
उस मुहल्ले में शाम गुजारी जिसे हम कांग्रेस कहते हैं, जब सुबह हुई तो कमल का खिलता चेहरा देख रात की महफिल का नशा काफूर हो गया. सेहरा जिनके माथे पर सजा था उनसे हमारी यारी न थी. जिनसे थी उनकी सरकार नहीं बन पाई. अब करते भी तो क्या. गांव के अली भाई होते तो इसी नाम पर दो पैग ले लेते और अगले ही पल कमल खिलने की खुशी में जाम थामे किसी और महफिल में शरीक हो लेते. उनकी तो आदत रही है, चाहे जिस महफिल में बुला लीजिए, बस शर्त यह कि जाम होना चाहिए. आप रोने को कहेंगे रो लेंगे, आप हंसने को कहें हंस लेंगे. काफी सोशल टाइप के इंसान हैं. बहरहाल उनकी चर्चा फिर कभी. कांग्रेसी मोहल्ले से अपने दरबे में आने के बाद आखिर हम गम भी कितना गलत करते और कितने दिन करते.
वैसे करते भी तो क्या करते, अपने घर पर बैठकर टीवी निहारने लगे. जब राजतिलक की झलक दिखी तो हमारे चाचा नेहरू याद आ रहे थे. दुर्गा स्वरूप इंदिरा याद आ रही थीं , मिस्टर क्लीन राजीव याद आ रहे थे. सोच रहा था अगर वक्त साथ देता तो राहुल बाबा की मुस्कान देखने को मिल जाती. पर अब किया भी क्या जा सकता है. आखिर बीते लम्हों में जाकर लौटने में वक्त ही कितना लगता है. सुनहरी यादों की चादर लपेट कर अपने सिरहाने रख लिया. क्या पता फिर से उसे खोलने की जरूरत आन पड़े.
वैसे मैं खुश हो रहा था कि चलो अपने 50 साल के शासनकाल में सारे महापुरुष हमारे घर ही पैदा लिए. कम से कम उस विरासत पर अधिकार तो अपना है ही. मतलब सभी महापुरुष कांग्रेसी हैं उन्हें हमसे कौन छीन सकता है. वो कौन सा जयंती मनाएंगे और किसकी तस्वीर लगाएंगे. सारे गांधी, नेहरू तो हमारे आंगन में ही पले बढ़े हैं. लेकिन मेरा यह विश्वास जल्द ही भ्रम में बदल गया. {mospagebreak}पुराने जमाने में युद्ध जीतने वाला शासक पराजित शासक की हवेली पर कब्जे के साथ-साथ उसकी स्त्री पर भी कब्जा जमा लेता था. कई किस्से हैं लेकिन अब वैसा जमाना रहा नहीं. कब्जा तो 7 आरसीआर पर जमाना होता है, धरोहर तो साथ में मिल ही जाती है. हालांकि धरोहर के नाम पर बीजेपी के पास है ही क्या. ले देकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय. बाकी तो संघ के गुरू हैं. सावरकर साहब के लिए तो बौद्धिक घमासान खूब हुआ. बड़ी मुश्किल से वो तस्वीरों में जगह बना पाए.
वाजपेयी साहब इंदिरा नहीं हो सकते और ना ही चाचा नेहरू. गांधी जी के साथ धरती पर अवतरित होने वाले शास्त्री जी वैसे ही दूसरे नंबर पर चले जाते हैं. हालांकि शास्त्री जी कांग्रेसी रहे हैं पर उनकी जयंती चलते-चलते मन जाती है. गांधी जी की तरह सर्वधर्म प्रार्थना की जरूरत नहीं महसूस होती. वैसे कांग्रेस के अंदर रहकर भी दूसरे दर्जे का कांग्रेसी बनना एक अलग तरह का अनुभव है. इसके कई मारे हैं. गांधी, नेहरू से इतर पार्टी के अंदर इनका अस्तित्व बरुआ, मिश्रा, केसरी, मुंशी, मुखर्जी, राव जैसी होती होगी.
खैर साहेब को सत्ता में आए जुम्मा-जुम्मा चार दिन हुए और हड़पने की नीति. माफ कीजिएगा, विस्तारवादी...नहीं परिवार को बड़ा करने की नीति शुरू कर दी. 2 अक्तूबर तो हम ही मनाते थे. पूरे कांग्रेसी अंदाज में. खद्दर पहनकर. सूत काटकर. सर्वधर्म प्रार्थना में सभी को शामिल कर. हमें कभी ये गुमान भी नहीं हुआ कि गांधी हमारे अलावा किसी और के भी हो सकते हैं. शुरू से गांधी कांग्रेसी भले ही रहे हों, वो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कांग्रेस को खत्म करने की इच्छा रखते थे. वैसे उनकी इस इच्छा को पूरा कर देते तो हमारी पहचान क्या होती, यह सोचकर ही पूरे शरीर में सिहरन पैदा हो जाती है. ये नये प्रधानमंत्री जो प्रधानमंत्री बनने से पहले कभी संसद का मुंह तक नहीं देखे थे, मेरे गांधी जयंती मनाने के सारे रंग-ढंग को ही बदल दिया. अब ये सभी के गांधी हो गए. आश्चर्य है, जिस गांधी को कभी ये दोषी ठहराते थे वो एकाएक इनके प्रिय हो गए? गांधी सबके हो गए? मतलब गांधी अब बीजेपी के भी हो गए? सर्वधर्म की जगह पर स्वच्छता अभियान चलेगा? अब गांधी पर कांग्रेस का कॉपीराइट समाप्त.
