इन दोनों तारीखों में बड़ा फर्क है—10 जुलाई, 2014, जब वित्त मंत्री अरुण जेटली ने नरेंद्र मोदी सरकार का पहला बजट पेश किया था, और इस साल की 28 फरवरी, जब वे बजट पेश करने दूसरी बार खड़े होंगे. उनके पिछले बजट की कई भूल-चूक को माफ कर दिया गया था, जिनमें पूर्व प्रभाव से लागू होने वाले बेहद कठोर कर प्रस्तावों को खत्म करने के लिए कोई ठोस कदम उठाने की नाकामी भी थी. लेकिन तब सरकार मई में ही सत्ता में आई थी और उसे अपनी सारी मंशाओं को जाहिर करने वाला बजट बनाने का समय नहीं मिला था. इस बार मामला अलग है. जानकार मानते हैं कि आर्थिक गड़बडि़यों को बखूबी समझकर उन्हें दुरुस्त करने के उपाय खोजने के लिए सत्ता में नौ माह का वक्तकम नहीं होता.
सरकार खुशनसीब है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे पेट्रोलियम तेल की कीमतों में तेज गिरावट आई. कीमतें जुलाई, 2014 के 114 डॉलर प्रति बैरल के मुकाबले 50 डॉलर प्रति बैरल से भी नीचे आ गईं. इससे मुद्रास्फीति पर लगाम लगी और चालू खाते का घाटा (यानी आयात और निर्यात के मूल्य का फर्क) कम हुआ. भारतीय रिजर्व बैंक का अनुमान है कि वित्त वर्ष 2014-15 में चालू खाते का घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.3 फीसदी रहेगा, जो 2013-14 के 1.7 फीसदी से कम है. यही नहीं, मार्च 2015 में खत्म होने वाले साल में राजकोषीय घाटा (सरकार की आमदनी और खर्च का अंतर) जीडीपी का 4.1 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया है, जो एक साल पहले 4.5 फीसदी था.
जहां तक महंगाई की बात है, तो भारत का थोक मूल्य सूचकांक अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के पीछे-पीछे तीन माह में दूसरी बार जनवरी में 0.39 फीसदी गिर गया. इससे उम्मीदें बढ़ गईं कि रिजर्व बैंक फिर ब्याज दरों में कमी कर सकता है, जैसा उसने जनवरी में किया था. फरवरी में जारी सरकार के नए आंकड़ों में बताया गया कि अक्तूबर-दिसंबर 2014 में भारत की जीडीपी वृद्धि दर 7.5 फीसदी रही, यानी वृद्धि चीन के 7.3 फीसदी से ज्यादा तेज रफ्तार से हुई. मौजूदा वित्त वर्ष के लिए आकलन के नए तरीके से जीडीपी की वृद्धि दर 7.4 फीसदी रहने का अनुमान जताया गया है. हालांकि आरबीआइ के गवर्नर रघुराम राजन ने पुराने तरीके का इस्तेमाल करते हुए यह आंकड़ा 5.5 फीसदी पर ही रखा है.
कर ढांचे को सरल बनाएंइस पृष्ठभूमि में इंडिया टुडे ने जितने भी अर्थशास्त्रियों और कॉर्पोरेट कप्तानों से बात की, उनमें से ज्यादातर की राय इस बारे में मिलती-जुलती थी कि 2015-16 का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री की प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए. ज्यादातर ने साफ तौर पर मांग की कि करों की संख्या में कटौती की जाए और वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) को अप्रैल, 2016 तक लागू किया जाए. रिसर्च फर्म इंडिकस एनालिटिक्स के मुख्य अर्थशास्त्री लवीश भंडारी कहते हैं, ''प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह के कराधान को ज्यादा सरल बनाने की जरूरत है.
