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जब जेल था शिबू सोरेन का ठिकाना, छठ पूजा का खर्च जुटाने के लिए गुरुजी ने छोड़ दिया खाना

शिबू सोरेन ने झारखंड में क्रांति की जो चिंगारी लगभग 50 पहले जलाई थी वो कितनी मुकम्मल हो सकी ये तो बहस का विषय है, लेकिन इतना जरूर है कि आज जिस विरासत के बूते हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है, उसकी शुरुआत शिबू सोरेन ने लगभग आधी सदी पहले झारखंड के घने जंगलों में की थी.

जेएमएम के अध्यक्ष शिबू सोरेन (फोटो-एएनआई) जेएमएम के अध्यक्ष शिबू सोरेन (फोटो-एएनआई)
पन्ना लाल
  • नई दिल्ली,
  • 29 दिसंबर 2019,
  • अपडेटेड 2:44 PM IST

  • संघर्ष की परंपरा के वारिस शिबू और हेमंत
  • बांग्लादेश से प्रेरणा लेकर JMM का गठन
  • धनकटनी आंदोलन से महाजनी प्रथा के खिलाफ बिगुल

संथाली भाषा में दिशोम गुरु का अर्थ होता है देश का गुरु. झारखंड में यही उपाधि शिबू सोरेन को मिली हुई है. शिबू सोरेन ने झारखंड में क्रांति की जो चिंगारी लगभग 50 पहले जलाई थी वो कितनी मुकम्मल हो सकी ये तो बहस का विषय है, लेकिन इतना जरूर है कि आज जिस विरासत के बूते हेमंत सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली है, उसकी शुरुआत शिबू सोरेन ने लगभग आधी सदी पहले झारखंड के घने जंगलों में की थी.

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हेमंत संघर्ष की उस परंपरा के वारिस हैं जिसे उनके दादा सोबरन सोरेन ने शुरू किया, पिता शिबू सोरेन ने अपनी जवानी इस संघर्ष में होम कर दिया...अब वो पल आया है जब नियति ने हेमंत के सिर पर झारखंड का ताज सजा दिया है.

अगर कहें कि शिबू सोरेन ने जो फसल बोई थी उसे हेमंत सोरेन काट रहे हैं तो गलत नहीं होगा. शिबू सोरेन ने महाजनी प्रथा, सूदखोरी के खिलाफ जब आंदोलन शुरू किया तो वे सालों झारखंड के जंगलों में भटकते-फिरते रहे, पुलिस की गोलियों से बचे, जंगलों में रात काटी तब 1976 में उन्होंने समर्पण किया.

1970 के दशक तक झारखंड के राजनीतिक नक्शे पर शिबू सोरेन का उदय हो चुका था. इसके पहले उनके दादा सोबरन सोरेन की हत्या हो चुकी थी. पिता सोबरन सोरेन गांधीवादी थे और पेशे से शिक्षक थे. उन्होंने महाजनी प्रथा, सूदखोरी और शराबबंदी के खिलाफ अभियान चलाया तो महाजनों ने उनकी हत्या करवा दी. ये तारीख थी 27 नवंबर 1957. 13 साल बाद 1970 आते शिबू ने इस आंदोलन की कमान अपने हाथ में थाम ली.

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बांग्लादेश मुक्ति संग्राम और झारखंड मुक्ति मोर्चा

लेखक, पत्रकार और वर्तमान में प्रभात खबर अखबार के वरिष्ठ संपादक अनुज कुमार सिन्हा ने अपनी किताब 'अनसंग हीरोज ऑफ झारखंड' में जेएमएम के गठन का जिक्र किया है. 4 फरवरी 1972 को शिबू सोरेन, बिनोद बिहारी महतो और कॉमरेड एक के रॉय बिनोद बिहारी महतो के घर में इकट्ठा हुए थे, इस बैठक में ये तय किया गया कि झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया जाएगा.

शिबू सोरेन की युवावस्था की तस्वीर

शिबू, बिनोद बिहारी महतो और कॉमरेड एके राय मुलाकात पहले हो चुकी थी. बता दें कि इस घटना से इससे एक साल पहले ही बांग्लादेश पाकिस्तान से अलग होकर स्वतंत्र राष्ट्र बन चुका था और इस काम में बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी का अहम रोल था. इसी 'मुक्ति' शब्द से प्रभावित होकर अलग झारखंड के सपने को लेकर झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की गई.

धनकटनी आंदोलन की शुरुआत

शिबू सोरेन ने रामगढ़, गिरिडीह, बोकारो और हजारीबाग जैसे इलाकों में महाजनों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया. उस दौरान जमींदार, महाजन समुदाय के लोगों ने छल प्रंपच और जाली तरीकों से आदिवासियों की जमीन पर कब्जा कर रखा था. शिबू सोरेन ने आदिवासियों को जमा किया, मंडली बनाई और सामूहिक ताकत के दम पर खेत से धान की फसल काटने लगे, ये आंदोलन धनकटनी आंदोलन कहलाया.

