
बोआ कंस्ट्रिक्टर दक्षिण अमेरिका में पाया जाने वाला एक विशाल अजगर है, जो अपनी गुंजलक में अपने शिकार को चौतरफा जकड़कर उसका दम घोंट देता है. जनरल अयूब खान से लेकर अब तक पाकिस्तान के तमाम नेताओं के मन में यह डर रहा है कि कश्मीर को बलपूर्वक छीनने की उनकी महत्वाकांक्षाओं के जवाब में भारत कहीं यही रणनीति न अपना ले.
पिछले माह भारत ने कश्मीर में हुए तमाम उकसावों के जवाब में जब कूटनीतिक, आर्थिक और सैन्य जैसी तमाम रणनीतियों के रास्ते पाकिस्तान को अपने शिकंजे में जकडऩा चालू किया, तब पाकिस्तान को चलाने वाले दोनों शरीफ—प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और फौज के मुखिया राहील शरीफ—को वैसे ही घुटन का एहसास हुआ होगा, गोया वे किसी बोआ की जकडऩ में हों. खासकर 28-29 सितंबर की दरम्यानी रात आतंकी ठिकानों को नष्ट करने के लिए नियंत्रण रेखा के पार भारतीय फौज द्वारा किए गए साहसिक सर्जिकल हमलों ने इस एहसास को पुख्ता किया होगा, जिससे इस्लामाबाद इसका खंडन करने को मजबूर हुआ.
प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे कठिन विदेश नीति संबंधी चुनौती के समक्ष नरेंद्र मोदी ने ऐसी रणनीति अपनाई, जिसे निर्भीक, बहादुराना और उक्वदा ही कहा जा सकता है. यह कदम इसलिए निर्भीक था क्योंकि कश्मीर जुलाई में जिस तरह भारत के नियंत्रण से बाहर होता जा रहा था और पाकिस्तान ने भारत को पीछे की ओर धकेल दिया था, मोदी ने उसी वक्त आक्रामक तेवर अपनाया. उन्होंने स्वतंत्रता दिवस पर बलूचिस्तान में मानवाधिकार उल्लंघन का मसला उठा दिया और फिर चीन में समूह-20 की बैठक में दुनिया भर के नेताओं के सामने आतंक को बढ़ावा देने के लिए पाकिस्तान को आड़े हाथों लिया. इसके बाद भारत ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान को अलग-थलग करने का काम किया और संयुक्त राष्ट्र में उसके कश्मीर का मसला उठाए जाने पर पानी फेर दिया.
यह बहादुराना इसलिए था क्योंकि उड़ी हमले के बाद भारत ने नियंत्रण रेखा के पार सैन्य हमलों का विकल्प अपनाने में संकोच नहीं बरता, बावजूद इसके कि इसके बढऩे की पर्याप्त गुंजाइश थी. जानकार यह दलील दे सकते हैं कि पहली बार भारत ने ऐसा हमला नहीं किया है, लेकिन शायद ही कभी यह इतना व्यापक रहा हो (देखें रिपोर्टः सरहद पार जवाबी वार). न ही कभी ऐसे हमलों का उतना प्रचार किया गया जैसा कि एनडीए की सरकार ने इस बार किया है ताकि पाकिस्तान और विश्व को एक कड़ा संदेश जाए कि ''अब बहुत हो चुका." साथ ही घरेलू आक्रोश को भी थामा जा सके, जो उड़ी हमले के बाद पैदा हुआ है जिसमें 19 फौजी मारे गए थे.
यह कदम उम्दा इसलिए था क्योंकि मोदी ने तब एक ऐसी रणनीति पर काम करना शुरू किया था, जिसमें थ्योडोर रूजवेल्ट के इस उद्धरण की छवि दिखाई देती थीः ''प्यार से बोलो और लंबा डंडा लेकर चलो." विदेश नीति की अपनी इस शैली का विवरण देते हुए अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ने कहा था, ''किसी भी संभावित संकट से पहले ऐसा किया गया तो यह कदम उत्कृष्ट सोच और निर्णायक कार्रवाई का नमूना होता है."
