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नियति ने हमें सामरिक सहयोगी बना दिया है: अमेरिकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर

अमेरिकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर कहते हैं कि नियति ने हमें सामरिक सहयोगी बना दिया है.

अमेरिकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर अमेरिकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर
शेखर गुप्ता
  • ,
  • 08 जून 2015,
  • अपडेटेड 6:04 PM IST

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस साल जनवरी में भारत यात्रा से ठीक पहले इंडिया टुडे के लिए मुझे एक ई-मेल इंटरव्यू में कहा था कि उनके देश और भारत के लिए अब सितारे ही कुछ ऐसा संयोग बना रहे हैं कि वे सामरिक संबंध स्थापित करें जो अब तक रुक-रुककर चलते रहे हैं. भारत में स्पष्ट बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी के उदय से तस्वीर में नाटकीय बदलाव आया. कांग्रेस पार्टी की उस वाम-उदारवादी हिचक को दरकिनार करके सार्वजनिक राय में दक्षिणपंथी रुझान स्थापित हुआ, जो कुख्यात “एंटनी वीटो” की बदौलत अमेरिका के साथ सैन्य रिश्तों का विस्तार करने में प्रभावी रूप से तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी लाचार बना दे रहा था.

उस पन्ने को अब पलटा जा चुका है. इसका और साक्ष्य हाल ही में अमेरिकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर की संक्षिप्त यात्रा के तौर पर देखने को मिला. उन्होंने पश्चिम एशिया में इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक ऐंड लेवांट (आइएसआइएल) से, दक्षिण चीन समुद्र में चीन की भड़काऊ गतिविधियों से, अफगानिस्तान में लगातार होते पतन से और घरेलू मोर्चे पर चुनाव से पहले के साल की ध्रुवीकृत बहसों से निबटने की अपनी तमान व्यस्तताओं के बीच न सिर्फ भारत की यात्रा का समय निकाला बल्कि स्पष्ट सामरिक संदेश देते हुए यात्रा की शुरुआत भारतीय नौसेना की पूर्वी कमान के गढ़ विशाखापत्तनम से की. कॉन्ट्रिब्यूटिंग एडिटर शेखर गुप्ता के साथ एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में उन्होंने विशाखापत्तनम से यात्रा की शुरुआत करने की अहमियत को स्वीकार किया, बल्कि यह भी कहा कि, “हां, एक अर्थ में यह भारत की लुक ईस्ट नीति और अमेरिका के एशिया-प्रशांत और हिंद महासागर में पुनर्संतुलन स्थापित करने की कोशिश की स्वीकारोक्ति है. हम दोनों ही समद्री ताकत हैं.”

असामान्य रूप से येल से भौतिकी और मध्यकालीन इतिहास, दोनों में स्नातक और ऑक्सफोर्ड से परमाणु भौतिकी में पीएचडी, कार्टर ने हार्वर्ड और एमआइटी में अंतरराष्ट्रीय संबंध और सुरक्षा विषयों को पढ़ाया भी है. कार्टर कई अहम किताबें लिख और अध्ययन कर चुके हैं&जिनमें एक 1987 में रीगन की सामरिक सुरक्षा पहल को चुनौती देने वाली थी, और “कैटेस्ट्रोफिक टेररिज्म” पर शानदार पर्चा उन्होंने तत्कालीन सीआइए निदेशक जॉन ड्यूश के साथ मिलकर लिखा था. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें सामरिक नीति का दिग्गज माना जाता है. ड्यूश का जिक्र आते ही वे मजाक करते हैं कि, “वह पर्चा पूरी तरह उपेक्षित कर दिया जाने वाला सबसे दूरंदेशी पर्चा था”, खास तौर पर यह देखते हुए कि उसके तीन ही साल बाद 9/11 की घटना हो गई. बातचीत के खास अंशः

आपका देश चुनावों की तैयारी कर रहा है. ऐसे में अमेरिका को किस तरह की विदेश नीति की जरूरत है? जो नई धारणा बनती दिखाई दे रही है, उसमें यह महसूस किया जा रहा है कि अमेरिका को अमेरिकी मूल्यों का निर्यात नहीं करना चाहिए और अपने हितों की रक्षा करनी चाहिए.  क्या यह खुद को ही देखने का संकेत है?

