
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की स्थापना को आज 131 साल हो गए हैं. देश की आजादी की लड़ाई का नेतृत्व करने और आजाद भारत पर सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली ये पार्टी आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. 543 सदस्यों वाली लोकसभा में उसके महज 44 सांसद हैं. जिस पार्टी ने देश को सात-सात प्रधानमंत्री दिए उसे इस बार नेता प्रतिपक्ष का पद तक नहीं मिला. आज जबकि पार्टी 132वां स्थापना दिवस मना रही है तो उन कारणों पर नजर डालना जरूरी है जिनके चलते उसकी ये दुर्गति हुई है.
1. मूल सिद्धांतों से भटकाव
कांग्रेस से वोटरों का मोहभंग होने का सबसे बड़ा कारण उसका अपने मूल सिद्धांतों से भटकना माना जाता है. गरीबों-किसानों की बात करने वाली पार्टी पर कॉरपोरेट कल्चर हावी हो गया. देश में उदारीकरण का दौर नरसिम्हा राव सरकार की आर्थिक मजबूरी हो सकती है लेकिन उसने देश के साथ-साथ कांग्रेस नेताओं का कलेवर और पार्टी का कल्चर भी बदलकर रख दिया. इसकी परिणिति मनमोहन सरकार के राज में हुई जब 2जी, कोलगेट जैसे अरबों-खरबों के घोटाले सामने आए और उनमें सरकार और कॉरपोरेट गठजोड़ की कलई खुली.
2. पारंपरिक वोटरों का छिटकना
दलित, पिछड़ा वर्ग, मुस्लिम कभी कांग्रेस का कोर वोटर माना जाता था. लेकिन वी पी सिंह के मंडल और बीजेपी के कमंडल की राजनीति में पार्टी ऐसे फंसी कि न इधर की रही और न उधर की. नतीजा इन वर्गों की नई और स्वतंत्र लीडरशिप तैयार हुई. आज बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल, एमआईएम जैसी पार्टियों का वोटर कभी कांग्रेस का समर्पित वोटर माना जाता था. यही बात किसान वोटरों के बारे में कही जा सकती है क्योंकि कांग्रेस में दलित, पिछड़े, किसान नेताओं को वो जगह नहीं मिली जिसके वो हकदार थे.
3. जमीनी जुड़ाव खत्म होना
सत्ताधारी पार्टी की एक बड़ी कमजोरी ये होती है कि उसकी पहली प्राथमिकता सरकार बन जाती है, न कि संगठन. कांग्रेस को भी इसका नतीजा भुगतना पड़ा है. कभी कांग्रेस की ताकत माने जाने वाले युवक कांग्रेस और एनएसयूआई जैसे संगठन मनमोहन की सरकार के 10 साल में हाशिये पर पहुंच गए. नतीजा ये हुआ कि पार्टी उस समर्पित कैडर से हाथ धो बैठी जो चुनावों में वोटरों को पोलिंग बूथ तक लाने और अहम मुद्दों पर विरोध-प्रदर्शनों को सफल बनाने के लिए सीधे जिम्मेदार होता है.
4. बड़े मुद्दों पर फ्लॉप शो
पिछले ढाई साल की ही बात करें तो कांग्रेस को कई बार ऐसा मौका मिला है जब वो संसद से लेकर सड़क तक बड़ा आंदोलन छेड़ सकती थी लेकिन मोदी सरकार के खिलाफ कांग्रेस का विरोध संसद और राहुल की रैलियों की रस्मअदायगी तक टिका हुआ है. देश में रैलियों में किस तरह भीड़ जुटाई जाती है, ये बताने की जरूरत नहीं है. ऐसे में जनता से पार्टी का सीधा संवाद स्थापित नहीं हो पाता. ये हालत राज्यों में भी है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य जहां लंबे समय से कांग्रेस विपक्ष में है वहां भी कांग्रेस कोई प्रभावी अभियान सरकार के खिलाफ छेड़ने में विफल रही है. नतीजा हर विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के हाथ से एक के बाद एक राज्य खिसकता चला जा रहा है.
5. नई लीडरशिप का अभाव
पिछले दो दशकों में कांग्रेस के राजेश पायलट, माधव राव सिंधिया, वाईएस राजशेखर रेड्डी जैसे युवा और सक्षम नेता असमय मौत का शिकार हो गए. वहीं ममता बनर्जी, शरद पवार जैसे क्षत्रपों ने अपनी अलग राह चुन ली. इसके बाद कांग्रेस में नई लीडरशिप पैदा नहीं हो पाई. खासकर ऐसा नेता जो जनता से उसकी भाषा में संवाद स्थापित कर सके. मनमोहन सरकार के बारे में माना जाता है कि उसके कई मंत्रियों का कामकाज और ट्रैक रिकॉर्ड शानदार रहा लेकिन उनमें अपने कामकाज को जनता के बीच ले जाने और उस तक अपनी बात पहुंचाने की काबिलियत नहीं थी. कांग्रेस में राजनीतिज्ञ तो कई हैं लेकिन राजनेता की कमी का खामियाजा पार्टी भुगत रही है.
