राजधानी दिल्ली में 17 फरवरी का दिन मोदी सरकार के लिए कुछ खास था. इस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश की “प्रगति” की समीक्षा करने वाले थे. दिन में उन्होंने भूतल परिवहन मंत्रालय की विभिन्न सड़क परियोजनाओं को जांचा और तरक्की की रफ्तार से संतुष्ट नजर आए. उसके बाद वे रेल महकमे की तरफ रू-ब-रू हुए और अरबों रु. की दर्जनों योजनाओं को देखा-परखा और हरी झंडी दे दी.
पिछले कई संसद सत्रों में काम न हो पाने की कसक दिल में लिए मोदी संसद के आगामी बजट सत्र में सक्रियता की नई साख के साथ जाना चाहते थे. इसी मंशा से प्रधानमंत्री कार्यालय धड़ाधड़ ट्वीट के जरिए विकास परक मुहिम को जनता में झोंके जा रहा था, लेकिन इसे लेने के लिए कोई ग्राहक जैसे था ही नहीं. दरअसल, इस दिन पूरे देश की निगाहें इंडिया गेट से सटे पटियाला हाउस कोर्ट की ओर थीं. यहां जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की देशद्रोह के आरोप में दूसरी पेशी होनी थी.
कन्हैया पर आरोप है कि उन्होंने जेएनयू में आतंकवादी अफजल गुरु के समर्थन में हुए कार्यक्रम में भागीदारी की और देश विरोधी नारे लगाए. हालांकि, कन्हैया के भाषणों की अब तक जितनी भी फुटेज मिलीं, उसमें वे भारतीय संविधान में आस्था जताते ही नजर आए, फिर भी उनके भाषण से कुछ “देशभक्त” वकीलों की भावनाओं को ठेस पहुंची. इसलिए “देश रक्षा” में कानून को ताक पर रखकर उन्होंने 15 फरवरी को पहली पेशी के दौरान न सिर्फ कन्हैया के साथ आए छात्रों की पिटाई की, बल्कि इस घटना को रिपोर्ट करने की कोशिश कर रहे पत्रकारों को भी धुन दिया.
कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने इस घटना पर टिप्पणी की, “न तो कन्हैया ने देश विरोधी भाषण दिया और न कोई अपराध किया है. इसके बावजूद उस पर राष्ट्रद्रोह का मामला दर्ज किया गया. उसका एक ही गुनाह है कि वह आरएसएस-एबीवीपी की विचारधारा को नहीं मानता और कड़े शब्दों में विरोध करने से पीछे नहीं हटता. आरएसएस-एबीवीपी उसे सबक सिखाना चाहती हैं.”
उधर, घटना से आहत पत्रकारों ने 16 तारीख को जुलूस निकाला. सुप्रीम कोर्ट में सुरक्षा की गुहार लगाई. अदालत ने पुलिस को निर्देश दिया कि मामले की सुनवाई शांतिपूर्ण तरीके से सुनिश्चित कराई जाए. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से लैस पत्रकार 17 फरवरी को जब अदालत पहुंचे तो इस बार वकील पहले से कहीं ज्यादा तैश में थे. इस बार कन्हैया के साथ हाथापाई ही नहीं की गई, बल्कि पथराव भी किया गया.
आदेश की धज्जियां उडऩे की खबर पलक झपकते एक फर्लांग की दूरी पर स्थित सुप्रीम कोर्ट के ऊंचे गुंबद में गूंजने लगी. देश की सबसे बड़ी अदालत ने बेहद सख्त और असाधारण फैसला लेते हुए अपने पांच वरिष्ठ वकीलों की टीम तुरंत पटियाला हाउस कोर्ट भेजी. टीम को अदालत के हालात सुप्रीम कोर्ट को बताने थे. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस के वकील से कहा कि वे तुरंत पुलिस कमिश्नर बी.एस. बस्सी से बात करें और कन्हैया की सुरक्षा सनिश्चित कराएं. लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट की यह खास टीम कपिल सिब्बल और इंदिरा जय सिंह के नेतृत्व में पटियाला हाउस अदालत पहुंची तो राष्ट्रवाद के चोले में हुड़दंग कर रहे वकीलों ने इस टीम को भी “पाकिस्तानी एजेंट” कहा और पथराव कर दिया.
