महाभारत में जो स्थिति द्रौपदी की थी वही हालत मेरी थी. पीडीपी का मध्यस्थ तो सिर्फ एक व्यक्ति को रिपोर्ट करता था, लेकिन मुझे पार्टी, संघ और अन्य नेताओं को रिपोर्ट करना पड़ता था.’’ जम्मू-कश्मीर में सरकार बनने के बाद बीजेपी के मुख्य वार्ताकार और राष्ट्रीय महासचिव राम माधव ने अपने कुछ चाहने वालों के साथ हल्के-फुल्के अंदाज में जब यह बात कही तो शायद ही किसी को अनुमान रहा होगा कि हफ्ते भर में ही भगवा परिवार भी उसी पौराणिक कथा के पात्र की तरह असमंजस में फंस जाएगा.
1 मार्च को शपथ लेने के बाद महज सात दिन में मुफ्ती मोहम्मद सईद की सरकार ने विवादों की हैट्रिक लगाकर बीजेपी और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार की पेशानी पर बल ला दिए. नौबत यहां तक आ गई कि संसद के दोनों सदनों में जब विपक्ष ने मोदी सरकार को घेरा तो खुद प्रधानमंत्री मोदी को दो बार सफाई देने के लिए उठना पड़ा. गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने दोटूक संदेश दिया कि अगर मुफ्ती सरकार एजेंडे से भटकी तो बीजेपी गठबंधन तोड़ने जैसे कदम भी उठा सकती है.
सवाल यह है कि जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सपनों को साकार करने का दंभ भरने वाली बीजेपी आखिर हफ्ते भर में ही हलकान क्यों नजर आ रही है, जबकि सरकार गठन को लेकर पीडीपी के साथ हर मुद्दे पर उसकी दो महीने तक गहन मंत्रणा चली थी. उसमें विवादास्पद मुद्दों को किनारे कर सिर्फ सरकार चलाने का एक एजेंडा बनाया गया, लेकिन मुफ्ती सरकार ने शपथ ग्रहण के फौरन बाद राज्य में बेहतर चुनाव का श्रेय पड़ोसी देश पाकिस्तान, आतंकवादियों और हुर्रियत जैसे अलगाववादी संगठनों को दिया, तो तीसरे दिन पीडीपी के विधायकों ने एक साझा मांग पत्र रखते हुए संसद पर हमले के मामले में फांसी पा चुके अफजल के शव के अवशेष परिजनों को सौंपने की मांग की. और फिर रही-सही कसर अलगाववादी और नागरिक सुरक्षा कानून समेत 27 गंभीर मामलों में जेल में बंद मसर्रत आलम की रिहाई ने पूरी कर दी. मुफ्ती सरकार के ये ताबड़तोड़ फैसले ठीक उसी तरह थे जैसे पिछले साल कांग्रेस के परोक्ष समर्थन से दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद अरविंद केजरीवाल की सरकार ने किए थे. पीडीपी ने अपने वोट बैंक को ट्वेंटी-ट्वेंटी के मैच के अंदाज में संदेश देने की कोशिश की तो दूसरी तरफ बीजेपी टेस्ट मैच खेलती नजर आई. मुफ्ती के इस अंदाज पर एक वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री कहते हैं, ‘‘अगर मुफ्ती चालाकी भरे कदम उठा रहे हैं तो फिर हमें भी पुनर्विचार के लिए मजबूर होना पड़ेगा, क्योंकि सिर्फ सत्ता के लिए बीजेपी कोई आत्मघाती कदम नहीं उठाएगी.’’
संघ बेचैन, बीजेपी हरकत में
मुफ्ती सरकार के फैसले से जब देश भर में फजीहत होने लगी तो संघ की बेचैनी बढ़ी और उसे अपनी राष्ट्रवादी छवि की चिंता सताने लगी. जम्मू-कश्मीर में सरकार गठन में अहम भूमिका निभाने में उसके प्रचारक और बीजेपी के मौजूदा महासचिव राम माधव की भूमिका अहम थी. संघ की ओर से सह सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल ने बीजेपी से अपनी चिंता जाहिर की, जिसके बाद पार्टी के शीर्ष नेताओं की अनौपचारिक बैठक बुलाई गई और पूरे मसले पर विचार किया गया. इस बैठक में राज्य में गठबंधन की सरकार के भविष्य का फैसला लेने का मामला प्रधानमंत्री मोदी पर छोड़ दिया गया, तो दूसरी तरफ दबाव बनाने के लिए बीजेपी ने अपने मंत्रियों के इस्तीफे तक के संकेत दिए. बीजेपी की झुंझलाहट किस कदर थी, इसका अंदाजा प्रधानमंत्री मोदी के लोकसभा में दिए गए बयान से भी लगता है, जब विपक्ष के हमलों से क्षुब्ध प्रधानमंत्री ने कड़ी टिप्पणी की थी, ‘‘मुझे किसी से देशभक्ति सीखने की जरूरत नहीं है. संविधान की मर्यादा के भीतर जो भी सही होगा, कदम उठाया जाएगा.’’
खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने मुख्यमंत्री सईद से बातचीत कर न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत आगे बढ़ने की नसीहत दी. दबाव कुछ हद तक काम आया और मुफ्ती सरकार ने अपनी ओर से किसी भी तरह के राजनैतिक बंदियों को छोड़ने के फैसले पर रोक लगा दी. लेकिन संघ इससे संतुष्ट नहीं है. संघ की नागपुर में होने वाली अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की अहम बैठक में इस तरह का प्रस्ताव लाया जा सकता है जिससे संघ जम्मू-कश्मीर से सरकार गठन के मामले में खुद को अलग दिखाने की कोशिश करेगा. वह इस बात को लेकर ज्यादा संजीदा है कि जिस तरह एक देश में दो निशान, दो विधान, दो प्रधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे का नारा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बुलंद किया था, उसी के खिलाफ बीजेपी ने समझौता कर लिया. शपथ ग्रहण समारोह के मंच पर भारत का तिरंगा और कश्मीर का अपना झंडा फोकस कर लगाया गया था.
हालांकि पूरे मसले पर संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य इंडिया टुडे से कहते हैं, ‘‘बीजेपी ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया था, इसलिए पार्टी से ही इस मसले पर पूछा जाना चाहिए.’’ लेकिन कश्मीर में सरकार के गठन पर संघ की सहमति ली गई थी या नहीं, इस पर वैद्य कहते हैं, ‘‘हमारी ओर से प्रतिनिधि सभा की बैठक के बाद सरकार्यवाह सभी सवालों को जवाब देंगे.’’ संघ के रुख से साफ है कि वह पूरे मसले पर मूकदर्शक बनकर नहीं रहेगा और एक स्पष्ट रुख लेकर बीजेपी को विचारधारा के मुद्दे पर समझौता नहीं करने का इशारा करेगा. संघ के विचारक इंद्रेश कुमार ने जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने के लिए पीडीपी-बीजेपी का समझौता तय होने से पहले ही कहा था, ‘‘अनुच्छेद 370 और अफस्पा के मुद्दे पर संघ चाहता है कि बीजेपी कोई समझौता न करे. एक ही देश में कश्मीर में अलग संविधान, अलग झंडा क्यों है?’’
हालांकि फिलहाल पीडीपी से रिश्ता तोड़ना बीजेपी के लिए मुश्किलें पैदा कर सकता है और अपने वोट बैंक को संदेश दे चुकी पीडीपी को फायदा हो सकता है. इसलिए संघ और पार्टी की सोच है कि पीडीपी की हरकतों पर निगाह रखनी चाहिए और उसके बाद मुफ्ती सरकार कोई भी ऐसा फैसला करती है जो संघ-बीजेपी की विचारधारा पर असर डालता है तो पार्टी समर्थन वापसी में देरी न करे. लेकिन पार्टी इसे शहादत के तौर पर पेश करना चाहती है और यह संदेश देना चाहती है कि उसने विकास के मुद्दे पर बेमेल विचारधारा वालों के साथ भी गठबंधन किया, लेकिन अलगवावादी ताकतों को समर्थन देने वालों ने इसे कबूल नहीं किया.