मेरा यह मानना है कि अमेरिका में दीर्घकाल में अपने हितों की सुरक्षा करने की एक लंबी परंपरा रही है, इसलिए उन्हें उन मूल्यों से पूरी तरह से अलग नहीं किया जा सकता, जिन्हें वह बढ़ावा देता है, और हम हमेशा इन दोनों को एक-दूसरे से जुड़ा मानते हैं. 

इसका 9/11 के बाद की धारणाओं से मेल कैसे होता है? पेंटागन अमेरिकी सरकार का वैचारिक हिस्सा है और उसके लिए सारी दुनिया दोस्त या दुश्मन में बंटी हुई है?
मुझे नहीं लगता. रक्षा विभाग में हम रोजाना दुनियाभर में इस हकीकत से रू-ब-रू होते हैं कि दुनिया में सब कुछ काला या सफेद नहीं है और वह बहुत जटिल और मिश्रित है. यह वह चीज है जो आप सबसे पहले सीखते हैं जब आप दुनियाभर में उस तरह उलझे होते हैं, जैसे अमेरिका उलझा है, कि चीजें आम तौर पर सहज, काली-सफेद नहीं होतीं. अब कुछ बातें ऐसी हैं जो सीधे तौर पर खराब हैं और उनसे आपको जूझना ही हैः आइएसआइएल, आतंकवादियों के हाथों में जनसंहार के हथियार, ढांचों को गिराने या मासूमों को प्रभावित करने के लिए किए जा रहे साइबर हमले, आतंकवाद क्योंकि उसका निशाना निर्दोष लोग होते हैं. ये बातें काली या सफेद, गलत या सही, अच्छी और बुरी की श्रेणी में आ सकती हैं. लेकिन देशों, लोगों, इलाकों को इस तरह से बांटा नहीं जा सकता.

अब जबसे हमने बिगड़ी बात सुधारने का दौर शुरू किया है तब से हम कोशिश करते हैं कि किसी अहम अमेरिकी से बातचीत में पाकिस्तान का जिक्र न छेड़ें. पर एक भारतीय पत्रकार के रूप में मेरे लिए यह बहुत मुश्किल है कि इतनी लंबी बातचीत के बाद लश्कर-ए-तय्यबा का जिक्र न किया जाए, क्योंकि मेरे जैसे लोगों का यह मानना है कि पाकिस्तान का अब भी अपने पिछवाड़े मौजूद आतंकवादियों या आस्तीन में छिपे सांपों के बारे में नजरिया अलग है, जो उसको भी काट सकते हैं, और आंगन में मौजूद सांपों के बारे में अलग, जिनके बारे में वह यह मानता है कि वे उसके नियंत्रण में हैं.
मैं वहीं से शुरुआत करता हूं जहां से आपने की थी, यानी हम बांटते नहीं हैं. अमेरिका ने लंबे अरसे पहले यह करना बंद कर दिया था. बहरहाल, लश्कर पर आपके सवाल के जवाब में हमारा मानना यह है कि आतंकवाद के हर स्वरूप का हमें विरोध करना होगा. अब उसके लिए चाहे जो बहाना दिया जाए, उनके पास जो भी वजहें हों, अमेरिका हमेशा लश्कर का विरोध करता है. 

पाकिस्तान ने पर्याप्त काम किया है?
हम लगातार पाकिस्तान को इस बात के लिए प्रेरित करते रहे हैं कि वह और कदम उठाए और कहा जाए तो पाकिस्तान ने ज्यादा किया भी है. मुझे लगता है कि आखिरकार पाकिस्तान में कुछ लोगों को यह महसूस होने लगा है कि आतंकवाद को प्रायोजित करने या उसमें लिप्त होने या उसका आक्रामक रूप से मुकाबला न करने में खुद पाकिस्तान के लिए जो भयानक खतरे मौजूद हैं, वही उसके पास लड़ने की किसी अन्य प्रेरणा से ज्यादा बड़ी वजह है. जिस अन्य खास उदाहरण का जिक्र आप कर रहे हैं, उसे करना मेरी जिम्मेदारी तो नहीं, लेकिन मेरा सोचना है कि विदेश मंत्री जॉन केरी और यहां हमारे दूतावास के अधिकारी इस बारे में बहुत स्पष्ट हैं कि हम लश्कर को लेकर न्यायिक प्रक्रिया के बारे में कितने चिंतित हैं.

