
इक्कीस वर्षीया खुशी सोचती है कि उसका नाम ही उसके साथ किया गया सबसे क्रूर मजाक है. दिल्ली में छठी क्लास में पढ़ाई छोड़ चुकी और अपने आठ लोगों के परिवार में सबसे बड़ी खुशी ने 15 साल की उम्र से ही ‘‘इवेंट शो’’ और म्युजिक वीडियो में परफॉर्म करना शुरू कर दिया था. उसे ऐसा करना पड़ा क्योंकि उसके ऑटो ड्राइवर पिता बहुत कम कमाते थे और उससे भी कम अपने परिवार के लिए खर्च करते थे.
उसका काम बहुत ‘‘साधारण’’ था. पार्टियों में डांस करना और कभी-कभी ड्रिंक भी सर्व करना. ऐसी पार्टियों में आने वाले लोग ज्यादातर सभ्य होते थे और इससे होने वाली कमाई उसके लिए इतनी ही थी कि अपने छोटे-भाई बहनों को वह ‘‘अंग्रेजी मीडियम’’ स्कूल में पढ़ा सके. वे बिहार में सोनपुर मेले की पागल कर देने वाली भीड़ से काफी दूर अपनी पढ़ाई कर रहे थे और इन परिस्थितियों से अनजान थे कि उनकी बहन को हर दिन कैसे-कैसे समझौते करने पड़ते हैं.
2010 में खुशी की शादी के बाद से ही स्थिति और बदतर हो गई, अब उसे दो परिवारों की देखभाल करनी थी. उसका पति (वह भी ऑटो ड्राइवर है) चाहता था कि पिछले साल उनके बेटे के जन्म के बाद खुशी फिर से कमाई शुरू करे. खुशी ‘‘कुछ बेहतर’’ की तलाश में थी, तभी उसके एक जानने वाले ने उसे लड़कियों के एक समूह से मिलाया जो बिहार में सोनपुर जा रही थीं. दिल्ली की यह लड़की सोनपुर पहुंची और वहां गुलाब विकास थिएटर के लिए परफॉर्म करने लगी. वहां उसे दिन भर में तीन बार अश्लील भोजपुरी गानों पर लोगों को उकसाते हुए ठुमके लगाने पड़ते और इसके लिए उसे एक दिन के 800 रु. मिलते.
खुशी ने बताया, ‘‘परिवार में किसी को तो कुर्बानी देनी थी. तो मैंने दी. मैं भोजपुरी गानों को नहीं समझती. सच तो यह है कि मैं इसकी परवाह नहीं करती. भद्दी टिप्पणियां, गंदी नजरें, अश्लील पेशकश, इन सबके लिए मेरी चमड़ी काफी मोटी हो गई है, जब तक कि इससे मेरे नवजात बच्चे का पेट भरने में मदद मिलती है.’’ थिएटरों में नाचने वाली खुशी अकेली युवा मां नहीं है. यहां ऐसी कई मांएं हैं. अकेले गुलाब विकास थिएटर में, जिसमें 150 लड़कियां काम करती हैं, कम से कम एक-चौथाई विवाहित हैं. इस हफ्ते खत्म हुए सोनपुर मेले में ऐसे सात थिएटर आए थे.
20 वर्षीया मंती दत्या भी बिहार में पहली बार आई हैं. मंती ने अपनी एक साल की बेटी को कोलकाता में अपनी मां के पास छोड़ रखा है. उसका इलेक्ट्रिशियन पति छह महीने पहले मुंबई गया था और तब से ही उसने पैसा भेजना बिलकुल बंद कर दिया है. उसके बाद से उसका अपने पति से कोई संपर्क भी नहीं हो पाया है.
मंती के लिए भी यहां आने की एकमात्र वजह परिवार ही है, ‘‘मैं मां भी हूं, बाप भी, क्या करूं. भला कौन यह ओछा, अमानवीय और नीच काम करना चाहता है? मुझे इसका कोई पछतावा नहीं है.’’ एक ऐसी लड़की के रूप में वे जो टूटी-फूटी हिंदी बोलती हो और निश्चित रूप से भोजपुरी जरा भी न समझती हो, अपनी अदाओं से सबको चकित कर देती हैं. वे कहती हैं, ‘‘जब मैं बेकाबू भीड़ के सामने परफॉर्म करती हूं तो जरा भी नर्वस नहीं होती.’’ वे अपनी भावहीनता से अपने कष्ट को छिपाना चाहती हैं, अगर उनकी आंखों में गहराई तक देखें तो आपको चमचमाते मस्कारा के नीचे नमी जरुर दिख जाएंगी.
खुशी, मंती और उनके जैसी सैकड़ों युवतियां साल में इस समय करीब एक महीने तक चलने वाले सोनपुर मेले में अपने डांस का प्रदर्शन करने आती हैं. यह मेला गंगा और गंडक नदी के संगम पर आयोजित होता है.