अपने रिटायरमेंट से 13 दिन पहले फजीहत करा रहे बस्सी ने दलील दी, “बकीलों के मामले में एहतियात बरतना पड़ता है.” बाद में कन्हैया को पिछले दरवाजे से तिहाड़ जेल ले जाया गया. यह भी क्या संयोग है कि बिहार के एक सामान्य परिवार से जेएनयू आकर पीएचडी कर रहे कन्हैया को तिहाड़ की जेल नंबर 3 की उसी सेल में रखा गया, जहां कभी खुद अफजल गुरु को रखा गया था.
लेकिन देश की राजधानी में चंद हुड़दंगी वकीलों ने सत्ता की शह पर जब सुप्रीम कोर्ट की नाफरमानी की और दिल्ली पुलिस को घुटनों पर बैठा दिया, तब दो दिन पहले तक मुखर रही सरकार खामोश थी. प्रधानमंत्री तो देश की प्रगति जांचने में व्यस्त थे ही, गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी इज्राएल के सुरक्षा महानिदेशक मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) डेन हेरेल के साथ बैठक कर रहे थे.
दो दिन पहले ही उन्होंने जेएनयू में भारत विरोधी नारेबाजी के पीछे पाकिस्तान के आतंकवादी हाफिज सईद का हाथ बताकर सुरक्षा बलों को चौंका दिया था. यही नहीं, उनके मंत्रालय से सूत्रों के हवाले से इस तरह की खबरें लगातार लीक होती रहीं कि देश में 14 विश्वविद्यालयों में कथित रूप से अफजल गुरु के समर्थन में होने वाले कार्यक्रमों की सूचना मिल गई है और इन देश विरोधी ताकतों से सरकार सख्ती से निबटने वाली है.
वैलेंटाइन्स डे को उन्होंने देश विरोधी ताकतों से निबटने के संदेश से भरे कई ट्वीट किए थे. इनमें से एक ट्वीट इस तरह था, “देश विरोधी ताकतों के खिलाफ युद्ध में, मैं सभी राजनैतिक दलों और वर्गों के लोगों का सहयोग मांगता हूं.” देश के हर वर्ग से की गई इस अपील का पटियाला हाउस अदालत के वकीलों पर शायद ज्यादा ही असर हो गया था. इसलिए अगले ही दिन पत्रकारों की पिटाई में सबसे सक्रिय नजर आई वकीलों की टोली के अगुवा विक्रम सिंह चौहान की राजनाथ सिंह और अन्य बीजेपी नेताओं के साथ सद्भावपूर्ण तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल होने लगीं.
हालांकि चौहान ने खुद के बीजेपी समर्थक होने से इनकार किया. चौहान के अलावा बीजेपी विधायक ओ.पी. शर्मा की तस्वीरें भी जल्द ही सामने आईं जिसमें वे कन्हैया की पहली पेशी के दौरान सीपीआइ के एक कार्यकर्ता अमीक जामई की राष्ट्रवादी मरम्मत कर रहे थे. कन्हैया एआइएसएफ के सदस्य हैं जो सीपीआइ की ही छात्र शाखा है. उधर, केंद्रीय विश्वविद्यालय जिस मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एचआरडी) के अधीन आते हैं, उसकी मुखिया स्मृति ईरानी मणिपुर से आए छात्रों के एक दल से राष्ट्रीय एकता के मद्देनजर मुलाकात में व्यस्त थीं. वे भी शांत बनी रहीं.
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह भी दिन भर खामोश रहे. जबकि दो दिन पहले ही कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जब जेएनयू कैंपस का दौरा किया और छात्रों को पूरा समर्थन देने की घोषणा की तो शाह ने 15 फरवरी को लंबा-चौड़ा ब्लॉग लिखकर राहुल से पूछा था, “क्या यही है कांग्रेस की राष्ट्रभक्ति की नई परिभाषा?” ब्लॉग लिखने के बाद उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपनी बात जनता तक पहुंचाई.