आपने कहा, पाकिस्तान में “कुछ.” क्या आपके मूल्यांकन में इस तरह के लोगों की संख्या पर्याप्त है, और वहां के फैसलों में अहम है जो अपने आस्तीन के सांपों को सामने के आंगन के सांपों से अलग आंकने की व्यर्थता को महसूस कर रहे हैं?
मेरी समझ में यह मेरा मूल्यांकन जो मैं स्पष्ट करना चाह रहा था. यही कि आतंकवाद उनके खुद के लिए मुसीबत का जरिया हो रहा है. अब ऐसे में, क्या पाकिस्तान समेत कोई भी देश वह सब कुछ कर रहा है जो हम उसे आतंकवाद के खिलाफ करते देखना चाहते हैं? नहीं, हम और कदम चाहते हैं, लेकिन वे पहले की तुलना में तो ज्यादा कर ही रहे हैं और हम उन्हें उसी दिशा में बड़ने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं.

जब सुबह आपकी आंख खुलती है तो आप सामरिक तौर पर दुनिया की स्थिति को किस तरह से देखते हैं?
सामरिक रूप से हम सभी के लिए (मैं मानता हूं कि आज की दुनिया में हम सभी वैश्विक ताकत हैं) जरूरत इस बात की है कि हम वह नजरिया विकसित करें जिसमें हम अलग-अलग तरह की सुरक्षा चुनौतियों से एक साथ निबट सकें. मसलन, आइएसआइएल...

रूस और यूक्रेन, फिर चीन भी है.
यूक्रेन में रूस का व्यवहार ठीक उन प्राचीन समय जैसा है जब देश सीधे किसी पड़ोसी पर हमला बोल देते थे, इसीलिए हम इसके सख्त विरोधी हैं. चीन के हालात एकदम अलग हैं. उसके बारे में हमारा रुख यही है कि हम चीन को शांतिपूर्ण तरीके से तरक्की करते देखना चाहते हैं.

उन वायु सुरक्षा क्षेत्रों और एयरस्पेस जटिलताओं का क्या जो अब हमें चीन, दक्षिण चीन सागार में दिख रही हैं?
पिछले लगभग एक साल में दक्षिण चीन सागर में जिस बात की ओर ध्यान गया है वह चीनी दावे की गति और पैमाना है...

क्या भारत के पास चिंता की वजहें हैं?
अमेरिका की ही तरह, भारत भी अपने व्यापार, अपनी सुरक्षा के लिए नौवहन पर काफी निर्भर करता है. यहां मुद्दा भारत के किसी निकट पड़ोस का तो नहीं है लेकिन भारत एक समुद्री ताकत है और दक्षिण चीन सागर के जरिए आवागमन और व्यापार पर तो निर्भर करता ही है. 

यात्रा की शुरुआत विशाखापत्तनम से करने की कोई अहमियत है जो हमारे पूर्वी नौसैनिक कमान का मुख्यालय है?
हां, इस संदर्भ में कि यह भारत और अमेरिका, दोनों के लिए समुद्री सुरक्षा की अहमियत को इंगित करती है. इस बात को प्रतिबिंबित करती है कि समुद्री इलाके में भारत की “ऐक्ट ईस्ट” नीति और अमेरिका की एशिया प्रशांत और हिंद महासागर इलाकों में पुनर्संतुलन की नीति समुद्र में जाकर मिल जाती हैं.

आपको ओबामा प्रशासन में भारत का सबसे अच्छा मित्र भी माना जाता है.
शुक्रिया, पर मैं यह साफ कर दूं कि ओबामा प्रशासन में भारत के सबसे बढ़िया दोस्त खुद राष्ट्रपति ओबामा हैं, जो पीएम मोदी संग उनकी मुलाकात से भी जाहिर हो चुका है. मैं तो हूं ही.

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