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संजय हेगड़े
कुछ समय पहले दिल्ली में एक हेरिटेज वॉक (स्मारक-भ्रमण) के दौरान मैं कुछ दोस्तों के साथ हुमायूं का मकबरा देखने गया था. मेरे साथ एक महिला पत्रकार थीं और मध्य दिल्ली में स्थित इस वर्ल्ड हेरिटेज स्मारक में दाखिल होने से पहले वे अपने कॉलेज छात्र बेटे की ओर मुड़ीं और उसे निजी इतिहास का एक हिस्सा बताने लगीं. जहां हम खड़े थे, उसके सामने सड़क की दूसरी ओर निजामुद्दीन थाना था. उसकी ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, ''आपातकाल के दौरान तुम्हारे डैडी को गिरफ्तार करके उसी थाने में रखा गया था.'' उनके मशहूर राजनीतिक पति उन दिनों जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में छात्र नेता हुआ करते थे.
बाद में अपने दफ्तर में नौजवान वकीलों से बात करते हुए मैंने उन्हें मां-बेटे के बीच हुआ संवाद सुनाया और उनके सामने एक सवाल रखा, ''कल्पना करें कि ऐसे ही हालात में मुझे हिरासत में ले लिया गया है और आपको सुप्रीम कोर्ट में, जहां मैं रोज प्रैक्टिस करता हूं, मेरी जमानत के लिए रिट याचिका देनी है...आप मुझे उन न्यायाधीशों के नाम बताएं जिनके सामने याचिका रखने पर आपको जमानत आदेश जरूर मिल जाएगा.'' शायद आपने अंदाजा लगा लिया है कि इस सवाल का जवाब बहुत उत्साहजनक नहीं था. अपने दफ्तर की इस कहानी को आपके सामने रखने की वजह यह है कि इस समय देश भर में कई वकील बिना सुनवाई के जेल में पड़े हैं और अदालतें जाहिरा तौर पर उन्हें रिहा करने में अक्षम हैं.
विचाराधीन मामलों में 'जेल नहीं, जमानत' बुनियादी नियम है, फिर भी जांच एजेंसियां इसे सामान्य घटनाक्रम मानते हुए अनावश्यक और नाजायज गिरफ्तारियां करती हैं. उन्हें ऐसा करने का हौसला शायद इस बात से मिलता है कि ज्यादातर मामलों में अदालतें जमानत देने से मना कर देती हैं. हमारी अदालतें किसी को जमानत पर छोडऩे को लाभ की स्थिति मानती हैं और जांच अधूरी रहने के मामलों में किसी अपराध के उन्हीं आरोपियों को अपवादस्वरूप जमानत पर छोडऩे का आदेश देती हैं जो उनकी दृष्टि में इसके लिए सर्वाधिक योग्य होते हैं. इसी वजह से, अगर राजनैतिक इशारों पर चल रही कार्यपालिका बदला लेने की भावना से प्रेरित होकर हिरासत में रखने पर आमादा हो तो मशहूर वकील भी अपनी आजादी के प्रति आश्वस्त नहीं हो सकते.
बावजूद इसके कि वे 2018 में नववर्ष के दिन हुई हिंसक घटना के स्थान के आसपास भी नहीं थे, भीमा-कोरेगांव मामले में अभियुक्त नागपुर के वकील सुरेंद्र गडलिंग जून 2018 से जेल में हैं. अमेरिकी नागरिकता छोड़कर जनजातियों तथा आदिवासियों के हित में काम करने के लिए उच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनाए जाने का प्रस्ताव छोडऩे वाली वकील सुधा भारद्वाज भी इसी मामले में अगस्त 2018 से जेल में हैं, हालांकि वे भी घटना के समय घटनास्थल पर नहीं थीं.
कथित भ्रष्टाचार के एक अन्य असंबंधित मामले में, पूर्व वित्त और गृह मंत्री तथा वरिष्ठ वकील पी. चिदंबरम सितंबर 2019 की शुरुआत से जेल में हैं. सीबीआइ के दर्ज मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें जमानत दे दी थी फिर भी वे दीवाली और उसके बाद भी जेल में हैं क्योंकि जिन तथ्यों के आधार पर सीबीआइ ने उनके खिलाफ मामला दर्ज किया था, उन्हीं के आधार पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने भी उनके खिलाफ एक अन्य मामला दर्ज कर रखा है. ईडी मामले में गिरफ्तारी ऐसे समय पर की गई जिससे सुनिश्चित हो सके कि अगर सुप्रीम कोर्ट सीबीआइ मामले में जमानत दे भी दे, तो भी वे तब तक रिहा न हो सकें जब तक कि उन्हें अन्य मामले में भी जमानत न मिल जाए.
जब व्यवस्था ने गडलिंग को जेल भेजे जाने के मामले को चुपचाप स्वीकार कर लिया तभी इस बात के संकेत मिल गए थे कि भारद्वाज और चिदंबरम जैसे दूसरे लोग भी ऐसी ही कमजोर स्थिति में हैं. स्वतंत्रता अविभाज्य है, और जिन पर इसके संरक्षण का भार है, वे अक्सर यह समझने में नाकाम रहते हैं कि जो कुछ भी वे कम प्रतिनिधित्व और कम संसाधनों वाले नागरिकों के खिलाफ करने की अनुमति देते हैं, बाद में वैसा ही कुछ स्वयं उन जैसे लोगों के खिलाफ किया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट तो अपने ही न्यायाधीशों की सुरक्षा के लिए खड़ा नहीं हुआ है. सन् 2011 में गुजरात उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जयंत पटेल ने इशरत जहां मामले में सीबीआइ जांच का आदेश दिया था. 2016 में उन्हें कर्नाटक उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया. इसके बाद 2017 में उन्हें इलाहाबाद स्थानांतरित कर दिया गया, जिससे वे कर्नाटक में कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश नहीं बन सके. इसके बाद उन्होंने पद से इस्तीफा देने का रास्ता चुना. सन् 2019 में ऐसा ही वाकया तब हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाइकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश विजया तहिलरमानी का स्थानांतरण मेघालय करने की संस्तुति की.
