भारत में लोकतंत्र की गहराई का एक नजारा पिछले हफ्ते तब देखने को मिला जब कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार मिलने पर वाम से लेकर दक्षिण तक समूची राजनैतिक बिरादरी ने उन्हें एक स्वर में बधाई दी. नरेंद्र मोदी से लेकर हर किसी ने उन्हें बिलाशर्त शुभकामना दी. इसमें ऐसा असामान्य क्या है? नोबेल जैसा दुर्लभ पुरस्कार मिलने पर देश को क्या इसका जश्न नहीं मनाना चाहिए?
यह घटना इसलिए अद्भुत है क्योंकि इससे पहले नोबेल जीत चुकीं मदर टेरेसा की तरह सत्यार्थी ने भी भारत के अंधेरे कोनों में छुपे बदनुमा धब्बों को ही उजागर किया है, लेकिन मदर की तरह उन्हें अपने काम के लिए देश में उतनी प्रतिष्ठा नहीं मिली है जितनी वैश्विक स्तर पर प्राप्त है. उन्होंने अमेरिकी सांसदों, खासकर सीनेटर टॉम हार्किन से हाथ मिलाया और यूरोप की दुखी आत्माओं के साथ मिलकर अपने इकलौते लक्ष्य पर असामान्य ढंग से निशाना साधा: उन्होंने भारत से उन चीजों के निर्यात पर तकरीबन वैश्विक प्रतिबंध लगवा दिया जिनके निर्माण में बाल श्रम शामिल था.
इसके चलते सत्ता प्रतिष्ठान उनके खिलाफ एकजुट हो गया. वैश्विक व्यापार वार्ताओं में वे भारत की आधिकारिक लाइन के खिलाफ काम करते रहे, भारतीय निर्यातकों के लिए उन्होंने दाम बढ़वा दिए और इस तरह उन्हें पश्चिम के शैतानी देशों के साथ सामान्यत: 'षड्यंत्रकारी’ भूमिका में देखा गया. इसी से उन्हें आज तक यहां कोई सरकारी सम्मान नहीं मिला और कई लोग उन्हें लेकर सशंकित हो चले थे, खासकर उनके आरंभिक मित्र और मार्गदर्शक स्वामी अग्निवेश (1994 में काफी कटुता के साथ उनकी राहें जुदा हो गई थीं.
यहां मैं एक खुलासा करना चाहूंगा: बौद्धिकों का एक बड़ा तबका और उदारवादी मीडिया उनका समर्थन करता रहा लेकिन मुझे उन पर हमेशा संदेह रहा. उनकी पहली पारी में मैं उनके साथ जुड़ा रहा हूं जब अग्निवेश के साथ मिलकर वे बंधुआ मजदूरों पर काम किया करते थे और दिल्ली के पास पत्थर तोडऩे वाली कई खदानों में छापा मारा करते थे जिससे पहले पत्रकारों को वे आगाह कर देते थे. उन दिनों मैं भी अपनी मोटरसाइकिल से उनके पीछे जाता और उनकी कामयाबी का हिस्सा हुआ करता था.
वैसे, मोटरसाइकिल चलाने के मामले में सत्यार्थी का कौशल सराहनीय है. मेरी चिंता हालांकि 1994 के बाद के दूसरे चरण को लेकर पैदा हुई जब उनका ध्यान बाल श्रम, विदेशी गठजोड़, सम्मेलनों, प्रशस्तियों, पुरस्कारों पर केंद्रित हो गया जो मेरी नजर में गरीबी को बेचकर अपने लिए उपलब्धियां हासिल करने से ज्यादा कुछ नहीं था. मदर टेरेसा मुझे इसलिए स्वीकार्य थीं क्योंकि वे गरीबों के लिए सीधे काम करती थीं. लेकिन सत्यार्थी? वे अपने ही देश पर प्रतिबंधों को न्योता देना चाह रहे थे. क्या अपने यश की चाह में अंधे होकर वे भारत की आजीविका संबंधी सचाइयों से मुंह चुराने लगे थे?