शाह ने कहा, “जेएनयू में जो कुछ भी हुआ है, उसे कहीं से भी देशहित के दायरे में नहीं रखा जा सकता है. देश के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में देश विरोधी नारे लगें और आतंकवादियों की खुली हिमायत हो, इसे कोई भी नागरिक स्वीकार नहीं कर सकता.” लेकिन हुड़दंग के बड़े दिन वे साध्वी ऋतंभरा के यहां आयोजित वात्सल्य महोत्सव में व्यस्त रहे. शाम ढले सूचना प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने इतना भर कहा, “पत्रकारों को काम करने की पूरी छूट है. मैं पत्रकारों पर हुए हमले की निंदा करता हूं.”
लेकिन उनकी निंदा सामने आने से पहले पश्चिम बंगाल की जादवपुर यूनिवर्सिटी में छात्र आंदोलन पर उतारू हो चुके थे और चंडीगढ़ में सीपीएम कार्यालय पर हमला हो चुका था. हमले से क्षुब्ध येचुरी ने कहा, “बीजेपी-आरएसएस की भीड़ हमारे दफ्तर पर पथराव कर रही है. यह संविधान पर हमला है. हम तब तक संघर्ष करते रहेंगे, जब तक हमला रुक नहीं जाता.”
कहीं यह बीजेपी की रणनीति तो नहीं और शायद नौजवानों का यही हमला, बीजेपी सरकार के सामने सिर उठा रही कई दिक्कतों में सबसे अहम है. हैदराबाद यूनिवर्सिटी में दलित छात्र की मौत के मामले को बीजेपी ने जितना दबाना चाहा, उसकी उतनी ही किरकिरी हुई. लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री को “मोदी गो बैक” के नारे सुनने पड़े.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे पर भी सरकार के हाथ खाली रहे. हर बार सरकार को आगे बढ़कर पीछे हटना पड़ा और बीजेपी के बचाव के तौर-तरीकों से संघ भी नाराज हो गया. संघ को लगा कि ये मामले परसेप्शन के थे, न कि कानूनी नुक्ताचीनी के. इन पर डटकर सामने आना चाहिए था. लेकिन जैसे ही जेएनयू का मामला उछला, पार्टी को राष्ट्रवाद के जुमले में राजनैतिक संभावनाएं दिखाई देने लगीं.
गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने दो-टूक कह दिया कि देश विरोधी नारा लगाने वालों को बख्शा नहीं जाएगा. अफजल से संबंधित कार्यक्रम के आयोजकों पर हाथ डालने की बजाए फौरन जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष को गिरफ्तार कर लिया गया, ताकि मामले का सियासी वजन बढ़ जाए.
बीजेपी के आक्रामक तेवरों को तब और पंख लग गए जब घटना के तीन दिन बाद हुए 8 राज्यों की 12 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगियों ने 7 सीटें जीत ली. बीजेपी ने इस जीत में जेएनयू प्रकरण को भी अपने पक्ष में माना. अब तो पार्टी अध्यक्ष शाह भी मैदान में उतर आए. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया, “उनकी रणनीति सीधी थी कि लगातार संगठन का काम कर-करके जो कार्यकर्ता उबासी लेने लगे हैं, उन्हें राष्ट्रवाद का जोशीला टॉनिक पिलाओ.” इसलिए पार्टी ने 18, 19, 20 फरवरी को देश भर में जन स्वाभिमान अभियान चलाने का कार्यक्रम बना लिया.
पार्टी की गंभीरता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि 15 फरवरी की शाम को ही सभी राज्य इकाइयों को राष्ट्रीय महासचिव अरुण सिह की ओर से चिट्ठी जारी कर दी गई. चिट्ठी का मजमून था-जेएनयू प्रकरण पर अलगागवादी स्वरों को कुछ राजनैतिक ताकतों की ओर से अभिव्यक्ति की आजादी का नाम देकर देश को भ्रमित करने का जो कुत्सित प्रयास किया जा रहा है, उसके खिलाफ बीजेपी राज्य, जिला, मंडल स्तर तक जन स्वाभिमान अभियान चलाएगी. इस अभियान के जरिए पार्टी की रणनीति स्थानीय स्तर पर धरना, हस्ताक्षर अभियान, जिलाधिकारियों के माध्यम से ज्ञापन, बुद्धिजीवी सम्मेलनों, देशभक्ति के गीत कार्यक्रमों का आयोजन, जन स्वाभिमान चैपाल, नुक्कड़ नाटक के जरिए जनजागरण करना है.
