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आपातकाल का सबसे दमनकारी फैसला, 60 लाख लोगों की करा दी गई नसबंदी

जनता के अधिकार पहले ही छीने जा चुके थे फिर नसंबदी ने घर-घर में दशहत फैलाने का काम किया. उस दौरान गली-मौहल्लों में आपातकाल के सिर्फ एक ही फैसले की चर्चा सबसे ज्यादा थी और वह थी नसबंदी. यह फैसला आपातकाल का सबसे दमनकारी अभियान साबित हुआ.

संजय गांधी, फाइल फोटो (Getty Images) संजय गांधी, फाइल फोटो (Getty Images)
अनुग्रह मिश्र
  • नई दिल्ली,
  • 25 जून 2018,
  • अपडेटेड 9:52 AM IST

25 जून 1975, इस तारीख को भारतीय लोकतंत्र का काला दिन कहा जाता है. इसी तारीख को देश में आपातकाल लागू किया गया और जनता के सभी नागरिक अधिकार छीन लिए गए थे. इस फैसले के बाद तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार के लिए सब कुछ पहले जैसा नहीं रहा और पहली बार उनके खिलाफ एक देशव्यापी विरोध पनपने की शुरुआत हुई.

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आपातकाल ने देश के राजनीतिक दलों से लेकर पूरी व्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया लेकिन उस वक्त लिए गए नसबंदी जैसे सख्त फैसले ने इसे राजनीतिक गलियारों से इतर आमजन के निजी जीवन तक पहुंचा दिया. जनता के अधिकार पहले ही छीने जा चुके थे फिर नसंबदी ने घर-घर में दहशत फैलाने का काम किया. उस दौरान गली-मोहल्लों में आपातकाल के सिर्फ एक ही फैसले की चर्चा सबसे ज्यादा थी और वह थी नसबंदी. यह फैसला आपातकाल का सबसे दमनकारी अभियान साबित हुआ.

संजय गांधी की एंट्री

नसबंदी का फैसला इंदिरा सरकार ने जरूर लिया था लेकिन इसे लागू कराने का जिम्मा उनके छोटे बेटे संजय गांधी को दिया गया. स्वभाव से सख्त और फैसले लेने में फायरब्रांड कहे जाने वाले संजय गांधी के लिए यह मौका एक लॉन्च पैड की तरह था. इससे पहले संजय को राजनीतिक रूप से उतना बड़ा कद हासिल नहीं था लेकिन नसबंदी को लागू करने के लिए जैसी सख्ती उन्होंने दिखाई उससे देश के कोने-कोने में उनकी चर्चा होने लगी.

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आजादी के बाद जनसंख्या विस्फोट से निपटना कांग्रेस सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती थी. अमेरिका जैसे कई अन्य मुल्कों का मानना था कि भारत कितना भी उत्पादन क्यों न कर ले लेकिन विशाल जनसंख्या का पेट भरना उसके बस में नहीं. वैश्विक दबाव और परिवार नियोजन के अन्य फॉर्मूले फेल साबित होने पर आपातकाल ने नसबंदी को लागू करने के लिए अनुकूल माहौल तैयार किया. लेकिन इस फैसले के पीछे संजय गांधी की महत्वाकांक्षा भी थी क्योंकि उन्हें खुद को कम वक्त में साबित करना था.

जबरन और लालच देकर नसबंदी

वृक्षारोपण से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े कई अभियान भी देश में पहले से चलाए जा रहे थे लेकिन ऐसे अभियानों से संजय गांधी को किसी त्वरित परिणाम की उम्मीद नहीं थी. इसी को ध्यान में रखते हुए जब उन्हें नसबंदी लागू कराने का जिम्मा सौंपा गया था जमीन पर उन्होंने इसे कांटों जैसा सख्त और निर्मम बना दिया. इस दौरान घरों में घुसकर, बसों से उतारकर और लोभ-लालच देकर लोगों की नसबंदी की गई.

एक रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ एक साल के भीतर देशभर में 60 लाख से ज्यादा लोगों की नसबंदी कर दी गई. इनमें 16 साल के किशोर से लेकर 70 साल के बुजुर्ग तक शामिल थे. यही नहीं गलत ऑपरेशन और इलाज में लापरवाही की वजह से करीब दो हजार लोगों को अपनी जान तक गंवानी पड़ी. संजय गांधी का ये मिशन जर्मनी में हिटलर के नसंबदी अभियान से भी ज्यादा कड़ा था जिसमें करीब 4 लाख लोगों की नसबंदी कर दी गई थी.

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खौफ में थी नौकरशाही

संजय इस फैसले को युद्ध स्तर पर लागू कराना चाहते थे. सभी सरकारी महकमों को साफ आदेश था कि नसंबदी के लिए तय लक्ष्य को वह वक्त पर पूरा करें, नहीं तो तनख्वाह रोककर उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. इस काम की रिपोर्ट सीधे मुख्यमंत्री दफ्तर को भेजने तक के निर्देश दिए गए थे. साथ ही अभियान से जुड़ी हर बड़ी अपडेट पर संजय गांधी खुद नजरें गड़ाए हुए थे. ऐसी सख्ती से लेट-लतीफ कही जाने वाली नौकरशाही के होश उड़ गए और सभी को अपनी नौकरी बचाने की पड़ी थी.

वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता अपनी किताब 'द संजय स्टोरी' में लिखते हैं, ‘अगर संजय आबादी की इस रफ्तार पर जरा भी लगाम लगाने में सफल हो जाते तो यह एक असाधारण उपलब्धि होती. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी चर्चा होती.’ लेकिन संजय का यह दांव बैक फायर कर गया और 1977 में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनने के पीछे नसबंदी के फैसले को भी एक बड़ी वजह माना गया.

21 महीने बाद जब आपातकाल खत्म हुआ तो सरकार के इसी फैसले की आलोचना सबसे ज्यादा हुई. बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी ने तो नसबंदी की आलोचना में एक कविता तक लिखी थी. इस कविता के बोल थे, 'आओ मर्दो, नामर्द बनो...' संजय गांधी का यह अभियान आपातकाल का सबसे दमनकारी अभियान साबित हुआ और आजतक इस अभियान के नाम से लोग सिहर जाते हैं.

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