बीजेपी का द्बंद्ब और दो धडे
जब मुफ्ती मोहम्मद सईद ने शपथ ग्रहण से पहले प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात करने के बाद कहा था कि यह दो विपरीत ध्रुवों का मिलन है जो राज्य की अवाम के हित में है, तब बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता की टिप्पणी थी, ‘‘दोनों ध्रुव वास्तविकता में कभी नहीं मिल सकते. जिस दिन ऐसा हो गया उस दिन धरती पर प्रलय आ जाएगा.’’ अब जब मुफ्ती सरकार अपने कोर एजेंडे पर आगे बढ़ने लगी है तो बीजेपी भी दो धड़े में बंटी दिख रही है. गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में बयान देने से पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत समेत तीनों वरिष्ठ पदाधिकारियों से बात की. सूत्रों के मुताबिक, खुद राजनाथ राजनैतिक तौर पर पीडीपी के साथ सरकार बनाने के पक्ष में नहीं थे, जबकि परदे के पीछे वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस सरकार के गठन में अहम भूमिका निभाई. यही वजह है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उनसे शपथ ग्रहण में चलने का न्योता दिया पर राजनाथ नहीं गए. अब यह भी कहा जा रहा है कि संघ को भरोसे में लेकर ही राजनाथ ने बेबाकी के साथ संसद में कह दिया कि देश की एकता-अखंडता के साथ खिलवाड़ की इजाजत नहीं दी जा सकती. इसके लिए वे सब कुछ न्योछावर करने से भी पीछे नहीं हटेंगे. जबकि मोदी समर्थक धड़े का, जो पीडीपी के साथ सरकार बनाने में अहम भूमिका निभा रहा था, मानना है कि गृह मंत्रालय मसर्रत के मामले को सही ढंग से परिभाषित नहीं कर पाया. इस धड़े के मुताबिक, कानूनी तौर पर उसे हर मामले में जमानत मिल गई थी और उसे जेल में रखना संभव नहीं था. जबकि संघ के करीबी बीजेपी नेताओं का मानना है कि मामला कानूनी से ज्यादा धारणा का है और इस मसले पर यह संदेश गया है कि बीजेपी ने सत्ता के लिए विचारधारा से समझौता कर लिया. न्यूनतम साझा कार्यक्रम में अनुच्छेद 370 का जिक्र नहीं होने पर जब राष्ट्रीय संगठन महासचिव रामलाल ने एतराज जताया तो सूत्रों के मुताबिक, उनकी राम माधव के साथ झड़प भी हो गई थी.
कश्मीर मसले को लेकर बीजेपी का द्वंद्व भी उभरकर सामने आ रहा है. पार्टी यह तय नहीं कर पा रही है कि केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद क्या उसे अपने वोट बैंक तक सीमित हो जाना चाहिए या फिर उसका विस्तार करना चाहिए या सुशासन और विकास की बात करनी चाहिए. बीजेपी के कुछ वरिष्ठ नेताओं की दलील है कि अगर पार्टी अपने वोट बैंक तक सीमित रहे तो उसका विस्तार नहीं हो सकता.
आखिर क्या थी मजबूरी
कश्मीर में सरकार बनाने का मकसद क्या था, इसकी एक झलक प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस का जवाब देते हुए भी दी थी. उन्होंने कहा था कि बीजेपी अब ऐसी पार्टी बन चुकी है जिसका प्रतिनिधि लद्दाख से है और राज्य में सरकार का हिस्सा है तो दूसरी तरफ कन्याकुमारी में भी पार्टी का सांसद है जो केंद्र में मंत्री है. दरअसल मोदी यह जताना चाह रहे थे कि बीजेपी का विस्तार अब समूचे देश में हो रहा है. हालांकि तथ्य यह है कि दिल्ली की करारी हार के बाद बीजेपी ने काडर को सांत्वना देने के मकसद से भी जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ गठजोड़ में किसी मुद्दे पर रार नहीं ठानी. इस मसले पर बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव श्रीकांत शर्मा कहते हैं, ‘‘सरकार में रहना हमारी मजबूरी नहीं है. राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद को लेकर हमारी नीति जीरो टॉलरेंस की है, जिससे कोई समझौता नहीं होगा.’’
भले बीजेपी अब जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने को लेकर दलीलें दे या फिर संघ प्रस्ताव पास करे लेकिन जनमानस में विचारधारा से समझौता करने का संदेश चला गया है. सोशल मीडिया जो मोदी के प्रचार अभियान का हथियार था, उस पर भी निराशा भरी टिप्पणियां हो रही हैं. मोदी और बीजेपी समर्थक कुछ लोग इसे पीडीपी-बीजेपी का लव जेहाद कह रहे हैं तो कुछ ने लिखा कि अब अलगाववादियों के अच्छे दिन आ गए. निश्चित तौर से मोदी प्रशंसकों का मोह भंग नहीं हुआ है लेकिन निराशा साफ दिखने लगी है. अपने काडर को खुश करने के लिए बीजेपी ने जम्मू-कश्मीर में सरकार तो बना ली, लेकिन मुफ्ती ने जिस चालाकी से राजनैतिक पासा फेंका है, उसके बाद पार्टी के लिए अपने काडर में सही संदेश पहुंचाना भी चुनौती भरा हो गया है.