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बेखौफ और बेलाग अंदाज वाले सिद्धारमैया ने अब तक जो कुछ कहा दिल से कहा और कभी अपने जीवन की महत्वाकांक्षा नहीं छुपाई.
पिछले विधानसभा सत्र के दौरान जब भी सत्ताधारी बीजेपी के विधायक उनकी महत्वाकांक्षा का उपहास उड़ाते, तब विपक्ष के नेता रहे सिद्धारमैया इससे भड़क जाया करते थे और बिना किसी झिझक के घोषणा करते थे कि वे ही राज्य के मुख्यमंत्री बनेंगे.
कांग्रेस विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद उन्होंने अपनी बात सच भी साबित कर दी है. सिद्धारमैया की किस्मत ने भी उनका बखूबी साथ दिया. राज्य में पांच मई को हुए विधानसभा चुनाव में कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष जी परमेश्वर की हार ने उनकी राह को आसान कर दिया था.
वित्त मंत्री के तौर पर सात बार राज्य का बजट पेश कर चुके सिद्धारमैया की पार्टी विधायकों पर बहुत अच्छी पकड़ है. वरिष्ठ कांग्रेस नेता और केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री एम मल्लीकार्जुन खड़गे के साथ सीधी टक्कर होने की सूरत में वह उन्हें पछाड़ भी सकते थे.
साल 1996 में पार्टी नेता एच डी देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने के बाद वह राज्य के मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए. राज्य के तीसरे सबसे बड़े समुदाय कुरुबा से ताल्लुक रखने वाले सिद्धारमैया को पछाड़ कर जे एच पाटिल तब मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठे थे. सिद्धारमैया देवगौड़ा और पाटिल दोनों के ही शासनकाल में वित्त मंत्री रहे.
जनता दल के दो टुकड़े जेडीयू और जेडीएस में टूटने पर वे देवगौड़ा की नेतृत्व वाली जेडीएस के साथ गए और पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष बने.
डॉ. राम मनोहर लोहिया के समाजवादी विचारों से प्रभावित और ‘जनता परिवार’ के सदस्य रहे सिद्धारमैया ने वकालत के पेशे को छोड़कर राजनीति अपनायी थी. उन्होंने साल 1983 में पहली बार लोक दल के टिकट पर चामुंडेश्वरी विधानसभा सीट से जीत दर्ज की और बाद में जनता पार्टी में शामिल हो गए.
राज्य की आधिकारिक भाषा के रूप में कन्नड़ के उपयोग की निगरानी के लिए राम कृष्ण हेगड़े के मुख्यमंत्रित्व काल में बनी निगरानी समिति ‘कन्नड़ कवालू समिति’ के वह पहले अध्यक्ष थे.
दो साल बाद हुए मध्यावधि चुनाव में वह दोबारा निर्वाचित हुए और हेगड़े की सरकार में पशुपालन एवं पशु चिकित्सा मंत्री रहे.
दलितों के नेता के तौर पर खुद को स्थापित करने के लिए उन्होंने तीन बार ‘अहिंदा’ (अल्पसंख्यक, पिछड़ों और दलितों को परिभाषित करने वाला कन्नड़ शब्द) सम्मेलन का आयोजन किया. हालांकि साल 2005 में उन्हें जेडीएस से निकाल दिया गया. इस दौरान देवगौड़ा के बेटे एच डी कुमारस्वामी को पार्टी के उभरते हुए नेता के रूप में देखा जा रहा था.
जेडीएस के आलोचकों का कहना कि देवेगौड़ा अपने बेटे को आगे बढ़ाना चाहते थे और इस कारण उन्होंने सिद्धारमैया को बाहर किया था.
इसके बाद साल 2006 में सिद्धारमैया अपने समर्थकों के साथ कांग्रेस से जुड़ गए. दिसंबर 2़007 में मैसूर में चामुंडेश्वरी के उपचुनाव में उन्होंने एक बार फिर से जीत दर्ज की. वर्ष 2008 में हुए चुनाव में वह कांग्रेस की प्रचार समिति के अध्यक्ष रहे.
मैसूर जिले के सिद्धारमनहुंडी गांव में एक गरीब किसान के परिवार में 12 अगस्त, 1948 को सिद्धारमैया का जन्म हुआ था. उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय से स्नातक किया. उन्होंने यहीं से वकालत की डिग्री भी हासिल की और कुछ समय तक वकालत भी की.