पार्टी के इस अभियान को आगे बढ़ाने से पहले 14 फरवरी को प्रधानमंत्री के साथ अमित शाह, जेटली, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज सरीखे सरकार के संकटमोचन समूह ने बैठक की. इसलिए बीजेपी अध्यक्ष की ओर से ब्लॉग लिखना, प्रेस कॉन्फ्रेंस करना और फिर जन स्वाभिमान अभियान चलाने में प्रधानमंत्री की सहमति भी मानी जा रही है. जेएनयू प्रकरण पर पार्टी के रणनीतिकारों की दलील है कि आजकल बीफ खाना और देश विरोधी नारे लगाना मानो फैशन-सा हो गया है. बीजेपी नेताओं का कहना है कि जेएनयू वामपंथियों का गढ़ बन चुका है और यह मामला ऐसा है जिससे हम उन्हें एक्सपोज कर सकते हैं. पार्टी ने इस मुद्दे को आर-पार की लड़ाई की रणनीति बना ली है.
और यह खटका बहुत गलत भी नहीं है. अपनों की हिंसा के साथ ही दूसरों का गुस्सा भी मोदी सरकार को अलोकप्रिय बना सकता है. नोम चॉमस्की और ज्यूडिथ बटलर समेत देश-विदेश के करीब 400 शिक्षाविदों और नोबेल लॉरिएट ओरहान पामुक ने जेएनयू प्रकरण में सरकार की कार्रवाई की आलोचना की है और छात्रों के प्रति समर्थन जताया है. आलोचना करने वालों में कैंब्रिज, हार्वर्ड, कोलंबिया और येल जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों के शिक्षाविद् शामिल हैं.
उधर, देश के 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों से जुड़े लोग भी विरोध जता चुके हैं. पश्चिम बंगाल के जादवपुर विश्वविद्यालय में भी छात्रों ने सरकार के खिलाफ विरोध मार्च निकाला और अफजल तथा कश्मीर संबंधी नारे लगाए. जेएनयूएसयू की उपाध्यक्ष शेहला राशिद कहती हैं, “जेएनयू के छात्रों पर सरकार की कार्रवाई असल में नारेबाजी या देशद्रोह से संबंधित नहीं है. यह ऑक्यूपाई यूजीसी जैसे आंदोलनों की वजह से है. सरकार छात्रों का गला घोंटना चाहती है. छात्र उससे डरने वाले नहीं हैं.”
उनकी बातों में दम नजर आता है. अक्तूबर, 2015 में यूजीसी की ओर से नॉन नेट फेलोशिप बंद करने के खिलाफ छात्रों का देशव्यापी गुस्सा अभी थमा भी नहीं था कि जनवरी, 2016 में हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने आग में घी डालने का काम किया. इन दोनों मसलों पर हैदराबाद में छात्रों को एकजुट करने गए कन्हैया ने इंडिया टुडे को बताया था, “हम सरकार की छात्र-विरोधी नीतियों और नॉन-नेट फेलोशिप को लेकर विभिन्न जगहों के छात्रों के हस्ताक्षर जुटा रहे हैं.”
रोहित की आत्महत्या के बाद लखनऊ में डॉ. भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में गए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने के बाद पहली बार किसी सभा में विरोध का सामना करना पड़ा. विरोध करने वाले एक छात्र रामकरन ने आरोप लगाया, “पूरे देश में विश्वविद्यालयों का भगवाकरण करने की कोशिश हो रही है, जो नहीं होना चाहिए.”
लखनऊ से उठ रही यह आवाज बीजेपी के लिए खास मायने रखती है. अगले साल यहां विधानसभा चुनाव हैं और दलित छात्र अगर इस तरह मोदी का विरोध करते रहे तो लोकसभा चुनाव जैसा प्रदर्शन दोहराना पार्टी के लिए नामुमकिन हो जाएगा.
