
सुप्रीम कोर्ट ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को फिर से लागू करने को लेकर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है. कोर्ट ने सरकार से चार सप्ताह के भीतर जवाब मांगा है. जस्टिस जेएस खेहर और जस्टिस एसए बोबडे की पीठ ने सोमवार को एक किसान संगठन द्वारा दायर याचिका पर यह नोटिस जारी किया.
वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने कोर्ट से आग्रह किया कि सरकार को निर्देश दिया जाए कि वह अध्यादेश को फिर से जारी करने की आवश्यकता को जायज ठहराने वाले रिकॉर्ड कोर्ट में पेश करे. इसके बाद कोर्ट ने कहा, 'सरकार जवाब दायर करे. हो सकता है कि सरकार का पक्ष सुनने के बाद हम आपसे सहमत न हों.'
कोर्ट ने शुरुआत में सरकार को जवाब दायर करने के लिए छह सप्ताह का समय दिया. इस पर जयसिंह ने नजदीक की तिथि तय करने पर जोर दिया और कहा कि अध्यादेश की उम्र ही छह सप्ताह है. इस पर जस्टिस खेहर ने कहा, 'हम छह सप्ताह बाद आप से कह सकते हैं कि अध्यादेश निर्थक हो गया है. मैं आज आप से कह रहा हूं कि यदि यह कानून आता है तो यह निरर्थक हो जाएगा.'
जयसिंह ने कोर्ट से कहा कि यह संभवत: पहला मौका है जब संसद के बजट सत्र के बीच राज्यसभा का सत्रावसान कर दिया गया, ताकि अध्यादेश को फिर से जारी किया जा सके. किसान संगठनों के एक समूह ने नौ अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर फिर से जारी किए गए भूमि अध्यादेश को रद्द करने की मांग की. किसानों का तर्क है कि यह संविधान के खिलाफ है, लिहाजा सरकार को इसे लागू करने से रोक जाए.
'संविधान विरोधी है अध्यादेश'
भारतीय किसान यूनियन, दिल्ली ग्रामीण समाज, ग्राम सेवा समिति और चोगम विकास अवाम ने कोर्ट से मांग की है कि भूमि अधिग्रहण में निष्पक्ष मुआवजा व पारदर्शिता, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन अधिकार संशोधन अध्यादेश, 2015 को असंवैधानिक, अमान्य और संविधान के अनुच्छेद 14 और 123 का उल्लंघन करने वाला घोषित किया जाए और इसे रद्द कर दिया जाए.
किसान संगठनों ने कोर्ट से सरकार के लिए यह निर्देश भी जारी करने का आग्रह किया कि वह अध्यादेश पर अमल न करे. संगठनों ने कहा है कि अध्यादेश को फिर से जारी करने की सरकार की कार्रवाई अनुचित है.
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि संविधान में कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद को दी गई है. याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि यदि कार्यपालिका को लगातार इस तरह के अध्यादेश जारी करने की छूट मिलती है और उनपर संसद की मंजूरी नहीं ली जाती है तो यह विधायिका के कानून निर्माण के अधिकारों का सरकार द्वारा हड़पने के अलावा और कुछ नहीं होगा.
याचिका में कहा गया है, 'सिर्फ इसलिए कार्यपालिका को लगातार अध्यादेश के जरिए कानून बनाने की छूट नहीं दी जा सकती कि वह राज्यसभा में अल्पमत में है. नागरिकों के जीवन और आजादी को अध्यादेशों के जरिए नियंत्रित नहीं किया जा सकता.' याचिकाकर्ताओं ने कहा है कि सरकार ने विधेयक के लोकसभा में पारित हो जाने के बाद जानबूझकर उसे राज्यसभा में चर्चा के लिए पेश नहीं किया, सिर्फ इसलिए क्योंकि ऊपरी सदन में उनके पास न बहुमत है, न आम सहमति है और न तो उनके पास इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति ही है.
-इनपुट भाषा से