पिछले सोमवार को दिल्ली के भीड़ भरे इलाके कालकाजी में उनके दफ्तर पहुंचने से पहले तक ये बातें मेरे दिमाग में घूम रही थीं. उन्हें उस दिन 'एंजेला मर्केल के साथ’ एक सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए बर्लिन निकलना था. पहली नजर में उनका दफ्तर खांटी एनजीओ सरीखा दिखा: स्वाइप कार्ड से प्रवेश, सीसीटीवी कैमरे, एयरकंडिशनर वगैरह. उनसे बात करके और उन पर शोध करके हालांकि मेरी यह राय भी बदल गई.
सत्यार्थी के काम ने दुनियाभर में भारत को बेशक शर्मसार किया है, जिसके चलते तमाम प्रधानमंत्री उन्हें इसकी बजाए कुछ 'रचनात्मक’ करने की सलाह देते रहे हैं. दूसरी ओर उन्हें मिला नोबेल पुरस्कार आज महान राष्ट्रीय गौरव का मुद्दा बन चुका है. यह तीन दशकों से लगातार काम कर रहे उस शख्स की कामयाबी को बताता है जो हमेशा सत्ता प्रतिष्ठान और अभिजात्यों के खिलाफ खड़ा रहा है.
उन्होंने यह सब कुछ भारत में रहते हुए हासिल किया. उन्हें अपनी सह-विजेता मलाला यूसुफजई की तरह देश नहीं छोडऩा पड़ा. उनकी कामयाबी के हथकंडे जो भी रहे हों, लेकिन उन्हें यह कामयाबी भारत में रहते हुए ही हासिल हुई है और 80,000 बच्चों को मुक्त करवाने के उनके दावे से कहीं ज्यादा बड़ी है. वे हमें यथार्थ के उदास चेहरे बाल श्रम से रू-ब-रू करवाते रहे हैं.
सत्यार्थी अपने सरोकारों पर दृढ़ रहे हैं और नोबेल उन्हें मजबूत करेगा. पाकिस्तान को भले ही मलाला को अपने यहां वापस बुलाने और शिक्षा के क्षेत्र में देश में काम करने का न्योता देने में वक्त लग जाए, लेकिन सत्यार्थी का स्वागत तो मोदी सरकार और भारतीय दक्षिणपंथ को करना ही होगा, चाहे उनकी आपत्तियां कुछ भी हों. इस लिहाज से देखें तो उन्होंने भारत में सामाजिक कार्य के क्षेत्र को एक ऐसे वक्त में बड़ा प्रोत्साहन दिया है जब उसे इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी.
हम जानते हैं कि आजकल भारत में एनजीओ, खासकर एक्टिविस्ट एनजीओ को शंकालु नजरों से देखा जाता है. सरकार और जनता, दोनों के ही स्तर पर इन्हें बदमिजाज, अडिय़ल, स्वकेंद्रित इकाइयों के तौर पर देखा जाता है. विदेशी अनुदान से चलने वाला पांचवां खंभा तो इन्हें कहा ही जा चुका है.
हाल ही में यह तथ्य उन स्वयंसेवी संस्थाओं पर खुफिया ब्यूरो की एक रिपोर्ट से उजागर हुआ जो विदेशी अनुदान प्राप्त कर रही हैं, जिसके चलते करीब 10,000 स्वयंसेवी संस्थाओं को नोटिस भेजा गया और इसके खिलाफ जनता में सामान्य असहमति भी देखने को नहीं मिली. स्वयंसेवी संस्थाओं का शिकार जारी है और कम ही ऐसे भारतीय हैं जो इनसे सहानुभूति रखते हों. यह ठीक नहीं है. बहुसंख्यकवाद के खिलाफ संस्थागत अवरोध के लिए नागरिक समाज की भूमिका अहम होती है.
भारतीय राजनीतिकों, बुद्धिजीवियों और खासकर तेजी से दक्षिणपंथ की ओर झुकते जा रहे मध्यवर्ग को तो इस पर विचार करना ही होगा, लेकिन कहीं ज्यादा अहम बात यह है कि नागरिक समाज के अलंबरदार खुद आत्मनिरीक्षण करें. उनमें यह स्वीकारने का साहस होना चाहिए कि सामान्यत: उदार भारतीय मानस में आए इस बदलाव के लिए वे खुद भी जिम्मेदार हैं. भारी बहुमत की सरकारों के दौर में भी इस देश में एक्टिविस्ट एनजीओ फलते-फूलते रहे हैं.
