब्राण्ड का डियो लाता है, कैन को संभालकर रखता है, ताकि घर आने वालों को दिखा सके कि उसके पास कितने अलग-अलग डियो हैं. व्हाट्सएप पर कई वीडियो सिर्फ इसलिए डाउनलोड नहीं करता, क्योंकि वो ज्यादा मेगाबाइट्स के होते हैं. महीने में एक बड़ा नेट पैक डलवाने की बजाय हफ्ते-हफ्ते कर चार छोटे नेट पैक डलाता, ताकि हर दफा दस रुपये का मुफ्त टॉकटाइम अलग से मिल सके.
इतने पर भी अगर आप आम आदमी को न पहचान सकें, तो किराने की दुकान पर खड़े हो जाइए. आम आदमी चाय पत्ती भी वही ले जाएगा, जिसमें हर पैकेट के साथ मुफ्त कप-गिलास या प्लेट मिलती हो.
ये कंजूसी नहीं है. ये अपने संसाधनों के साथ टिके रहने की जद्दोजहद है. जिस दिन असली आम आदमी पार्टी बनाएगा न, उसका नाम रखेगा, 'बेहद आम आदमी पार्टी'...मानें ‘BAAP’.