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कश्मीर: जन्नत में सन्नाटा

मीडिया ने बाढ़ और पत्थरबाजी को लेकर जो खौफ पैदा किया है, उसके चलते इस बार की गर्मियों में घाटी से सैलानी दूर ही बने हुए हैं. यह कश्मीर का बड़ा नुक्सान है.

असित जॉली
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  • 01 जून 2015,
  • अपडेटेड 1:14 PM IST

उनके लिए समय ठहर गया है. श्रीनगर के लाल चौक पर स्थित एक छोटी-सी दुकान में 38 साल के मुजफ्फर जान दीवार पर टंगी उन घड़ियों को ताक रहे हैं जिनकी सुइयां बीते साल सितंबर की उस बाढ़ में जम गई थीं जिसमें तकरीबन पूरा श्रीनगर डूब गया था और वे मौत के मुंह से जिंदा निकल आए थे. उन्होंने बड़ी मुश्किल से कुछ घड़ियों को दुरुस्त किया और एक दुकान को दोबारा चालू करने के लिए स्थानीय सूदखोर से कर्ज लिया. दुकान तो खुल गई, लेकिन इन घड़ियों के खरीदार नदारद हैं. मई आधी बीत गई है लेकिन हर साल की तरह सैलानियों की आमद अब तक बस उम्मीद ही बनी हुई है. जान के चेहरे पर हताशा साफ  झलक रही है. उन्हें उम्मीद नहीं है कि वे अब परिवार का पेट भर पाएंगे और अपनी तीन बेटियों को दोबारा स्कूल भेज पाएंगे. ऊपर से सूदखोर को पैसे भी चुकाने के लिए कुछ जुगाड़ करना है. वे कहते हैं, “ऊपर वाला भी हमसे रूठ गया है.”

घाटी में गर्मी इस दफा नई तबाही लेकर आई है. इस बार आतंकवादी हिंसा या फौजी दमन का खतरा नहीं है. खतरा दोतरफा है. पहला खतरा उस सरकार की बेपरवाही से है जो अपने मकान, दुकान या दोनों को खो चुके हजारों लोगों को बाढ़ के आठ महीने बाद भी मुआवजा नहीं दे पाई है. दूसरा खतरा मीडिया की उन अतिरंजित रिपोर्टों से पैदा हुआ है जिनमें इस खूबसूरत घाटी को पाकिस्तान समर्थित प्रदर्शनों और पत्थरबाज गिरोहों के आतंक के साए में बताया जा रहा है.

2011 से 2014 के बीच सैलानियों का वार्षिक औसत 12 लाख का रहा था. इस बार इसके घटकर पांचवें हिस्से पर आ जाने का अनुमान लगाया गया है. एक होटल के मालिक और कश्मीर होटल्स ऐंड रेस्तरां एसोसिएशन (खारा) के सदस्य साजिद फारूक शाह कहते हैं, “कश्मीर अब राष्ट्रीय टेलीविजन पर महज ब्रेकिंग न्यूज बनकर रह गया है, जो नाइंसाफी है.” उनकी फिक्र है कि हुर्रियत नेता मसर्रत आलम के नेतृत्व में हुए विरोध प्रदर्शनों में पाकिस्तानी झंडे लहराए जाने और कुछ दिन बाद श्रीनगर की सड़कों पर हुर्रियत समर्थकों और पुलिस के बीच हुई झड़प की तस्वीरों ने सैलानियों को अब तक घाटी से दूर रखा है. फारूक कहते हैं कि मार्च में लाल चैक पर बारिश की वजह से जो पानी जमा हो गया था, उसे मीडिया ने गलत तरीके से “दूसरी बाढ़” का नाम दे दिया. इसके डर से भी सैलानियों ने बड़े पैमाने पर अपनी यात्राएं टाल दीं.