मोदी और उनकी टीम ने पर्याप्त दूरदर्शिता दिखाई और कड़ी कार्रवाई की, जब उन्होंने कश्मीर में पाकिस्तान की आक्रामकता की एक सतर्क और सधी हुई प्रतिक्रिया तैयार की. उन्होंने हमला करने से पहले शतरंज पर सभी मोहरे सही जगहों पर बैठा दिए और उसके बाद इच्छित लक्ष्य को हासिल किया. इस दौरान मोदी प्यार से बोलते रहे. केरल के कोझिकोड में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उन्होंने उड़ी हमले के बाद पहली बार मुंह खोला और जंग की संभावना को नकारते हुए उड़ी के दोषियों को सबक सिखाने का अधिकार अपने पास बनाए रखा. अपने बेहतरीन नेतृत्व का इस्तेमाल करते हुए मोदी ने पाकिस्तान की अवाम और आतंक को पनाह देने वाले उसके हुक्मरानों के बीच एक लकीर खींचते हुए वहां की जनता का आह्वान किया कि वह ''गरीबी और बेरोजगारी के खिलाफ जंग में" उनके साथ आए.
इसके बाद मोदी ने अपना लंबा डंडा घुमाया. संयुक्त राष्ट्र में बलूचिस्तान का मुद्दा उठाने के लिए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को भेजने के बाद मोदी ने 1960 की सिंधु नदी जल संधि की समीक्षा की बात की. इसे रद्द करने की बात करने के बजाए उन्होंने यह संभावना जताई कि भारत जब चाहे तब नदी के पानी का इस्तेमाल एक हथियार के तौर पर कर सकता है. ऐसा लगा कि उन्होंने कोझिकोड में जो कहा था, यह उससे उलट है क्योंकि पानी एक ऐसा मसला था जो पाकिस्तान की जनता को प्रभावित कर सकता था. एक अधिकारी इस बारे में समझाते हैं, ''प्रधानमंत्री ने यह कभी नहीं कहा कि अगर आप दुर्व्यवहार करेंगे तो वे आपको सजा नहीं देंगे." उन्होंने पाकिस्तान से भारत के व्यापारिक संबंध की समीक्षा की भी बात की, जिसमें सबसे पसंदीदा देश का दरजा भी शामिल था.
इसके बाद मोदी ने नवाज शरीफ को सबक सिखाने के लिए इस्लामाबाद में होने वाले दक्षेस सम्मेलन में जाना रद्द कर दिया. इसके बाद भारत ने दक्षेस के दूसरे सदस्यों नेपाल, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और श्रीलंका को भी यह ऐलान करने के लिए राजी कर लिया कि वे भी उसमें नहीं जा रहे. इसका संदेश साफ थाः पाकिस्तान अकेले भारत की समस्या नहीं है, बल्कि पूरे क्षेत्र को उससे दिक्कत है.
मोदी ने जब सेना का इस्तेमाल करने का फैसला किया, तो उन्होंने ऐसा विकल्प चुना जिससे जंग भड़कने की न्यूनतम संभावना थी. दो विकल्पों में पहला यह था कि 1971 की तर्ज पर पाकिस्तान को तोड़ दिया जाए या फिर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर पर कब्जा कर लिया जाए. इन्हें बाहर रखा गया क्योंकि इनसे एक परमाणु जंग की गुंजाइश बनती थी. एक अन्य विकल्प मिसाइल से हमला करके हाफिज सईद जैसे आतंकियों को खत्म किया जाना था, लेकिन यह काफी जोखिम भरा था और यह पाकिस्तान को उकसा सकता था. मोदी ने नियंत्रण रेखा के पार सर्जिकल हमले का विकल्प चुना क्योंकि पहले भी एलओसी के आरपार हमले हो चुके थे और दोनों फौजें इसकी आदी थीं, जिससे बात आगे नहीं बढ़ती थी.
पाकिस्तान को कड़ा संदेश देने के बाद मोदी ने उसे यह संकेत दिया कि उन्होंने भले ही निर्णायक रूप से पाकिस्तान के साथ निबटने के कायदों को बदल डाला है, लेकिन वे अब भी रिश्ते सामान्य करने को तैयार हैं, बशर्ते वह भारत को उकसाना बंद करे. एलओसी पार हमले के ऐलान को काफी सतर्कता के साथ सधे हुए शब्दों में किया गया ताकि यह बताया जा सके कि आतंकी समूहों पर कड़ा हमला बोलने के बाद अब भारत की मंशा तनाव को और बढ़ाने की नहीं है. देश मोदी के पीछे मजबूती से खड़ा था, यहां तक कि विपक्षी दल भी हमले को समर्थन दे रहे थे. जैसा कि एक आला अधिकारी ने बताया, ''हमने संयम की नहीं, रणनीतिक उदासीनता की नीति को त्यागा है. हमने पाकिस्तान में कड़ा संदेश भेजा है कि हम कड़े तरीके से और सकारात्मक रुख से अपनी शर्तों को रख रहे हैं. अगर वे आगे आते हैं, तो हम और ज्यादा खुलने को तैयार हैं—संपर्क, संचार, यहां तक कि हम उन्हें बिजली भी बेच सकते हैं. अगर वे सोचते हैं कि वे आतंकवाद की नीति को कायम रख पाएंगे, तब तो उसकी कीमत चुकानी होगी."