6. कार्यकर्ताओं से जुड़ाव
कांग्रेस में लीडरशिप का मतलब आज भी गांधी परिवार या सोनिया गांधी का आधिकारिक निवास 10 जनपथ माना जाता है. लेकिन खुद पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी तक कार्यकर्ताओं की पहुंच सीमित है. आम नेता-कार्यकर्ता की बात तो छोड़िए राज्य के मुख्यमंत्रियों तक का सोनिया-राहुल से मिलना आसान नहीं है. सोनिया गांधी स्वास्थ्य कारणों से ज्यादा सक्रिय नहीं हो सकतीं और हाल ही में जो बड़े नेता पार्टी छोड़कर गए हैं उन्होंने सबसे बड़ा कारण राहुल गांधी तक आसान पहुंच न होना बताया है.
7. राहुल बनेंगे अध्यक्ष, मगर कब?
राहुल गांधी कांग्रेस का भविष्य हैं ये सब जानते हैं लेकिन 10 साल से भी ज्यादा समय से राजनीति में सक्रिय होने के बावजूद खुद कांग्रेस के अंदर राहुल को पार्टी की कमान सौंपने पर सहमति नहीं बन पा रही है. यही वजह है कि बार-बार राहुल की ताजपोशी की तारीख मीडिया में आती है और बार-बार कांग्रेस इसके लिए सही समय का इंतजार करने की बात कहकर इसका खंडन कर देती है. सवाल है कि जिस नेता को खुद कांग्रेस अपना एकमात्र मुखिया चुनने में हिचक रही है उसे जनता या देश अपना मुखिया किस भरोसे से चुने?
8. गांधी परिवार पर करप्शन का वार
आजादी के बाद का कांग्रेस का इतिहास देखें तो इसे सबसे बड़ी चोट राजीव गांधी पर बोफोर्स तोप सौदे में दलाली का आरोप लगने से पड़ी. पार्टी सत्ता से बाहर हुई और वी पी सिंह प्रधानमंत्री बने. इसके बाद पार्टी केंद्र में कभी भी पूर्ण बहुमत से सरकार नहीं बना पाई. मनमोहन सरकार में हुए बड़े घोटालों के लिए जिस तरह विपक्ष ने सोनिया और राहुल पर हमले किए, नेशनल हेराल्ड केस में इन दोनों नेताओं को जमानत लेने के लिए मजबूर होना पड़ा और ऑगस्ता हेलीकॉप्टर घोटाले में जिस तरह बीजेपी के निशाने पर गांधी परिवार है, उससे इस परिवार की छवि को जबर्दस्त धक्का पहुंचा है. बची हुई कसर प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा पर लगे आरोपों ने कर दी है. इन सभी मामलों में कांग्रेस और खुद गांधी परिवार को जिस पारदर्शिता के साथ जनता के बीच जाना था, वैसी उसने नहीं दिखाई.
9. राहुल गांधी का नेतृत्व
कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी में उस करिश्माई नेतृत्व का अभाव है जो देश ने पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी में देखा था. राहुल गांधी न तो ऐसा करिश्मा रखते हैं और न ही उनमें राजीव गांधी और सोनिया गांधी जैसी काबिलियत और सक्रियता दिखती है. उनमें एक अनमना राजनीतिज्ञ नजर आता है जिसे परिवार की राजनीतिक विरासत आगे बढ़ाने के लिए जबर्दस्ती पार्टी की कमान सौंप दी गई हो. उनकी भलमनसाहत पर सवाल भले न उठते हों लेकिन वे जनता से संवाद स्थापित करना नहीं जानते. यही नहीं, दूसरे विपक्षी नेताओं को अपने साथ जोड़कर रखने की सोनिया जैसी दक्षता भी उनमें नहीं दिखती. इसका नजारा कुछ दिन पहले तब दिखा जब पीएम मोदी पर करप्शन के आरोप लगाने के अगले ही दिन वे पार्टी के प्रतिनिधिमंडल को लेकर उनसे मिलने पहुंच गए और विपक्ष की नोटबंदी को लेकर सदन में बनी एकता टूट गई.
10. अतीत का बोझ
कांग्रेस देश पर सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली पार्टी रही है, देश में आजादी के बाद जो भी विकास और अच्छे काम हुए हैं वो उसका श्रेय लेती है लेकिन इसी के साथ उसे देश की मौजूदा समस्याओं के लिए भी जिम्मेदार ठहराया जाता है. आज भी जब-जब राहुल गांधी की ओर से प्रधानमंत्री मोदी या उनकी सरकार को निशाना बनाया जाता है तो बीजेपी उन्हें अपने परिवार और पार्टी का इतिहास याद करने की नसीहत देती है. ललित मोदी के मुद्दे पर जब राहुल गांधी ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पर वार किए तो सुषमा ने उन्हें एंडरसन और क्वात्रोची याद दिला दिए. कांग्रेस के पास इन हमलों का कोई जवाब नहीं होता. यहां भी उसकी लीडरशिप की अक्षमता और अनुभवहीनता झलकती है, जिसका खामियाजा पार्टी आज भुगत रही है.