टूरिस्ट सीजन से पहले होटल मालिकों और दुकानदारों ने जल्दबाजी में जो दुरुस्तगी और रंगरोगन का काम करवाया है, उसमें भी सितंबर की बाढ़ के निशान दिख ही जाते हैं. श्रीनगर में टूर ऐंड ट्रैवल का कारोबार करने वाले निसार शाह कहते हैं, “इनके जीने का यही सहारा है.” वे बताते हैं कि घाटी के एक-तिहाई बाशिंदे पर्यटन पर ही आश्रित हैं जिससे सबसे ज्यादा कमाई अप्रैल से जून में होती है. निसार बताते हैं कि बाढ़ और उससे हुए नुक्सान की भरपाई करने के लिए आंशिक मुआवजे की रकम केंद्रीय अनुदान से देर से जारी होने से लोगों की हालत खस्ता है. कल्चर ऐंड नेचुरल एक्सपेडिशन नाम से उनका अपना कारोबार मंदा चल रहा है और मई 2014 तक किए काम के मुकाबले कमाई 75 फीसदी नीचे आ गई है.

श्रीनगर की बुलवर्ड रोड के किनारे गर्मियों की एक शाम खड़े होने का जिसे भी अनुभव है, वह वहां सैलानियों के वाहनों और भीड़ से लगने वाले जाम से वाकिफ  होगा. पर इन गर्मियों में यहां का मंजर बिल्कुल अलग हैः तमाम शिकारे वाले खाली हैं और डल झील में एक घंटा घूमने के बदले सरकार के तय किए 500 रु. से आधी दर पर आपको ले जाने को तैयार हैं. हाउसबोट भी बेहद सस्ते में चल रही हैं. सूरज डूबने के बाद आज से साल भर पहले इन पर जो रोशनियों की जगमगाहट हुआ करती थी, आज वहां बस अंधेरे और सन्नाटा है. शायद ही कोई इन हाउसबोटों में इस बार रुका हो.

दो कमरे की हाउसबोट अलेक्जेंड्रा से होने वाली कमाई को चार परिवारों के साथ साझा करने वाले हनीफ  मोहम्मद कहते हैं, “पिछले दो महीने में सिर्फ चार दिन ग्राहक आए हैं.” इस सीजन में आम तौर से रोजाना इन्हें कुल 14,000 रु. की कमाई होती थी पर इस बार 10,000 रु. की ही कमाई हुई है. यह पैसा हाउसबोट का मासिक बिजली बिल भरने के लिए भी काफी नहीं है.

शिराज नाम की हाउसबोट भी खाली पड़ी है. इसके मालिक गुलाम शेख मुस्कराते हुए कहते हैं, “धंधा नहीं है, सर.” विदेशी ग्राहकों से इतने बरसों के दौरान लगातार हुए संवाद की वजह से 64 साल के शेख पर्याप्त अंग्रेजी बोल लेते हैं. वे बताते हैं कि उन्हें अपने पोते-पोतियों को स्कूल से निकालने पर मजबूर होना पड़ेगा. उनके शब्दों में, “वे ड्रॉपआउट रहकर ही बड़े होंगे.” वे याद करते हैं कि कैसे 1965 में पाकिस्तान के साथ जंग छिड़ने के बाद स्कूल बंद हो गए और उन्होंने भी पलटकर कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा.

बड़ी मछलियां भी इस बदकिस्मती से नहीं बच पाई हैं. अप्रैल में गुड फ्राइडे-ईस्टर के वीकेंड में हुई दो दिन की बारिश की वजह से घाटी में 70 फीसदी होटल बुकिंग रद्द हो गई. यहां तक कि पांच सितारा ललित ग्रैंड पैलेस, जो कभी महाराज हरि सिंह का महल हुआ करता था, वहां भी 40 फीसदी अग्रिम बुकिंग रद्द हो गई.