इन्होंने न्यायपालिका और मीडिया के साथ एक मजबूत गठजोड़ बना लिया था और इनका इस्तेमाल करके नियम-कानूनों में बड़े सुधार भी इन्होंने करवाए, चाहे वह विचाराधीन कैदियों के साथ व्यवहार का मसला हो, आरटीआइ कानून हो या हमारे शहरों में हवा की गुणवत्ता और नदियों की सफाई का सवाल. आप अतीत में नागरिक समाज की किसी भी कामयाबी को गिनवाएं और आप पाएंगे कि वह तीनों संस्थाओं के सौभाग्यशाली 'षड्यंत्र’ का ही परिणाम था.
विनोबा भावे से लेकर बाबा आम्टे, सुंदरलाल बहुगुणा, अनिल अग्रवाल, मेधा पाटकर और अण्णा हजारे तक देखें तो ईमानदारी, वचनबद्धता, नि:स्वार्थ सेवा और साहस के लिए देश में एक्टिविस्ट नेताओं का व्यापक सम्मान हुआ है. फिर, आखिर गड़बड़ कहां हुई?
एनजीओ कार्यकर्ताओं को व्यापक समर्थन इसलिए मिलता था क्योंकि उन्हें अनिवार्यत: सत्ता-विरोधी माना जाता था जो निहितस्वार्थों से टक्कर लेने को हमेशा तैयार रहते हों, बेढब और जोखिम भरी जिंदगी जीते हों और जिन्हें भ्रष्ट करना मुमकिन न हो. लोकतंत्र में बागी को हर कोई प्यार देता है. लेकिन 2004 में यूपीए सरकार के दौर में एनजीओ कार्यकर्ता बागी दिखना बंद हो गए. सत्ता विरोधी होने की बजाए वे सत्ता का हिस्सा बन गए, उसका गुणगान करने लगे और अंतत: पारंपरिक और 'गंदी’ राजनैतिक सत्ता का खुद ही आभास देने लगे.
आप खुद ही तय कर सकते हैं कि किसने अपने पैर में ज्यादा कुल्हाड़ी मारी-सोनिया गांधी की कांग्रेस या स्वयंसेवी संस्थाओं ने. सोनिया ने अपनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) में उन्हें मिला लिया और वे खुद को कैबिनेट मंत्रियों से ज्यादा ताकतवर समझते हुए लुटियंस दिल्ली के आकाश पर छाने लगे. इन संस्थाओं ने सोनिया के पसंदीदा कानूनों के दस्तावेज तैयार किए और हालत यह हो गई कि इनमें मामूली संशोधन के लिए भी कैबिनेट को उनके सामने घुटने टेकने पड़े.
मैं यह नहीं कहना चाहता कि एनएसी के किसी सदस्य ने निजी फायदे के लिए ऐसा किया होगा, लेकिन उनमें एक अक्खड़पन जरूर था, जैसे उन्हें नीतियां बनाने का कोई ईश्वरीय वरदान मिल गया हो जबकि देश ने इसके लिए जनादेश नहीं दिया था. इन्होंने सोनिया की सरकार और प्रधानमंत्री का मजाक बना डाला, उसकी तमाम उपलब्धियों की उपेक्षा कर दी, यहां तक कि गरीबी और कुपोषण के आंकड़ों में आई नाटकीय कमी का भी मखौल उड़ाया.
पिछले कुछ हफ्तों में आई कई रिपोर्टों ने इस रुझान की पुष्टि की है लेकिन यूपीए के दरबारी एक्टिविस्टों ने कभी भी इन रिपोर्टों का असर नहीं होने दिया. कोई पार्टी अपने साथ क्या करती है, वह उसकी अपनी समस्या है. अगर वह अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने को आमादा है तो हम आंसू क्यों बहाएं? इस परिपाटी ने दूसरे एक्टिविस्टों के लिए रास्ते खोल दिए. इनका नेतृत्व अण्णा और अरविंद केजरीवाल कर रहे थे. इन्हें लगा कि ये भी कानून बना सकते हैं. फिर इन्हें लगा कि कानून ही क्यों, चुनाव भी लड़ सकते हैं और खुद ही सत्ता में आ सकते हैं.
