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महबूबा का मरहम और केंद्र की सख्ती दोनों बेकार, कश्मीर लाइलाज!

कश्मीर में दिनो-दिन बढ़ती हिंसा बताती है कि न तो केंद्र का कड़ा रुख और न ही महबूबा की मरहम लगाने की नीति काम आ रही है.

पीटीआइ पीटीआइ
मंजीत ठाकुर/संध्या द्विवेदी
  • नई दिल्ली,कश्मीर,
  • 20 फरवरी 2018,
  • अपडेटेड 2:06 PM IST

जम्मू के पास सुंजुवां कैंप पर जैश-ए-मोहम्मद के फिदायीन हमले की अगली सुबह 12 फरवरी को मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अति उत्साह में दिल्ली से एक अपील की, ''पाकिस्तान से बातचीत शुरू करें." यह उत्साही बयान देते समय महबूबा ने यह भी कहा कि न्यूज चैनलों के ऐंकर अब मुझे राष्ट्रविरोधी साबित करने पर आमादा हो जाएंगे.

महबूबा ने दिल्ली से अपने अनुरोध में कहा, ''अगर हमें इस खून-खराबे को रोकना है तो पाकिस्तान के साथ बातचीत जरूरी है. जम्मू-कश्मीर की अवाम इसमें पिस रही है. हमें बात करनी होगी क्योंकि जंग कोई रास्ता नहीं है."

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जिस दिन महबूबा यह अपील कर रही थीं, उसी दिन इस आतंकी हमले से बौखलाई रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण इस हमले पर जम्मू में पड़ोसी मुल्क को कड़े अंजाम भुगतने की चेतावनी दे रही थीं.

रक्षा मंत्री ने कहा, ''पाकिस्तान को यह गुस्ताखी महंगी पड़ेगी. मैं फिर से आगाह करती हूं कि पाकिस्तान को इसका अंजाम भुगतना होगा." उनका यह बयान इस बात का साफ इशारा देता है कि नई दिल्ली पाकिस्तान के प्रति अपने कड़े रुख को बरकरार रखने के पक्ष में है, जो इस्लामाबाद के साथ किसी भी तरह की बातचीत के रास्ते बंद करता है.

फिर भी, इसका कोई असर नहीं दिख रहा है. महबूबा मुफ्ती की पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी और नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भाजपा सरकार का यह परस्पर विरोधी आवेग कहीं कश्मीर घाटी में आतंक का पुराना दौर फिर से न लौटा लाए.

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हालांकि सुरक्षाबलों को आतंकियों पर लगाम कसने में बड़ी कामयाबी मिली है, फिर भी इस साल दो महीने से भी कम समय में अब तक 24 आम लोग और सुरक्षाबल के जवान मारे जा चुके हैं जो  2007 के बाद सर्वाधिक है.

2013 में संसद भवन पर आतंकी हमले के षड्यंत्रकारी अफजल गुरु को फांसी हुई थी, उसी साल से कश्मीर में आतंकी गतिविधियों के कारण होने वाली मौतों की संख्या में चिंताजनक वृद्धि देखी जा रही है. 2016 में हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से इसमें भारी तेजी देखी गई है. 

इस साल की शुरुआत ही जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी हमले से हुई. 1 जनवरी को जैश आतंकियों ने भारी सुरक्षा इंतजामों वाले दक्षिणी कश्मीर के पुलवामा जिले के लेटपोरा स्थित केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के कैंप पर फिदायीन हमला किया, जिसमें पांच जवान शहीद हो गए. पुलिस के मुताबिक, यह हमला 26 दिसंबर को जैश के ''डिविजनल कमांडर" और दक्षिण कश्मीर में जैश के मुख्य भर्तीकर्ता नूर मोहम्मद तांत्रे के सुरक्षाबलों द्वारा मारे जाने का बदला लेने के लिए हुआ था.

6 जनवरी की सुबह एक आइईडी ब्लास्ट हुआ, जिसमें जम्मू-कश्मीर पुलिस के चार जवान मारे गए. हुर्रियत की हड़ताल के मद्देनजर सोपोर के गोल मार्केट में भीड़ को नियंत्रित करने के लिए इन जवानों की ड्यूटी लगाई गई थी.

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जिस दिन महबूबा और सीतारमण परस्पर विरोधी राग अलाप रही थीं, उसी दिन हथियारों से लैस लश्कर के दो आतंकी श्रीनगर में करणनगर सीआरपीएफ कैंप में घुसने की कोशिश कर रहे थे. सुरक्षाबलों ने आतंकियों को ललकारा तो वे पास की एक निर्माणाधीन इमारत में छुपकर गोलीबारी करने लगे, जिसमें सीआरपीएफ के एक जवान मुजाहिद खान शहीद हो गए.