पाकिस्तान की प्रतिक्रिया काफी नरम है. वहां की फौज और सरकार दोनों ने ही हमले का खंडन किया है, हालांकि सिलसिलेवार कैबिनेट बैठकें कर रहे प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और फौज की स्ट्राइक कोर तक फौज प्रमुख के दौरे से साफ है कि संदेश उन तक पहुंच चुका है. पाकिस्तान कुछ हद तक जवाब देगा, खासकर इसलिए क्योंकि दोनों शरीफों के बीच सत्ता का टकराव है और फौज प्रमुख, जो रिटायर होने वाले हैं, अपना सेवा विस्तार चाहते हैं. इसीलिए कश्मीर में हुए आतंकी हमले और पिछले हफ्ते बारामूला का हमला अपेक्षित था, लेकिन जानकारों की मानें तो असली चिंता देश भर में, खासकर नागरिक आबादी के बीच बड़े हमलों को लेकर है. इससे शुरू में सीमित स्तर पर जंग भड़क सकती है, जो भारत निभा ले जाएगा लेकिन हमेशा यह खतरा बना रहेगा कि कहीं यह नियंत्रण से बाहर न चली जाए. यह बात अलग है कि अफगानिस्तान की सीमा पर आतंकवादियों से लड़ रही पाकिस्तानी फौज को इस वक्त भारत के साथ एक और मोर्चा खोलना भारी पड़ेगा और वह ऐसा नहीं चाहेगी. चीन को छोड़ दें तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तमाम बड़ी ताकतों ने भारत का मजबूती से पक्ष लिया है. बीजिंग भी हालांकि उपमहाद्वीप में बढ़ रहे तनाव से चिंतित है और बहुत संभव है कि वह पाकिस्तान का समर्थन करने के बजाए उससे शांत रहने को कहेगा.
सिंधु के पानी और बलूचिस्तान का मुद्दा उठाने के अलावा मोदी की रणनीति ने एक काम यह किया है कि उसने सिर्फ कूटनीतिक अलगाव या सैन्य हमलों से इतर कई किस्म के विकल्पों को सक्रिय करने की जगह बना दी है. अफगानिस्तान, यूएई, ईरान और सऊदी अरब के करीब जाकर भारत दरअसल बोआ अजगर की तरह पाकिस्तान को हमले से पहले घेर रहा है. मोदी ने अपनी प्रतिक्रिया में एक किस्म की अनिश्चितता का तत्व भी समाहित किया है, जिसके चलते पाकिस्तान लगातार कयास लगाने को मजबूर होता रहेगा कि भारत का अगला कदम क्या होगा. इसके अलावा पाकिस्तान सर्जिकल हमले का खंडन कर रहा है. लिहाजा वह कठोर सैन्य जवाब के लिए तर्क नहीं जुटा सकेगा. अगर उसने एक बार फिर आतंकी हमला किया, तो उससे भारत का ही पक्ष मजबूत होगा.
अगर लक्ष्य यही था, तब तो भारत कामयाब कहा जाएगा. इसका एक प्रतिकूल पक्ष यह है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक पूरा भारत आतंकी हमले को लेकर चैबीसों घंटे सचेत है. पठानकोट और उड़ी में जैसा कि देखा गया, अपने सुरक्षाबलों की निगरानी करने में भारत कमजोर है, इसलिए उसे परिधि पर सुरक्षा कड़ी करने के लिए तात्कालिक उपाय करने होंगे (देखें रिपोर्टरू मजबूत ढाल). कश्मीर लगातार उबल रहा है और पाकिस्तान के साथ बढ़े हुए तनाव से वहां कोई फायदा नहीं हुआ है. इसलिए वहां की जनता को जीतने के लिए मोदी को जल्द ही कुछ साहसिक कदम उठाने होंगे. दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों का फोन पर बात करना एक आश्वस्तकारी संकेत है कि हालात को तनावमुक्त करने की दिशा में कदम बढ़ रहे हैं. प्रधानमंत्री ने यह दिखा दिया है कि पाकिस्तान के मामले में वे एक फैसलाकुन नेता हैं. अब मोदी को पाकिस्तान के संबंध में कड़ाई और नरमी के बीच की तनी हुई रस्सी पर चलकर दिखाना होगा.