दलित ऐक्ट पर इतना उपद्रव, तो अयोध्या के फैसले पर क्या होगा

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में सड़कों पर उतरे दलितों की दलील है कि इस फैसले से एससी-एसटी ऐक्ट कमजोर होता है. सवाल ये है कि अगर ऐसा है तो ये संगठन सीधे सुप्रीम कोर्ट में जा सकते थे. इनको बंद और प्रदर्शन के लिए उकसाने वाले राजनीतिक दल और उनमें बैठे दिग्गज वकील भी सुप्रीम कोर्ट जाकर दलील रख सकते थे. लेकिन ऐसा नहीं किया गया क्योंकि इन पार्टियों को राजनीति करनी थी. 

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मंजीत ठाकुर/मनीष दीक्षित
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  • 03 अप्रैल 2018,
  • अपडेटेड 4:12 PM IST

दलितों के भारत बंद के दौरान खासकर उत्तरी राज्यों में हुई हिंसा ने माहौल को अराजक बना दिया है और तमाम ऐसे सवाल छोड़ दिए हैं जिनका जवाब न ढूंढा गया तो देश के हालात भी सीरिया जैसे दिखने में देर नहीं लगेगी. 

देश का लोकतंत्र संविधान से चलता है और संविधान और कानून की बारीकियों की व्याख्या सुप्रीम कोर्ट करता है. अनुसूचित जाति-जनजाति कानून (एससी-एसटी एक्ट) में आरोपी को अग्रिम जमानत देने और अगर मामले की प्राथमिक जांच के बाद गिरफ्तारी के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ दलित संगठनों ने ये बंद बुलाया था. दलितों की दलील है कि इस फैसले से एससी-एसटी एक्ट कमजोर होता है. 

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सवाल ये है कि अगर ऐसा है तो ये संगठन सीधे सुप्रीम कोर्ट में जा सकते थे. इनको बंद और प्रदर्शन के लिए उकसाने वाले राजनीतिक दल और उनमें बैठे दिग्गज वकील भी सुप्रीम कोर्ट जाकर दलील रख सकते थे. लेकिन ऐसा नहीं किया गया क्योंकि इन पार्टियों को राजनीति करनी थी. 

2019 के आम चुनाव के अलावा कई राज्यों के चुनाव आने वाले हैं. सत्ता के लिए व्याकुल राजनीतिक दलों ने प्रदर्शन को हवा दी और परिणाम हमारे सामने है. देशभर में एक दर्जन से ज्यादा लोगों की बंद के दौरान हुए उपद्रव में हत्या  हो गई है. उत्पाती प्रदर्शनकारियों ने रेल लाइनें उखाड़ीं, सैकड़ों गाड़ियां जला दीं. पुलिस चौकी को आग लगाई पुलिस वालों पर हमले किए. 

जाहिर है सुरक्षा इंतजाम भी कम थे लेकिन ये भी सत्य है कि भीड़ के आगे कितने भी सुरक्षा इंतजाम फीके पड़ जाते हैं. कोर्ट के फैसले के खिलाफ पिछले साल बाबा राम रहीम के मामले में हम भीड़ का तांडव देख चुके हैं. इसके अलावा आसाराम के चेलों के उपद्रव से लेकर बाबा रामपाल के शिष्यों का उत्पात और हरियाणा का हिंसक जाट आंदोलन, राजस्थान का गुर्जर आंदोलन आदि भी अदालत के फैसले के विरोध में ही हुए जिनसे आम लोगों को भारी मुसीबत झेलनी पड़ी और अरबों की सरकारी संपत्ति का नुकसान हुआ. ऐसी ही मुसीबत का सामना मध्यप्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के लोगों को 2 अप्रैल के दलितों के बंद-प्रदर्शन के दौरान सामना करना पड़ा और सरकारी संपत्ति को भी बेहिसाब नुकसान हुआ. 

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ये जरूरी नहीं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला लोकप्रिय भी हो क्योंकि वहां भावुकता और वोटबैंक के आधार पर नहीं बल्कि कानूनी और संवैधानिक बिंदु के आधार पर होते हैं, उनको सड़क पर उपद्रव मचाकर पलटा नहीं जा सकता. अगर समाज के लोग या राजनीतिक दल ऐसा करने की सोच रहे हैं तो उन्हें अपना भविष्य सोच लेना चाहिए क्योंकि निकट भविष्य में सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या प्रकरण, मुसलिमों में हलाला-मुताविवाह और बहु विवाह, अनुच्छेद 377 जैसे मामलों पर फैसले आने हैं.

 कोर्ट के फैसले तुष्टीकरण की बुनियाद पर नहीं होंगे और न ही संख्याबल के आधार पर. हिंसा दोनों पक्षों से हो सकती है और किसी भी स्तर तक जा सकती है. जिस वोटबैंक की राजनीति चल रही है वो ऐसे ही होती रही तो देश में गनतंत्र आ जाएगा और जो कुछ आजादी से हासिल किया है वह मिट्टी में मिल जाएगा. 

एक्ट को कमजोर करने वाला नहीं है फैसला

जहां तक एससी-एसटी एक्ट की बात है तो कोर्ट ने इसे कमजोर नहीं किया है, इसके दुरुपयोग के चलते नियमों में मामूली बदलाव किया है. अग्रिम जमानत देने की बात कोर्ट से पहले भी आ चुकी है और मामले की प्राथमिक जांच के बाद गिरफ्तारी का प्रावधान हर केस में है. एससी-एसटी एक्ट में डीएसपी स्तर के जांच अधिकारी से विवेकपूर्ण फैसला लेने की अपेक्षा की बात अगर कोर्ट कहता है तो ये एक्ट के प्रावधान में पहले से है. जहां तक तत्काल गिरफ्तारी की बात है तो मर्डर के केस में भी तत्काल गिरफ्तारी नहीं होती है. 

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