उधर, इलाहाबाद में छात्रों का गुस्सा सीधा मोदी सरकार से तो नहीं है, लेकिन वे उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग और सरकारी नौकरियों में भर्ती करने वाले दूसरे आयोगों से त्रस्त हैं. पिछले दो साल से यहां लगातार आंदोलन हो रहे हैं. इसमें आगजनी और पुलिस लाठीचार्ज की घटनाएं भी कई बार हुईं. मामला यहां तक पहुंचा कि इलाहाबाद हाइकोर्ट ने ज्यादातर आयोग के अध्यक्षों को उनके पद से हटा दिया.
यहां की प्रतियोगी छात्र संघर्ष समिति के अवनीश पांडेय कहते हैं, “अदालत ने दागी अध्यक्षों को तो हटा दिया, लेकिन उनके कार्यकाल में जो गलत काम हुए हैं उन्हें जब तक नहीं हटाया जाएगा, तब तक इंसाफ कैसे होगा.” छात्रों का आरोप है कि इंटरव्यू में बड़े पैमाने पर रिश्वत देकर सलेक्शन किए जा रहे हैं और सीबीआइ जांच की घोषणा होने तक वे आंदोलन से पीछे नहीं हटेंगे. पांडेय कहते हैं, “छात्रों ने मोदी सरकार से बहुत उम्मीद लगाई थी, लेकिन दिल्ली में कोई सुनवाई नहीं होने से छात्रों में असंतोष पनप रहा है.”
सरकार के खिलाफ नाराजगी का आलम अभी थमता नजर नहीं आ रहा है. विश्वविद्यालयों में बढ़े दलित उत्पीडऩ के विरोध में बीएचयू के एससी-एसटी शिक्षकों और छात्रों के समूह ने वाराणासी में 22 फरवरी को संत रविदास जयंती के अवसर पर उनके मंदिर में मोदी के आगमन का विरोध किया है. दरअसल रविदास मंदिर ट्रस्ट ने प्रधानमंत्री को इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया है. एससी-एसटी टीचर वेलफेयर सोसाइटी के महासचिव एम.पी. अहिरवार ने ट्रस्ट को चिट्ठी लिखकर विरोध जताया है.
इससे पहले प्रधानमंत्री को दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अपने एक कार्यक्रम को छात्र विरोध के कारण टालना पड़ा था. वहीं, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर सरकार के रुख ने मुस्लिम छात्रों के गुस्से को भड़काया है. उधर, दूर दक्षिण में भी आग सुलगी है. मई, 2015 में मद्रास-आइआइटी में आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रतिबंध को लेकर छात्रों ने देशव्यापी विरोध किया था. फिर जून, 2015 में एफटीआइआइ, पुणे में गजेंद्र चौहान की नियुक्ति के विरोध में छात्रों ने 139 दिनों की हड़ताल की.
यहां दिलचस्प बात यह भी है कि इनमें से कई छात्र आंदोलनों में तो खुद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी सीधे पहुंचकर छात्रों के साथ खड़े हुए हैं. जेएनयू वाले मामले में तो कन्हैया की तरह राहुल पर भी देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हो चुका है. हालांकि राहुल पर मुकदमा पुलिस की सक्रियता की बजाए इलाहाबाद हाइकोर्ट के आदेश से दर्ज किया गया है. उधर, तकरीबन हर राज्य में प्रमुख राजनैतिक दल छात्र आंदोलनों को प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन दे रहे हैं.
यूपी में तो सत्ता की प्रबल दावेदार मायावती ने ही हैदराबाद और जेएनयू, दोनों मामलों में छात्रों का पक्ष लिया. यानी छात्रों के गुस्से को विरोधी पार्टियों का समर्थन चुनौती को और बड़ा कर सकता है. इसके अलावा, मोदी ने जिस तरह चुनाव प्रचार में हर साल एक करोड़ रोजगार देने की बात कही थी, लेकिन नौकरियां उस अनुपात में निकलीं नहीं, उससे बेरोजगारों में गुस्सा बढऩा लाजमी है. सुप्रीम कोर्ट में वकील विराग गुप्ता कहते हैं, “जवानी का जोश, रोजगार के सीमित अवसर और राजनैतिक उकसावा अगर एक साथ आ जाएं तो नौजवानों का गुस्सा अक्सर कानून के बंधन तोड़कर सड़क पर उतर आता है.”