देश का आधा नागरिक समाज सत्ताधारी पार्टी के रथ पर सवार हो गया जबकि शेष चुनाव लडऩे में जुट गया. इस तरह नागरिक समाज ने अपना सबसे बहुमूल्य ब्रांड सत्ता विरोधी होने का गुण गंवा दिया. इसके बाद उसके हाथ से मीडिया गया, फिर न्यायपालिका की नजरें तिरछी हुईं और अंतत: सामान्य जन के साथ उसका रिश्ता टूट गया. आज देश की सत्ता में उभरा दक्षिणपंथ नागरिक समाज के ताबूत में आखिरी कील ठोकने की चेतावनी दे रहा है और एक अधीर मध्यवर्ग इस आग में घी का काम कर रहा है.
इन बरसों के दौरान 'झोलावालों’ के साथ किए बहस-मुबाहिसों के बाद मुझे लगता है कि मेरी बात इस मसले पर किसी बाहरी की अविश्वसनीय बात जान पड़े, लेकिन नागरिक समाज का तेजी से होता पतन खतरनाक है. किसी भी उदार समाज में संतुलन की जरूरत होती है और इसके लिए नागरिक समाज अनिवार्य होता है. यही वजह है कि सत्यार्थी को मिला नोबेल कहीं ज्यादा योगदान दे पाएगा यदि दूसरे एक्टिविस्ट इस बहाने अपने भीतर झंक सकें और अपनी राह को दुरुस्त कर सकें.
पुनश्च: पिछले हफ्ते हैदर पर लिखे स्तंभ पर आई प्रतिक्रियाओं में एक समान आलोचना यह मौजूद है कि फिल्मकार की तरह मैंने भी कश्मीरी पंडितों को नजरअंदाज कर दिया. इसमें शक नहीं कि कश्मीरी पंडितों के साथ हुआ अन्याय और उनका सामूहिक निर्वासन बंटवारे के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी है. इस मामले में देशकाल के आईने में राजनीति को देखकर कुछ स्पष्ट राय बनाई जा सकती है. पंडितों ने 1990 में जब राज्य छोड़ा, उस वक्त जगमोहन राज्यपाल थे.
कश्मीर समस्या के इतिहास में अकेले वे ही थे जिन्होंने विदेशी मीडिया के प्रवेश पर बंदिश लगाई थी. आप जगमोहन को कुछ भी कह लें, लेकिन नरम या मुस्लिम समर्थक नहीं कह सकते. उस वक्त प्रधानमंत्री थे वी.पी. सिंह, जो बीजेपी के समर्थन से एक कमजोर सरकार को टिकाए हुए थे. समझ आया?
फिल्म 1995-96 के दौर पर आधारित है जब भारतीय सत्ता का सबसे बर्बर चेहरा घाटी में उजागर हो रहा था, जहां संवैधानिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों के लिए कोई जगह नहीं बची थी. उसी दौर में कुका परे के इख्वान के छद्म लड़ाके, बुरी साजिशें, उत्पीडऩ आदि सत्ता की कारगुजारियों को मात दे रहे थे. ये वही साल थे जब उसी भारतीय सत्ता ने पंजाब में इतने ही बर्बर तरीके से आतंकवाद को कुचला था. उस वक्त बीजेपी या कोई दक्षिणपंथी पार्टी नहीं, बल्कि नरसिंह राव की अल्पमत वाली कांग्रेसी सरकार केंद्र में थी.
ये तथ्य एक पुराने ज्ञान को प्रकाशित करते हैं: वह यह कि भारतीय राज्यसत्ता को जब खुद खतरा महसूस होता है, तब वह सबसे ज्यादा बर्बर हो सकती है. शिकार कोई भी बन सकता है. इसका मतलब यह नहीं कि हम कटुता पाल लें या खुद पर तरस खाने लग जाएं.