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स्मृतिः प्रतिबद्धताओं से बना समाजपुरुष

नाटक को ऊंचाई की हदों तक ले जाने वाले चुनिंदा अभिनेताओं में से एक थे डॉ. श्रीराम लागू. वे न केवल अभिनेता बल्कि अपने-आप में अत्यंत सुलझा हुआ विचार थे

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aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 24 दिसंबर 2019,
  • अपडेटेड 3:34 PM IST

श्रीकांत बोजेवार

रंगमंच और फिल्म भले ही एक सिक्के के दो पहलू हों, पर फिल्म निर्देशक का माध्यम है और रंगमंच लेखक का. मराठी थिएटर का इतिहास किर्लोस्कर, देवल, राम गणेश गडकरी से लेकर विजय तेंदुलकर, बसंत कानेटकर, विष्णु वामन शिरवाडकर, आचार्य अत्रे जैसे रथी-महारथी लेखकों ने अपनी लेखनी से रचा है. लेखकों की इस आभा को भेदकर अपने अभिनय से किसी नाटक को ऊंचाई की हदों तक ले जाने वाले चुनिंदा अभिनेताओं में से एक थे डॉ. श्रीराम लागू. वे न केवल अभिनेता बल्कि अपने-आप में अत्यंत सुलझा हुआ विचार थे. इनसानियत और सामाजिक प्रतिबद्धता का संबंध वे कला से जोड़ते थे.

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उनका मानना था कि अभिनेता एक सांस्कृतिक नेतृत्वकर्ता होता है, जिस पर बड़ी जिम्मेदारी होती है. चालीस-पचास साल तक वे तीन-चार पीढ़ी के तरक्कीपसंद लेखकों, अभिनेताओं और दिवंगत तर्कवादी नरेंद्र दाभोलकर जैसे समाजसेवकों के साथ मिलकर यह कोशिश करते रहे कि कला को समाज से जुड़ा रखें.

रंगमंच के साथ-साथ उन्होंने फिल्मों में भी लंबी पारी खेली है. हिंदी फिल्मों में हालांकि, उन्हें ज्यादातर चरित्र भूमिकाएं ही मिलीं और ऐसा शायद व्यावसायिक सिनेमा की स्वभावगत मर्यादाओं के कारण हुआ. पर मराठी फिल्मों ने जरूर उन्हें रंगमंच की तरह ही कुछ ऐसी भूमिकाएं दीं जो मील का पत्थर साबित हुईं. जब्बार पटेल निर्देशित सामना, सिंहासन तथा मुक्ता, वी. शांताराम की पिंजरा उसके ठोस उदाहरण कहे जा सकते हैं.

मेडिसिन डॉक्टर और ईएनटी स्पेशलिस्ट रहे श्रीराम लागू शुरू के कुछ सालों तक इस पेशे में बने रहे. डॉक्टरी के ही सिलसिले में वे पहले कनाडा, बर्तानिया और फिर दक्षिण अफ्रीका में थे. पर अभिनय का आकर्षण उन्हें अपनी ओर खींचता रहा. आखिरकार वे पुणे से मुंबई चले आए और उन्होंने रंगमंच का दामन थाम लिया. द गोवा हिंदू एसोसिएशन के नटसम्राट नाटक ने उन्हें वास्तव में नटसम्राट का खिताब दिला दिया. शिरवाडकर लिखित यह नाटक शेक्सपियर के किंग लियर पर आधारित था, पर उसकी नकल या अनुवाद नहीं था.

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रंगमंच पर ऊंचाई का मुकाम हासिल करने वाले एक बुजुर्ग अभिनेता अप्पासाहेब बेलवलकर के इर्दगिर्द यह कहानी लिखी गई है. शिरवाडकर के लिखे गए दीर्घ 'एकल संवाद' इस नाटक की एक विशेषता रहे हैं. डॉ. लागू के एकल संवाद, उनकी खास आवाज और सही समय पर लिए गए 'पॉज' के कारण लंबे समय तक याद किए जाएंगे. हिमालयाची सावली, काचेचा चंद, सूर्य पाहिलेला माणूस, गिधाडे  इन नाटकों ने उन्हें तथा उन्होंने इन नाटकों को उंचाई प्रदान की.

वी. शांताराम निर्देशित पिंजरा (1972) डॉ. लागू की पहली और बेहद कामयाब फिल्म थी. उनके अभिनय और शांताराम के निर्देशन ने इस फिल्म को एक 'कलाकृति' बना दिया. डॉ. लागू अभिनीत सामना और सिंहासन फिल्मों का शुमार राजनीति पर आधारित सर्वश्रेष्ठ मराठी फिल्मों में किया जाता है. सामना महाराष्ट्र की 'शुगर पोलिटिक्स' पर आधारित थी, जिसमें एक स्वतंत्रता सेनानी शोषण को चुनौती देता है. डॉ. लागू ने यह भूमिका की थी. सिंहासन बनी थी राजनीति के दांव-प्रतिदांव, उसके अंदरूनी प्रवाह पर. मराठी के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अरुण साधु के दो उपन्यासों पर बनी इन फिल्मों को डॉ. लागू की सहज और स्वाभाविक अदाकारी ने और भी विश्वसनीय बना दिया था.

समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें अभिनेता से ऊपर उठाकर एक समाजपुरुष बना दिया. अपने परिवार की चिंता किए बगैर समाज के लिए अनथक काम करने वाले समाजसेवकों को आर्थिक सहायता देने के लिए डॉ. लागू ने 'सामाजिक कृतज्ञता निधि' के तहत लाखों रुपए इकट्ठे किए और एक नया आदर्श स्थापित किया. विजय तेंडुलकर लिखित सखाराम बाइंडर, घासीराम कोतवाल जैसे नाटकों पर कुछ प्रतिक्रियावादी तत्वों ने हमला बोल दिया था. हालांकि, डॉ. लागू इन नाटकों में काम नहीं कर रहे थे, पर 'अभिव्यक्ति की आजादी' की इस लड़ाई की उन्होंने अगुआई की.

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डॉ. लागू ने 1991 में महाराष्ट्र टाइक्वस में परमेश्वराला रिटायर करा (ईश्वर को रिटायर्ड कर देना चाहिए) शीर्षक से एक लेख लिखा था. इसने उन्हें आलोचनाओं के केंद्र में ला खड़ा किया. महीनों तक बहस चलती रही. पर सामाजिक न्याय का पक्ष लेकर ईश्वर की कल्पना तक को चुनौती देने वाले डॉ. लागू अपनी बात पर अड़े रहे. अंत तक वे अपनी बात अपने तरीके से ही कहते रहे. 'डॉ. लागू' होने का मतलब शायद यही है.

श्रीकांत बोजेवार पटकथा लेखक और पत्रकार हैं

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