जेएनयू में सेंटर फॉर कम्पेरेटिव पॉलिटिक्स ऐंड पॉलिटिकल थियरी के प्रोफेसर कमल मित्र चेनॉय कहते हैं, “कुछ अतिवादी छात्रों की गैर-जिम्मेदार भाषा के आधार पर 7,000 छात्रों से ज्यादा वाले एक समूचे विश्वविद्यालय को राष्ट्रविरोधी नहीं ठहराया जा सकता. एबीवीपी ने पुलिस को कुछ छात्रों की सूची मुहैया कराई है जिन्हें उठाया जाना है. इनका 9 फरवरी के आयोजन से कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन ये किसी वामपंथी विचारधारा के समर्थक हैं.
यह साफ तौर पर ऐसी किसी भी विचारधारा के दमन का प्रयास है जो एबीवीपी या संघ के अन्य आनुषंगियों की विरोधी हो.” अधिकतर छात्र और शिक्षाविद् जेएनयू के छात्रों पर पुलिस की हालिया कार्रवाई को ध्यान बंटाने की साजिश करार देते हैं. राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने इसे रोहित वेमुला मसले को दबाने की साजिश बताया. उन्होंने ट्वीट किया, “दलित-पिछड़ा समाज पूछता है कि क्या केंद्र सरकार ने जेएनयू में देशद्रोह की खोज रोहित वेमुला की आत्महत्या के उपजे आक्रोश को ढकने के लिए की है?”
एबीवीपी को बनाया सियासी औजार दरअसल, किसी भी सत्ताधारी पार्टी की तरह बीजेपी भी चाहती है कि शिक्षा संस्थानों पर उसकी छात्र इकाई एबीवीपी का कब्जा हो. इस कब्जे का इस्तेमाल पार्टी दो तरह से करना चाहती है, पहला अपनी विचारधारा का प्रचार और दूसरा अन्य विचारधारा के छात्रों के विरोध को अपने छात्र संगठन के माध्यम से दबा देना. यहां यह भी उम्मीद की जाती है कि यूनिवर्सिटी प्रशासन सत्ताधारी पार्टी की छात्र इकाई को जरूरी बल प्रदान करता रहे. जेएनयू और हैदराबाद के मामले में ऐसा हुआ भी.
अगर थोड़ा पीछे जाएं तो बीजेपी के सत्ता में आते ही अक्तूबर, 2014 में एबीवीपी ने जेएनयू के दलित-आदिवासी-ओबीसी छात्रों की ओर से आयोजित होने वाले महिषासुर समारोह के खिलाफ पुलिस में शिकायत की थी और इससे जुड़े लोगों पर एफआइआर दर्ज कराई थी. इस सक्रियता का एबीवीपी को फायदा भी मिला.
सितंबर, 2015 में विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव में पहली बार एबीवीपी से जेएनयूएसयू के केंद्रीय पैनल में 14 साल बाद एक सीट जीती. इसके बाद नवंबर में झेलम छात्रावास के एक कमरे में हवन को लेकर एबीवीपी ने मुकदमा दर्ज कराया. एबीवीपी के जितेंद्र धाकड़ और उनके साथियों ने छात्रावास के कमरे में ही हवन करना शुरू कर दिया था, जिसकी शिकायत के बाद वार्डन्स ने उन्हें हवन करने से रोका था.
आरोप है कि एबीवीपी ने अन्य दो वार्डन्स को छोड़कर ईसाई समुदाय के वार्डन बर्टन क्लीटस के खिलाफ धार्मिक भावनाएं भड़काने का आरोप लगा मुकदमा दर्ज करा दिया था. जेएनयू में प्रोफेसर आयशा किदवई कहती हैं, “हम यूनिवर्सिटी में अध्यापन सुचारु रूप से करना चाहते हैं लेकिन वे न केवल यूनिवर्सिटी के माहौल को प्रभावित कर रहे हैं, बल्कि अभिव्यक्ति की आजादी पर भी कुठाराघात कर रहे हैं.”