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महिलाओं के हाथ हसिया, पुरुषों के हाथ तीर कमान

शिबू सोरेन अपने साथियों के साथ टुंडी, पलमा, तोपचांची, डुमरी, बेरमो, पीरटांड में आंदोलन चलाने लगे. अक्टूबर महीने में आदिवासी महिलाएं हसिया लेकर आती और जमींदारों के खेतों से फसल काटकर ले जातीं. मांदर की थाप पर मुनादी की जाती. खेतों से दूर आदिवासी युवक तीर-कमान लेकर रखवाली करते और महिलाएं फसल काटतीं. इससे इलाके में कानून-व्यवस्था की स्थिति पैदा हो गई. कई लोगों की मौत हुई. 

पिता का आशीर्वाद लेते हेमंत सोरेन (फोटो-पीटीआई)

शिबू सोरेन पारसनाथ के घने जंगलों में चले गए और यहीं से आंदोलन चलाने लगे. शिबू सोरेन ने यहां आदिवासियों के लिए रात्रि शिक्षा की व्यवस्था की. आंदोलनकारियों को गांव पर आधारित अर्थव्यवस्था का मॉडल दिया.

अपने आंदोलन के दौरान गुरुजी एक मर्यादा की एक लकीर खींच दी थी. उन्होंने कहा था कि ये लड़ाई खेत की है और खेत पर ही होगी. इसलिए इस पूरे आंदोलन में न तो महाजन वर्ग की महिलाओं के साथ कभी बदसलूकी की गई न हीं खेत छोड़कर उनके किसी और संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया.

शिबू का सरेंडर

25 जून 1975 को जब आपातकाल की घोषणा हुई तो शिबू सोरेन पर गिरफ्तारी की तलवार मंडराने लगी. इंदिरा गांधी ने उनकी गिरफ्तारी का आदेश दिया. लेकिन शिबू सोरेन तो फरार थे. तब केबी सक्सेना धनबाद के डीसी थे. वे शिबू सोरेन को समझते थे. उन्‍होंने शिबू सोरेन को समझाया और आत्मसमर्पण करने के लिए राजी किया.

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छठ गीत सुन पिघले गुरुजी

1976 में शिबू सोरेन ने सरेंडर कर दिया. उन्हें धनबाद जेल में रखा गया. यहां की एक घटना शिबू सोरेन के व्यक्तित्व के भावुक पक्ष को दिखाती है.  शिबू सोरेन जेल में बंद थे. अक्टूबर-नवंबर का वक्त था. जेल में एक महिला कैदी करुण स्वर में छठ के गीत गा रही थी.

शिबू सोरेन से इस घटना का वर्णन सुन चुके वरिष्ठ पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा बताते हैं, " शिबू सोरेन जेल में महिला कैदी का गीत सुन कुछ समझ नहीं पाए, उन्होंने झारखंड आंदोलन के एक दूसरे कार्यकर्ता और जेल में बंद झगड़ू पंडित से इस बावत पूछा. झगड़ू ने उन्हें बताया कि महिला हर बार छठ करती है, लेकिन इस बार एक अपराध के जुर्म में जेल में है इसलिए वो छठ नहीं कर पा रही है, लिहाजा वो बहुत पीड़ा में छठ गीत गा रही है. तब तक आदिवासी नेता के रूप में प्रसिद्ध एक गैर आदिवासी महिला की पीड़ा सुन बेहद दुखी हुए. उन्होंने जेल में ही महिला को छठ व्रत कराने का इंतजाम किया."

समाज में अपना नेतृत्व कौशल दिखा चुके शिबू सोरेन ने जेल में भी अपनी लीडरशिप क्वालिटी दिखाई. शिबू सोरेन सभी कैदियों से अपील की कि वे एक सांझ का खाना नहीं खाएंगे और उस पैसे से छठ पूजा के लिए सामान खरीदा जाएगा. आखिर हुआ भी ऐसा ही.  सभी कैदियों ने एक टाइम का खाना त्याग दिया और महिला को छठ करने की व्यवस्था दी.

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शराब न छोड़ने पर चाचा से झगड़ बैठे

शिबू सोरेन भले ही आदिवासी समाज के नेता हो लेकिन वे हमेशा नशे से दूर रहे. शराब, हंडिया का प्रचलन आदिवासी समाज में बड़ा आम है, लेकिन शिबू सोरेन इससे हमेशा दूर रहे. शराबबंदी को लेकर उनकी जिद इस तरह थी कि एक बार वे अपने चाचा पर नाराज हो गए और उन्हें पीटने पर उतारू हो गए.

शॉर्प ब्रेन, आंदोलनकारी शख्सियत

शिबू सोरेन से जुड़ी एक और घटना हमें बताती है कि अपने आस-पास की घटनाओं पर कितनी तेजी से प्रतिक्रिया देते थे. तब शिबू सोरेन के आंदोलन का दौर था. वे पलमा में जंगल में थे. रात का वक्त था और एक आश्रम में खाना खा रहे थे. तभी इस सन्नाटे में जंगल में एक कुत्ता भौकने लगा. शिबू तुरंत चौकन्ना हो गए. उनका आश्रम एक पहाड़ी पर था, वे वहां से कूदे और आगे चलकर देखते हैं कि पूरी पहाड़ी को फोर्स ने घेर लिया.

शिबू ने तुरंत डुगडुगी बजाई और आदिवासियों का जत्था वहां आ पहुंचा, उन दिनों डुगडुगी लोगों को सचेत करने और उन्हें रक्षा के लिए बुलाने का जरिया था. शिबू तुरंत संभल गए और भारी संख्या में आदिवासियों के आने के बाद पुलिस फोर्स को पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा.

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