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2019 में मोदी-शाह के सपनों पर ग्रहण न बन जाए सपा-बसपा का गठबंधन?

अगर माया-अखिलेश का गठबंधन 2019 में बीजेपी के खिलाफ मैदान में उतरा तो 2019 में बीजेपी के लिए सूबे में 2014 जैसे नतीजे दोहराना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हो जाएगा.

मायावती और अखिलेश यादव मायावती और अखिलेश यादव
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली,
  • 26 मार्च 2018,
  • अपडेटेड 3:24 PM IST

कहा जाता है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है. 2019 में विपक्ष खासकर मायावती और अखिलेश यादव जैसे यूपी के दो बड़े क्षत्रप बीजेपी और पीएम नरेंद्र मोदी के लिए इसी रास्ते को बंद करने की कोशिश में हैं. दोनों दल मोदी और अमित शाह के विजय रथ को रोकने के लिए एक साथ आ गए हैं. राज्यसभा चुनावों में बीएसपी उम्मीदवार की हार से भी इनके हौसले पस्त नहीं हुए हैं और बीजेपी के लिए ये चिंता बढ़ाने की बात है क्योंकि अगर माया-अखिलेश का गठबंधन 2019 में बीजेपी के खिलाफ मैदान में उतरा तो 2019 में बीजेपी के लिए सूबे में 2014 जैसे नतीजे दोहराना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन हो जाएगा.

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यूपी तय करता है दिल्ली का रास्ता

जब ये कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है तो उसके पीछे देश का राजनीतिक इतिहास है. यूपी ने अब तक सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री दिए हैं. प्रदेश में 80 लोकसभा सीटें हैं. यानी केंद्र में सरकार बनाने के लिए जितनी सीटें चाहिए उसकी करीब एक तिहाई. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी गठबंधन ने 73 सीटें जीती थीं, तभी उसका मिशन 272 प्लस कामयाब हो पाया था. उन चुनावों में बसपा का खाता भी नहीं खुला था. कांग्रेस रायबरेली और अमेठी तक सीमित हो गई थी. जबकि सपा सिर्फ अपने परिवार की पांच सीटें जीत सकी थी. लेकिन ये नतीजे तब हैं जब सपा, बसपा और कांग्रेस बीजेपी के खिलाफ अलग-अलग मैदान में थे. हाल ही में हुए गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में जब सपा और बसपा साथ आए तो बीजेपी अपनी 2 सीटें हार गई.

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दूसरी बार सपा-बसपा का गठबंधन

गोरखपुर और फूलपुर में हुए प्रयोग के नतीजों ने सपा-बसपा को उम्मीद से भर दिया है. पहली बार 1993 में राममंदिर आंदोलन के दौर में बीजेपी की लहर को रोकने के लिए कांशीराम और मुलायम सिंह ने हाथ मिलाया था. इसका असर था कि बीजेपी सूबे की सत्ता में नहीं आ सकी थी. अब दोबारा 25 साल बाद फिर सपा-बसपा गठबंधन को तैयार हैं. इस बार निशाने पर राज्य की नहीं बल्कि केंद्र की मोदी सरकार है.

सपा-बसपा का मूलवोट 52 फीसदी

सपा-बसपा के साथ आने से बीजेपी की राह 2019 में काफी मुश्किल हो जाएगी. सूबे में दोनों दलों का मजबूत वोट बैंक है. सूबे में 12 फीसदी यादव, 22 फीसदी दलित और 18 फीसदी मुस्लिम हैं. इन तीनों वर्गों पर सपा-बसपा की मजबूत पकड़ है और इन्हें मिलाकर करीब 52 फीसदी होता है. यानी प्रदेश के आधे वोटर सीधे-सीधे सपा और बसपा के प्रभाव क्षेत्र वाले हैं. इनके अलावा बाकी ओबीसी समुदाय का वोट भी इन दोनों दलों के खाते में जा सकता है. ऐसे में बीजेपी के लिए 2014 के चुनाव नतीजे दोहराना मुश्किल होगा.

2014 में 42.30 फीसदी वोट थे बीजेपी के

2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 42.30 फीसदी वोट मिले थे. इनके दम पर बीजेपी ने 71 सीटों पर जीत हासिल की. वहीं सपा-बसपा को कुल मिलाकर 41.80 फीसदी वोट मिले थे. कांग्रेस को तब 7.5 फीसदी वोट मिले थे. यानी अगर सपा, बसपा और कांग्रेस 2019 में साथ चुनाव लड़े और 2014 की मोदी लहर जैसी वोटिंग ही हुई तो भी बीजेपी विपक्षी दलों के मुकाबले पीछे रहेगी, 73 सीटें जीतना तो दूर की बात है.

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अगर इस महागठबंधन में आरएलडी जैसी छोटी पार्टियां भी साथ जुड़ गईं तो बीजेपी के लिए यूपी एक बुरा सपना साबित हो सकता है. वहीं अगर केवल सपा-बसपा ही साथ चुनाव लड़ीं तो बीजेपी को अपनी पिछली जीती सीटों में से तकरीबन आधी से हाथ धोना पड़ेगा. कहने की जरूरत नहीं है कि तब बीजेपी के यूपी में 2019 में 80 सीट जीतने के मिशन का क्या हश्र होगा.

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