जनवरी में कुलपति एस.के. सपोरी की कार्यकाल समाप्ति के बाद सरकार ने जगदीश कुमार को जेएनयू का वीसी नियुक्त किया है. अब शेहला राशिद आरोप लगाती हैं, “वीसी और रजिस्ट्रार छात्रों के पक्ष में आने की बजाए पुलिस के पक्षधर नजर आ रहे हैं और उन्हें छात्रों का दमन करने की छूट दे रहे हैं.”
हैदराबाद की मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर सोशल एक्सक्लूजन ऐंड इन्क्लूसिव पॉलिसी के निदेशक कांचा इलैया कहते हैं, “एक ओर आंबेडकर स्टुडेंट्स एसोसिएशन जैसे समूह और वामपंथी संगठन हैं तो दूसरी तरफ एबीवीपी है. दोनों क्या चाहते हैं, उसके बीच बड़ा फर्क है. अधिकतर समूह जहां व्यापक राजनैतिक व सामाजिक सरोकार के मुद्दों पर सूचित होने की ख्वाहिश रखते हैं और इसके लिए परिसर के भीतर या बाहर से फैकल्टी को आमंत्रित करते हैं, वहीं एबीवीपी को केवल मंदिरों और त्योहारों से मतलब रहता है.”
एबीवीपी ने दिल्ली के करोड़ीमल कॉलेज में पिछले साल अगस्त में मुजफ्फरनगर बाकी है नामक डॉक्यूमेंट्री रुकवा दी थी और हंगामा काटा था. एबीवीपी का दखल सिर्फ फिल्मों को रुकवाने तक सीमित नहीं है. एचआरडी मंत्रालय के समर्थन से 2014 में इस संगठन ने दिल्ली विश्वविद्यालय में चार साल का विवादास्पद स्नातक पाठ्यक्रम (एफवाइयूपी) रुकवा दिया था. एफवाइयूपी के खिलाफ प्रदर्शन में वामपंथी नेता भले ही इसी पक्ष में रहे हों, लेकिन रोहित वेमुला की मौत के बाद एचआरडी मंत्रालय के दखल को सीधे तौर पर केंद्र सरकार द्वारा उन संगठनों के अस्तित्व को नेस्तोनाबूद करने के प्रयास के तौर पर देखा गया जो एबीवीपी के राजनैतिक दर्शन के विरुद्ध हैं.
राजनैतिक चिंतक कमल मित्र चेनॉय कहते हैं, “जेएनयू और उसके छात्रों के खिलाफ केंद्रीय एचआरडी मंत्री स्मृति ईरानी व गृह मंत्री राजनाथ सिंह के दिए कड़े बयान उनके एजेंडे को स्पष्ट करते हैं. वे परिसर में भगवा विचारधारा को लागू करना चाहते हैं. यदि आप उनके विचार से सहमत नहीं हैं तो आप राष्ट्रविरोधी हैं.”
लेकिन फटाफट देशप्रेमी और देशद्रोही का फैसला करने की इस स्वयंभू न्याय प्रणाली से अब खुद एबीवीपी के लोग भी आजिज आने लगे हैं. पटियाला हाउस की घटना के बाद एबीवीपी के तीन नेताओं प्रदीप, राहुल यादव और अंकित हंस ने अपने पदों से इस्तीफा दे दिया. इन लोगों ने कहा कि उन्हें राष्ट्रवाद के चोले में गुंडागर्दी बर्दाश्त नहीं है.
जाहिर है देश की प्रगति के बारे में परेशान प्रधानमंत्री को भी गुंडागर्दी बर्दाश्त नहीं होगी. और वैसे भी जिन जवाहरलाल नेहरू के नाम पर विश्वविद्यालय बना है, उन्होंने आजादी के तुरंत बाद लाल किले से समझाया था कि आजाद मुल्क में देशभक्ति का प्रदर्शन नारों की बजाए काम से होता है.
-साथ में कौशिक डेका