इसी दौरान 24 घंटे चलने वाले टीवी चैनलों ने श्रीनगर की दूसरी बाढ़ की मुनादी कर दी थी जबकि महीने भर पुरानी मुक्रती मोहम्मद सईद सरकार ने बाढ़ की चेतावनी जारी कर के स्थिति को विकट बना डाला. बुलवर्ड में 40 साल पुराने होटल शहंशाह के मालिक जहूर ट्राम्वबू कहते हैं, “ ”हालात को पूरी तरह गलत तरीके से दिखाया गया. बारिश का पानी इसलिए ठहर गया क्योंकि नालियां अब भी सितंबर की बाढ़ में आई गाद और मिट्टी से जमी हुई थीं.” झेलम के बांध में कोई दरार नहीं आई थी.

माहौल हालांकि पहले ही काफी हद तक खराब हो चुका है. बुलवर्ड के पार 18 होल वाले भव्य गोल्फ कोर्स रॉयल स्प्रिंग्स में आपको सिर्फ  स्थानीय कारोबारी, अवकाश प्राप्त और सेवारत अफसरशाह और पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला जैसे एकाध नेता दिख जाएंगे. यहां 15 में से सिर्फ दो सुइट भरे हुए हैं. क्लब की सचिव नुजहत गुल यहां बड़े गोल्फरों और कॉर्पोरेट सैलानियों के न आने से कुछ परेशान हैं. वे लगातार कोशिश कर रही हैं कि राज्य पर्यटन विभाग को इन गर्मियों में “मुफ्त गोल्फिंग” की घोषणा करने के लिए राजी कर लिया जाए. उन्हें पता है कि पर्यटन का एक खराब सीजन बाढ़ से आहत कश्मीरियों के लिए क्या मायने रख सकता है. वे कहती हैं, “हमें उन्हें (पर्यटकों को) यहां किसी भी कीमत पर लाना ही होगा.”
राजधानी के बाहर भी इस बार तस्वीर कुछ अलग नहीं है. श्रीनगर के बाहर आठ किलोमीटर तक निर्माणाधीन सड़क को छोड़ दें तो नरबल के बाद गुलमर्ग तक 48 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय राजमार्ग पर सन्नाटा पसरा है. तंगमर्ग के बाद जहां पहाड़ों पर चढ़ाई शुरू होती है, वहां वाहनों के रेले की उम्मीद थी लेकिन बमुश्किल एकाध टैक्सी ही सैलानियों को ले जाती हुई दिखी. गुलमर्ग में हालत यह है कि सैलानियों से कहीं ज्यादा निठल्ले खड़े टट्टू वाले दिखते हैं.

41 वर्षीय अब्दुल गनी डार अपने गांव फजीपुर से गुलमर्ग के बीच रोजाना 15 किमी की दूरी खच्चर के साथ अप्रैल की शुरुआत से इस उम्मीद में नाप रहे हैं कि कुछ कमाई होगी. वे कहते हैं, “यह साल बहुत खराब रहा है.” इस सीजन में खिलनमर्ग तक सैलानियों को लेकर वे बमुश्किल दो चक्कर लगा सके हैं जहां बर्फ दिखती है. साल भर डार की कमाई का इकलौता स्रोत पर्यटन ही है. वे पढ़े-लिखे नहीं हैं फिर भी सैलानियों की गैर-मौजूदगी का दोष ज्यादातर टीवी पर ही मढ़ते हैं. उनके शब्दों में, “वे दिखाते हैं कि कश्मीर में सिर्फ  बाढ़ और पत्थरबाजी होती है. यहां से दूर रहने के लिए आप सैलानियों को कैसे दोष दे सकते हैं?” डार की तरह ही बदकिस्मत यहां पांच हजार टट्टू वाले हैं जो हर गर्मी में गुलमर्ग चले आते हैं.