उन्हें मिलने वाला मेहनताना अलग-अलग होता है-यह इन लड़कियों के रूप-रंग, ठुमका लगाने के उनके कौशल, कुछ अतिरिक्त करने की इच्छा और इन सबसे ऊपर उनकी मजबूरी पर निर्भर करता है. शुरुआत में रोजाना 800 रु. मिलते हैं, जो बढ़ते हुए 1,500 रु. तक जा सकते हैं. लड़कियां बिहार आने को इसलिए राजी हो जाती हैं क्योंकि यह मेला उन कुछ मौकों में से है जहां महीने भर आमदनी की गारंटी होती है. मेले तक आने-जाने और रहने-खाने की व्यवस्था मुफ्त में की जाती है. इस कारोबार में छल-कपट आम नौकरियों के बाजार की तरह ही है. अलीगढ़ से आने वाले और एक ग्रुप के प्रमुख इरशाद ने बताया, ‘‘अगर काम के लिए बेकरार दिख रहे हैं तो आपको कम पैसे मिलेंगे.’’ इरशाद के ग्रुप में दिल्ली की चार लड़कियां हैं.
सोनपुर मेला बड़े पैमाने पर पशुओं की खरीद-फरोख्त के लिए प्रसिद्ध है. लेकिन इसे अब इससे भी ज्यादा थिएटरों के फूहड़ कैबरे जैसे डांस के लिए जाना जाता है. टिकटों के लिए लगने वाली लंबी लाइन को अगर कोई संकेत मानें तो इन थिएटरों के मालिक अच्छी कमाई कर रहे हैं. सबसे आगे की पंक्ति का टिकट 500 से 750 रु. तक का होता है. डांस स्टेज से दूरी जैसे-जैसे बढ़ती है, टिकट के दाम घटते जाते हैं यानी जो जितनी दूर बैठेगा, उसको उतनी कम कीमत चुकानी पड़ेगी.
ऐसे ही खिली धूप वाली जाड़े की एक दोपहर, जब अपने थिएटरों का लाइसेंस रद्द करने के विरोध में प्रदर्शन करने 150 लड़कियां पटना पहुंचीं तो हमने उनसे मुलाकात की और यह पाया कि अपने धुंधले लक्ष्यों के झुरमुट के बावजूद सोनपुर के थिएटरों में डांस करने वाली ये लड़कियां काफी अलग हैं. उनमें से कई यहां इसलिए आई हैं क्योंकि उन्हें अब कोई उम्मीद नहीं है, जबकि कई ने अभी उम्मीद करनी शुरू ही की है. इनमें से हर लड़की के लिए यहां रहने की अलग-अलग वजहें हैं.
ये लड़कियां एक-दूसरे को पहले से नहीं जानतीं-सच तो यह है कि इनमें से कई पहली बार बिहार आई हैं-लेकिन ऐसा लगता है कि जीवन की लंबी तनी डोर ने उन सबको एक गांठ में बांध रखा है क्योंकि ये सभी कमोबेश एक ही तरह का जीवन जी रही हैं और अपने परिवार के लिए कमाने का उन पर एक जैसा ही दबाव है.
17 वर्षीया अमृता झा ने अपने जीवन के कठिन दौर का खाका पेश किया. वह अपने परिवार का विवरण नहीं बताना चाहती, लेकिन यह जिंदादिल युवा लड़की अब अपने जीवन में टुकड़े-टुकड़े में ही सही, शांतिपूर्ण तरीके से मिलने वाली खुशी का आनंद ले रही है. दिल्ली की यह युवती सोचती है कि उसे 11 वर्ष बड़े पति अजय राज का मिलना ही उसके जीवन की सबसे अच्छी घटना है. वह शायद खुद से ही वादा करती है, ‘‘हम आने वाले समय में कुछ अच्छा करेंगे.’’ दोपहर के साढ़े बारह बज चुके हैं और अजय राज शराब के नशे में है. टूटी-फूटी अंग्रेजी में बात करते हुए अजय बताता है कि वह एक फिल्म डायरेक्टर और स्क्रिप्ट राइटर बनने की कोशिश कर रहा है. उसे मौके का इंतजार है. जब तक उसे कोई बड़ा ब्रेक नहीं मिल जाता, उसकी युवा पत्नी को परिवार चलाने (और निश्चित रूप से उसके शौक पूरे करने के लिए) के लिए थिएटर और अन्य ‘‘म्युजिक वीडियो’’ में काम करना पड़ेगा.
सोनपुर के लिए इन 500 अलग तरह की लड़कियों का रूप-रंग ही उनकी पहचान है, जो कि उनके खुले बालों, भड़कीले मेकअप, गहरे लाल रंग की नेलपॉलिश और चेहरे पर क्रीम की मोटी परत से दिख जाता है.
सोनपुर के किसी थिएटर में काम के घंटे शाम चार बजे से शुरू होते हैं, जब जाड़े के मौसम में बाकी दुनिया अपना काम समेटने की तैयारी कर रही होती है. शो सीधे-सादे देशभक्ति के गानों और कॉमेडी रचनाओं से शुरू होता है, जिसके बाद ग्रुप डांस का प्रदर्शन होता है. चमड़ी दिखाने का असल खेल तब शुरू होता है, जब रात का अंधेरा गहराता है. तीन घंटे के चौथे शो के खत्म होने के बाद अगले दिन तड़के चार बजे परदा गिर जाता है. लड़कियां सोने चली जाती हैं और सूरज अगले दिन के लिए उग आता है, शायद यह उनके दुर्भाग्यपूर्ण करियर की याद दिलाने का ही एक प्रतीक है.
अब सोनपुर का मेला खत्म हो चुका है, लड़कियां बाकी दुनिया के साथ ही अपने कदम मिलाने की उम्मीद कर रही हैं. बड़ा सवाल यह है कि क्या किसी दिन उनकी दुनिया भी और लोगों से मिलती-जुलती होगी.