सन् 2010 में गुजरात हाइकोर्ट के न्यायमूर्ति आकिल कुरेशी ने सोहराबुद्दीन शेख मामले में अमित शाह को सीबीआइ की हिरासत में देने का फैसला किया था. इस फैसले के परिणाम तभी से उनके पेशागत जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहे हैं. उन्हें मुंबई हाइकोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया जिससे वे गुजरात हाइकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश नहीं बन सके.
उनका नाम मध्य प्रदेश हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के लिए सुझाया गया, लेकिन केंद्र सरकार ने कॉलेजियम की संस्तुति पर कार्रवाई ही नहीं की. कॉलेजियम ने अब उन्हें त्रिपुरा का मुख्य न्यायाधीश बनाने की संस्तुति की है लेकिन उस संस्तुति को भी सरकार लटका रही है. इस प्रकार, न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरण की जिस शक्ति की न्यायाधीशगण न्यायिक स्वतंत्रता के संकेत के रूप में रक्षा करते रहे हैं, वह भी हठी कार्यपालिका और चुप्पी लगाए बैठी न्यायपालिका के चलते क्षरित होते हुए अस्तित्वहीन हो गई है.
आज्ञाकारी न्यायपालिका और डराया हुआ अधिवक्ता समुदाय कभी भी नियंत्रण एवं संतुलन तंत्र के रूप में नियोजित अपने उस सांविधानिक दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकते जिस पर सुशासन टिका होता है.
पाकिस्तान का एक उदाहरण इस बिंदु का विवरण बेहतर तरीके से दे सकता है. सन् 1954 में पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश मुहम्मद मुनीर ने गवर्नर जनरल मलिक गुलाम मुहम्मद की ओर से संविधानसभा की बर्खास्तगी को वैध ठहराने के लिए 'आवश्यकता का सिद्धांत' लागू किया. उन्होंने ब्रेक्टन के सिद्धांत का हवाला दिया, ''जो बात अन्यथा वैध नहीं है, उसे आवश्यकता के अनुसार वैध बनाया जाता है''—और इस तरह से उन्होंने सत्ता हड़पने की कार्रवाइयों को वैध ठहराने की पूरी शृंखला शुरू कर दी. बाद के दशकों में वह देश टूट गया, पाकिस्तानी न्यायपालिका ढह गई और उसे जियाउल हक जैसे सैन्य तानाशाहों के प्रति निष्ठा की कसमें खानी पड़ी. मार्च 2007 में, जब जनरल मुशर्रफ ने मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी को बर्खास्त करना चाहा तो उन्हें बहाल कराने के लिए वकीलों को सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करना पड़ा.
भारत की ओर लौटें तो स्थितियां यहां भी दुर्भाग्यपूर्ण हैं. आपातकाल के पहले के दौर में समाजवादी पद्धति के समाज और प्रतिबद्ध न्यायपालिका की स्थापना पर बल दिया जाता था. उसके लगभग 40 साल बाद अब भारत की वास्तविक और कल्पित सभ्यतागत उपलब्धियों का जश्न मनाने के आह्वानों के साथ-साथ न्यायपालिका समेत राज्य के सभी अंगों को सत्ता के निर्देशों का पालन करने के लिए लालच और धमकियां दी जा रही हैं. न्यायिक समीक्षा की पहचान रहे स्वस्थ संशयवाद को अविश्वास के स्वैच्छिक निलंबन से प्रतिस्थापित किया जा रहा है.
सोशल मीडिया विकल्पों के इस युग में, भारतीयों में स्वतंत्रता की भावना को त्यागने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. द्वितीय विश्व युद्ध के भीषण दौर में दिए एक प्रसिद्ध भाषण में, जस्टिस बिलिंग्स लर्नेड हैंड ने इसे परिभाषित करते हुए कहा था, ''यह ऐसी भावना है जिसे एकदम सुनिश्चित रूप से नहीं पता है कि वह सही है या नहीं; स्वतंत्रता की भावना वह भावना है जो दूसरे लोगों के मन को समझने की कोशिश करती है; स्वतंत्रता की भावना वह भावना है जो बिना पक्षपात के दूसरों के हितों को अपने हितों से तौलती है.'' वे इतने पर नहीं रुके और उन्होंने चेतावनी भी दी: ''स्वतंत्रता लोगों के दिल में रहती है; और, यह जब वहां मर जाती है, तो, कोई संविधान, कोई कानून, कोई अदालत इसे नहीं बचा सकती; कोई संविधान, कोई कानून या कोई भी अदालत इसकी मदद में भी बहुत कुछ नहीं कर सकती.''
क्या आजाद भारत अपनी आजादी को उसकी वास्तविक भावना के साथ महत्व देता है, या यह केवल दिखावटी आजादी भर से संतुष्ट है? इसका जवाब भारत की अदालतों से नहीं बल्कि लोगों से आना है.
संजय हेगड़े सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं.
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