ऐसा नहीं है कि राज्य सरकार ने अपनी ओर से कदम नहीं उठाए. पर्यटन विभाग मुख्यमंत्री सईद के पास ही है और उन्हें पता है कि घरेलू सैलानियों का कश्मीर में भरोसा लगातार कम हो रहा है. यही वजह है कि अप्रैल से ही उन्होंने “कश्मीर कॉलिंग” अभियान शुरू कर के मुंबई, अहमदाबाद और दिल्ली जाकर लोगों से मुलाकातें की हैं. मुंबई में तो वे कुछ बॉलीवुड सितारों से भी मिले थे जिनमें शाहरुख खान, सलमान खान, अनुपम खेर और विधु विनोद चोपड़ा शामिल थे. उन्होंने इनसे घाटी में लौटने को कहा था. सईद घाटी में सुरक्षा बलों की संख्या को कम करने की भी बात कर रहे हैं जिनकी बंदूकों के साए में यहां का माहौल आतंकी एहसास देता है. उनकी योजना कम लागत वाले चार्टर्ड विमान शुरू करने की भी है और श्रीनगर के हवाई अड्डे को वे रात में भी खोलने पर विचार कर रहे हैं. इसके अलावा कई अन्य उपाए भी किए जाएंगे, जिनमें सैलानियों को जुलाई के बाद रियायत देने की योजना शामिल है ताकि पर्यटन का सीजन लंबा हो सके और आमदनी में सुधार हो सके.

इंडिया टुडे ने 11 मई को शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस सेंटर (एसकेआइसीसी) में करीब 39 हितधारकों के एक समूह से मुलाकात की जिनमें व्यापारी, होटल मालिक, ट्रैवल एजेंट, हाउसबोट मालिक इत्यादि शामिल थे. इन सबका इस बात पर जोर था कि मुख्यमंत्री के समाधान न सिर्फ विलंबित हैं बल्कि इनका कोई खास असर भी नहीं होगा. ट्रैवल एजेंट्स एसोसिएशन ऑफ  कश्मीर के प्रमुख पीरजादा फैयाज कहते हैं, “आधे से ज्यादा सीजन तो पहले ही खत्म हो चुका है.”

इससे ज्यादा गंभीर बात यह है कि आम लोग आगामी मॉनसून में झेलम के अपने तटबंध तोडऩे की फिर से आशंका जता रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि इस खतरे से निबटने के लिए सरकारी प्रयास पूरी तरह नदारद रहे हैं. राज्य सरकार के एक इंजीनियर ने बताया कि कई साल तक गाद जमा होने की वजह से झेलम के अधिकतर कलर्ड चैनल बाधित हो गए हैं जिसकी वजह से श्रीनगर के कई रिहाइशी इलाकों के मुकाबले नदी तीन से छह फुट ऊपर बहती है. वे कहते हैं, “मामूली बारिश भी नदी को खतरे के निशान के करीब ला देती है. मैं तो यह सोचना ही नहीं चाहता कि लगातार बारिश होने पर यहां का क्या होगा.”

बुनियादी ढांचे को दोबारा खड़ा करने और लोगों को मुआवजा देने के लिए दिल्ली से आने वाले फंड का इंतजार है, हालांकि बाढ़ को आठ महीने बीत गए लेकिन कुछ भी नजर नहीं आ रहा. सईद कहते हैं कि उन्हें कोई जल्दी नहीं है. उन्होंने चश्म-ए-शाही स्थित नेहरू गेस्ट हाउस में 10 मई को संपादकों और संवाददाताओं से कहा, “पैसा तो आएगा लेकिन उसकी एक प्रक्रिया है जिसे अपनाया जाना होता है और उसमें वक्त लगता है.” वरिष्ठ अफसरशाह मानते हैं कि लोगों में फैली हताशा बड़ी आसानी से गुस्से में तब्दील हो सकती है, लेकिन वे इस बात पर भी जोर देते हैं कि कामों में हो रही देरी परिस्थितियों का नतीजा है. वे उन तीन महीनों की ओर संकेत करते हैं जिस दौरान सईद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पीडीपी और बीजेपी के गठजोड़ को तैयार करने में लगे रहे और शांतिपूर्ण चुनाव करवाने के लिए पाकिस्तान और आतंकियों को सईद के जताए गए आभार पर उठे विवाद की ओर भी संकेत करते हैं जिससे बचा जा सकता था और फिर मसर्रत आलम का अध्याय आ गया.

(-साथ में नसीर गनाई)

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