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शकुंतला देवी: जीनियस, जिद और अहंकार! प्यार की तलाश में तन्हा जिंदगी

Shakuntala devi movie review शकुंतला का नाम जैसे-जैसे रोशन होता जाता है परिवार से दूरी उतनी बढ़ती जाती है. अपना खुद का परिवार पहले छूट गया. पति के परिवार की जिंदगी में एंट्री ही नहीं हुई. बेटी ही एक सहारा है लेकिन वह अपने प्यार के लिए मां को छोड़ गई.

Shakuntala Devi Movie: फोटो- विद्या बालन Shakuntala Devi Movie: फोटो- विद्या बालन
अमित राय
  • नई दिल्ली,
  • 01 अगस्त 2020,
  • अपडेटेड 7:52 PM IST

शकुंतला देवी का दिमाग कंप्यूटर से भी तेज चलता था. संख्याओं से वह खेलती थीं. बड़े से बड़ा सवाल वह चुटकियों में हल कर देती थीं. उन्हें आर्यभट्ट और रामनुजम के बाद की कड़ी माना गया. उनका नाम गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज किया गया. कई पुरस्कारों से नवाजी गईं. उन्हीं की जिंदगी पर फिल्म बनी है शकुंतला देवी.

यह एक असाधारण प्रतिभा की धनी औरत की कहानी है जिसे प्यार की तलाश रही. उसे लगता रहा कि वह अपने तरीके से क्यों नहीं जी सकती? कहा जाता है कि जैसा हम करते हैं वो हमारे आगे आता है. मां से नफरत कितना बड़ा गुनाह है वह तब समझ में आता है जब खुद की बेटी शकुंतला देवी से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती. शकुंतला की जिंदगी में समस्या बराबर बनी रहती है. प्यार की, विश्वास की, अकेलेपन की. जिद और अहंकार बार-बार मुश्किलें खड़ी करते रहते हैं.

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प्रतिभा की पहचान होते ही गरीबी से जूझ रहा परिवार उसे कमाई का साधन बना लेता है. बचपन छिन जाता है. शकुंतला की तमन्ना है कि वह और बच्चों के साथ स्कूल जाए लेकिन अप्पा उससे शो कराते रहते हैं. शकुंतला को जिस दिन अहसास होता है कि उसके पैसों से घर चलता है उसी दिन उसे लगने लगता है कि अब उसे किसी से डरने की जरूरत नहीं है. यही अहंकार आगे कई मुश्किलें खड़ी करता है. अप्पा उसके मैथ के शो कराकर पैसे तो कमाते हैं लेकिन शकुंतला की दिव्यांग बहन के इलाज पर खर्च नहीं करते. एक दिन उसकी मौत हो जाती है. इसके बाद अप्पा और मां के प्रति शकुंतला के मन में जो खाई पैदा होती है वह कभी भर नहीं पाती. शकुंतला कहती है कि अम्मा को कभी माफ नहीं करुंगी. एक बड़ी औरत बनकर दिखाउंगी.

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शकुंतला अपनी शर्तों पर जीना चाहती है. प्रेमी की बेवफाई वह बर्दाश्त नहीं कर पाती. परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि उसे देश छोड़ना पड़ता है. 1955 में एक औरत का अकेले लंदन निकल जाना यह कितने जिगरे का काम था यह केवल शकुंतला ही समझ सकती है. वहां अपने बल पर वह सब कुछ हासिल करती है. लेकिन इसके बीच भी प्यार की तलाश जारी रहती है. प्रेम मिलता भी है. वह शकुंतला को आगे भी बढ़ाता है. लेकिन प्रेमी को एक दिन अहसास होता है कि शकुंतला उसके सामने बहुत बड़ी हो गई है. वह उसे छोड़कर चला जाता है. जिंदगी में एक बार फिर अकेलापन आ जाता है. लेकिन बेफिक्री का अंदाज और नंबर्स से प्यार शकुंतला को टूटने नहीं देते.

नंबर की तरह शकुंतला को जिंदगी में कोई कन्फ्यूजन नहीं है. उसे दूसरा प्यार मिलता है एक आईएएस अधिकारी से, जिससे एक बेटी होती है अनु. यहीं से जिंदगी बंट सी जाती है. शकुंतला को समझ में नहीं आता कि वह दुनिया की सबसे अच्छी मां कैसे नहीं हो सकती. उसके ईगो को इससे ठेस पहुंचती है कि उसकी बेटी के मुंह से सबसे पहला शब्द बाबा क्यों निकला? इसके बाद यह तय करना कि वह जहां जाएगी बेटी को लेकर जाएगी, जिंदगी में दरार पैदा कर देता है. बेटी-बाप से कट जाती है, पति-पत्नी अलग हो जाते हैं. इसके बाद वैसा ही होता है जैसा शकुंतला के बचपन में हुआ था.