{mospagebreak}गांधी हमारे पार्टी की सबसे बड़ी पूंजी थी. हमने अपना सबकुछ उन्हीं से लेकर शुरू की थी. लोग हमसे अलग होते चले गए. कांग्रेस से सैकड़ों पार्टियों का जन्म हुआ लेकिन किसी ने भी मेरे गांधी को हमसे नहीं छीना. लेकिन जो पार्टी हमसे अलग होकर नहीं बनी उसने गांधी पर अपना कब्जा जमा लिया. वह भी बिना किसी जंग के...ना वैचारिक, ना हिंसक. सारा परिवर्तन अहिंसा के रास्ते. तो क्या गांधी जी कांग्रेस को समाप्त कर, नई पार्टी बना कर, सत्ता हासिल करने की बात करते थे तो वह पार्टी बीजेपी होती? या फिर एक खास प्रदेश से होने के कारण गांधी हमसे छिन गए?
खैर गांधी इतने महान व्यक्तित्व वाले रहे हैं, जिनकी पहचान वैश्विक स्तर की रही, उन्हें हम आखिर कब तक बांध कर रख पाते. आज न कल तो हमसे अलग होना ही था. इतना बड़ा देश जो है, इतनी बड़ी आबादी जो है. गांधी को मानने वाले सिर्फ 44 सीटों की पार्टी नहीं हो सकती. उन्हें तो सारा देश मानता है. वो तो सबका है. लेकिन दु:ख इस बात का है कि अब सिर्फ हमारी पार्टी को गांधी के नाम पर राजनीतिक फायदा नहीं मिल पाएगा. अब एक और हिस्सेदार आ गए हैं.
इस मामले में हम अभी उबर भी नहीं पाए थे कि हमारी दुर्गा यानी इंदिरा की शहादत दरकिनार करने की कोशिश की गई. यह सरासर हमारी पार्टी के साथ अन्याय था. पटेल हमारे थे. हमलोग हर साल उनकी जयंती पर विज्ञापन तो दे ही देते थे फिर ये दौड़ने वाली बात कहां से आ गई. पूरे देश को दौड़ा दिया. कितना बढ़िया सुबह-सुबह स्नान-ध्यान कर शक्ति स्थल पहुंचते थे और इंदिरा जी को याद करते थे. उसे भी इनकी पार्टी ने छोटा कर दिया. {mospagebreak}अब सुनने में यह आ रहा है कि चाचा नेहरू भी हमसे छिन लेंगे और इंदिरा का जन्मदिन भी अपने तरीके से मनाएंगे. यह भी जानकारी मिल रही है कि नेहरू का जन्मदिन मनाने के लिए जो कमेटी मनमोहन सिंह ने बनाई थी, जिसमें सोनिया गांधी भी शामिल थीं, उसे भंग कर नई कमेटी बनाई गई है. सोनिया गांधी नहीं है उस कमेटी में. आखिर यह कैसे हो सकता है. नेहरू तो हमारे परिवार के थे, वह कब से बीजेपी के होने लगे. हमारी गद्दी हमसे छीन लिए, अब हमारे पुरखे भी हड़प रहे हैं.
परिवर्तन प्रकृति का नियम है लेकिन कोई राजनीतिक पार्टी अपना चाल, चेहरा और चरित्र इस तरीके से बदल लेगी, यकीन नहीं हो रहा. मैं भी सोच रहा हूं, जब हमारे सारे पुरखे बीजेपी के हो जाएंगे तो अकेले कांग्रेसी गलियों में आवारा घूमने से मुझे क्या हासिल होगा? वाड्रा साहब की तरह गुस्से में कुछ कर बैठूं तो वह भी ठीक नहीं. उनके लिए तो पूरी फैमली साथ में होगी, मेरा कौन होगा. मैं माइक भी नहीं हटा सकता, वो तो कैमरा बंद करने और फुटेज डिलीट करने को बोलकर चले भी गए, मैं क्या करूंगा? कुछ पत्रकार मित्रों से पूछवाता हूं अगर राहुल बाबा बीजेपी में चले तो मैं भी पाला बदलने की सोचूं. आखिरकार राजीव जी की जयंती पर भी तो कुछ करना ही होगा.