करणनगर कैंप से थोड़ी ही दूरी पर 6 फरवरी को श्रीनगर केंद्रीय कारागार में बंद कैदियों को मेडिकल चेकअप के लिए लेकर आई पुलिस पार्टी पर हमला हुआ जिसमें पुलिस के दो जवान शहीद हो गए.

यह हमला लश्कर के आतंकी नवीद जट्ट ऊर्फ अबू हंजुला को छुड़ाने के लिए हुआ था. श्रीनगर के प्रमुख अस्पताल श्री महाराजा हरि सिंह (एसएमएचएस) अस्पताल परिसर के भीतर यह इस तरह का पहला हमला था. 

जहां केंद्र के सख्त रवैए का कोई खास असर नहीं हो रहा है, वहीं पीडीपी की अगुआई वाली राज्य सरकार की पुचकारने वाली नीति भी बेअसर साबित हो रही है. 2015 में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने वाली महबूबा द्वारा सुरक्षाबलों पर पत्थरबाजी के आरोपी हजारों कश्मीरी युवाओं को बिना शर्त आम माफी देने की घोषणा संभवतः सरकार द्वारा मरहम लगाने की अब तक की सबसे बड़ा कोशिश है.

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3 फरवरी को महबूबा मुफ्ती ने विधानसभा में बताया कि उनकी सरकार ने सुरक्षाबलों पर पत्थरबाजी के आरोपी 9,730 युवाओं से आपराधिक मुकदमे वापस लेने का फैसला किया है. ये मुकदमे 2008 से लेकर अब तक के हैं. इनमें 4,074 युवा ऐसे थे, जिन्होंने पहली बार यह अपराध किया था.

हालांकि पीडीपी के मंत्री यह दावा कर रहे हैं कि इसे जून 2016 में ही लागू किए जाने की तैयारी थी लेकिन बुरहान वानी के मारे जाने के बाद घाटी में हिंसा का चक्र शुरू हो गया जिसके चलते इसे स्थगित करना पड़ा.

बहरहाल, पत्थरबाजों को दी गई इस आम माफी को केंद्र के कश्मीर में तैनात विशेष प्रतिनिधि दिनेश्वर शर्मा की सिफारिश के रूप में देखा जा रहा है. शर्मा की पिछले अक्तूबर में ही नियुक्ति हुई है. उनकी नियुक्ति से घाटी में एक आस जगी थी और शर्मा समाज के प्रबुद्ध वर्ग और दक्षिण कश्मीर के युवाओं के बीच बातचीत के लिए विश्वास का माहौल बनाने में कामयाब रहे हैं. लेकिन दिक्कत यह है कि वार्ताकार शर्मा के पास अब भी कोई स्पष्ट आदेश नहीं है.

राज्य सरकार की नरमी के बावजूद आतंकवाद में कोई कमी नहीं आई है. 6 फरवरी को महबूबा ने विधानसभा में बताया कि 2017 में 126 कश्मीरी युवा हिज्बुल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों में शामिल हो गए. यानी स्थानीय युवाओं के आतंकी संगठनों से जुडऩे के आंकड़े में 2017 में 44 फीसदी का इजाफा हुआ है और यह पिछले सात साल में सर्वाधिक है.

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राज्य सरकार केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के प्रोत्साहन पर हथियार डालने वाले युवाओं के पुनर्वास के लिए एक नई ''समर्पण नीति" पर काम कर रही है लेकिन यह नीति आतंकवाद की राह पर चले गए युवाओं को लुभा नहीं पा रही.

सरकार की पुनर्वास नीति 2014 के तहत आत्मसमर्पण पर 1.5 लाख रु. का फिक्सड डिपोजिट, समर्पित हथियार के एवज में नकद रकम और तीन साल तक 2,000 रु. का मासिक वजीफा दिया जाता है. 2015 से 2017 के बीच 12 आतंकियों ने आत्मसर्मपण किया लेकिन उनमें से एक व्यक्ति भी इस सरकारी योजना के लाभ का दावा करने नहीं आया.

घाटी में कई लोगों का मानना है कि महबूबा का हर प्रयास उलटा पड़ जाता है. 27 जनवरी को शोपियां में पत्थरबाजों पर सेना द्वारा गोली चलाए जाने से तीन लोगों की जान चली गई. महबूबा ने इसे सेना की गैर-जरूरी सख्ती मानते हुए पुलिस को सेना के जवानों पर एफआइआर दर्ज करने का आदेश दिया.

कुछ दिनों बाद ही विधानसभा में महबूबा ने माकपा के एम.वाइ. तरीगामी की कश्मीर से सैन्य बल विशेष अधिकार कानून (एएफएसपीए) हटाने की मांग को खारिज कर दिया. महबूबा ने सुझाव दिया, ''हमें जमीनी हकीकत को व्यावहारिक तरीके से समझने की कोशिश करनी होगी."

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