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शकुंतला को इसलिए स्कूल नहीं जाने दिया गया कि वह मैथ के शो करके पैसे कमा लेती थी. शकुंतला अपनी बेटी को स्कूल इसलिए स्कूल नहीं भेजती कि स्कूल में जाकर क्या होगा. वह भूल जाती है कि बच्चे का भी अधिकार होता है. पिता की याद, मां का साथ रहकर भी दूर होना, मां के शोज, इस देश से उस देश के दौरे अनु को तोड़ देते हैं. वह एक जगह कहती है आई हेट मैथ, आई हेट मदर.

मां के सपने बड़े हैं, बेटी के सपने छोटे हो जाते हैं. मां पूरी दुनिया में फेमस होना चाहती है, बेटी सुकून से जीना चाहती है. मां किसी एक शहर में 4 दिन से ज्यादा नहीं रहना चाहती, बेटी अपने पति के साथ एक जगह जिंदगी बिताना चाहती है. बेटी को इतनी चिढ़ हो जाती है कि वह मां को 'तलाक' देने की धमकी देती है. शकुंतला को याद दिलाती है कि 'क्या आपने अपनी मां को नहीं छोड़ा था'. दूरियां इतनी बढ़ती हैं कि मां-बेटी अलग हो जाते हैं.

शकुंतला को एक सुलझा हुआ आईएएस पति मिलता है जो करियर में आड़े नहीं आता. लेकिन उसे शकुंतला का स्टैंडबाई बनना भी मंजूर नहीं. अगर पति के लिए पत्नी अपना करियर छोड़ सकती है तो पति ऐसा क्यों नहीं कर सकता? यह जिद दोनों को अलग कर देती है. पति का मानना है कि शकुंतला में तूफान है और तूफान के सामने आना ठीक नहीं.

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शकुंतला का नाम जैसे-जैसे रोशन होता जाता है परिवार से दूरी उतनी बढ़ती जाती है. अपना खुद का परिवार पहले छूट गया. पति के परिवार की जिंदगी में एंट्री ही नहीं हुई. बेटी ही एक सहारा है लेकिन वह अपने प्यार के लिए मां को छोड़ गई. अब अकेलापान तारी हो जाता है.

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कड़ियां ऐसी पिरोई गई हैं कि शकुंतला को अपनी गलती का अहसास होता है और शकुंतला की बेटी को अपनी गलती का. दोनों को समझ में आता है कि मां-बाप कितने जरूरी होते हैं. मां को मां की नजर से ही नहीं एक औरत की नजर से भी देखा जाना चाहिए. फिल्म एक सुखद अंत के साथ खत्म होती है लेकिन कई सवाल छोड़ जाती है.

क्या एक असाधारण औरत को असाधारण तरीके से जीने का हक नहीं होना चाहिए? क्या यह जरूरी है कि जो किसी क्षेत्र में बहुत आगे है वह एक परफ्केट मां और परफेक्ट पत्नी भी साबित हो?. आखिर एक असाधारण महिला को यह ख्याल क्यों आए कि उसे करियर में ही नहीं निजी जीवन में भी परफ्केट होना है?. शायद इसलिए कि हमारा सामाजिक ढांचा ही ऐसा है जहां एक महिला की सबसे बड़ी कीमत मां होने से आंकी जाती है. इसके साथ ही बंध जाती हैं कई दकियानूसी विचारधाराएं जो एक महिला से बराबरी का सारा हक छीन लेती हैं.

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विद्या बालन ने फिल्म में बढ़िया काम किया है. ऐसा माना जाता है कि मैथमेटिशियन गंभीर होते हैं लेकिन निजी जिंदगी में भी शकुंतला देवी के सेंस ऑफ ह्यूमर की सराहना होती थी. हालांकि फिल्म में खिलंदड़ापन कुछ ज्यादा ही दिखा दिया गया है. डांस के एक स्टेप में तो डर्टी पिक्चर की हल्की सी झलक मिल जाती है. बाकी पात्रों ने भी ठीक-ठाक अभिनय किया है. शकुंतला की बेटी अनु के रोल में सान्या मल्होत्रा ने भी ध्यान खींचा है. वह वो दर्द लाने में सफल रही हैं जो एक मां-बाप के बीच बंटे बेटे और बेटियों में होता है. मां कैसे अंकों की खिलाड़ी से एसेट्रोलॉजर और नेता बन जाती है. उसके साथ ही जिंदगी का सूनापन कितना तारी हो जाता है, यह अनु की आंखों में देखा जा सकता है. लेकिन फिल्म विद्या के कंधों पर ही टिकी हुई है.

कुल मिलाकर एक बार यह फिल्म देखने लायक है. एक असाधारण औरत की कहानी जो जीवन भर प्यार पाने के लिए संघर्ष करती रही. उसने अपने को सुधारने की बहुत कोशिश की लेकिन उसकी आसाधारण प्रतिभा ने उसे झुकने नहीं दिया. वह अपने मां-बाप की नहीं हो सकी. पति का प्रेम आजीवन नहीं मिल पाया.

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