यहां अहम बात उनका कारगर होना है, इसलिए कर की दरें न बहुत ज्यादा नीची होनी चाहिए और न बहुत ज्यादा ऊंची, क्योंकि तब लोग कर चोरी को प्रेरित होंगे'' वे यह भी कहते हैं कि अच्छी कर व्यवस्था में कम से कम छूट या रियायतें देने की जरूरत होती है. कॉर्पोरेट जगत न्यूनतम वैकल्पिक कर (एमएटी) को लेकर भी काफी नाराज है. गोदरेज इंडस्ट्रीज के चेयरमैन आदि गोदरेज कहते हैं, ''जीडीपी वृद्धि में निवेश करने के लिए उद्योगों के प्रोत्साहित नहीं होने की एक अहम वजह है एमएटी. एमएटी को उसकी मौजूदा दर (18.5 फीसदी) से घटाकर आधा कर दिया जाना चाहिए.''
येस बैंक की सीनियर प्रेसिडेंट और चीफ इकोनॉमिस्ट शुभदा राव चाहती हैं कि सरकार मेक इन इंडिया और स्मार्ट सिटी सरीखे बेहद महत्वाकांक्षी विजन कार्यक्रमों के लिए चरणबद्ध कर रियायतें प्रदान करे. वहीं टाटा कम्युनिकेशंस के चेयरमैन सुबोध भार्गव कहते हैं कि अधिक जोर प्रमुख योजनाओं को क्रियान्वित करने पर होना चाहिए. वे यह भी कहती हैं कि हाल ही में दिल्ली में हुए चुनावों ने साफ-साफ बता दिया है कि अब समय आ गया है जब केंद्र सरकार के मंत्रियों और मंत्रालयों को अपनी-अपनी योजनाओं को तेजी से आगे बढ़ाने के लिए सशक्त बनाया जाए.
निवेश के माहौल को बढ़ावा दें
कॉर्पोरेट जगत के अगुआ और अर्थशास्त्रियों की एक और प्रमुख मांग है निवेश को बड़े पैमाने पर बढ़ाने के हालात पैदा करना. यूपीए सरकार के आखिरी तीन साल भ्रष्टाचार के आरोपों और नीतिगत लकवाग्रस्तता के साल थे, जिससे निवेशकों ने मुंह फेर लिया और प्रमुख क्षेत्रों में निवेश के लाले पड़ गए. आर्सेलर-मित्तल समूह की 40,000 करोड़ रु. की ओडिसा स्टील प्लांट और पोस्को की 30,000 करोड़ रु. की कर्नाटक स्टील मिल सरीखी बड़ी परियोजनाएं 2013 में रद्द कर दी गईं. मोदी सरकार के आते ही कारोबार के लिए अनुकूल माहौल और निवेश की प्रेरणा बढ़ी है. देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) का आना बढ़ा है और यह 2013 के 28 अरब डॉलर से बढ़कर 2014 में 42 अरब डॉलर हो गया है.
इसके बावजूद कई लोग महसूस करते हैं कि सरकार को जमीनी हालत में सुधार लाने के लिए और भी बहुत कुछ करना चाहिए. भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) के अध्यक्ष अजय श्रीराम कहते हैं कि सरकार को निवेश के साथ-साथ उपभोग और बचत को भी बढ़ावा देना चाहिए. रेटिंग फर्म क्रिसिल के चीफ इकॉनोमिस्ट डी.के.जोशी के मुताबिक राजकोषीय शुचिता या संतुलन बनाए रखने के साथ निवेश बढ़ाने का अच्छा तरीका यह है कि सब्सिडियों में कटौती की जाए और उन्हें पूंजीगत खर्चों में बांट दिया जाए. मारुति सुजुकी इंडिया के चेयरमैन आर.सी. भार्गव कहते हैं कि बजट प्रावधानों के जरिए उत्पादन क्षेत्र को ज्यादा प्रतिस्पर्धी बनाना चाहिए और बगैर कोई मूल्य बढ़ाए लागत बढ़ाने वाली चीजों को हटाना चाहिए.
भारी-भरकम सुधार अभी नहीं
भारी-भरकम ऐलानों की बजाए कर ढांचे को सरल बनाने और भरोसे का निर्माण करते हुए निवेश का माहौल सुधारने सरीखे बुनियादी उपाय इस बजट के लिए ज्यादा अहम हैं. इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (आइजीआइडीआर) में प्रोफेसर आशिमा गोयल को बुनियादी ढांचे के लिए धन जुटाने के कुछ अभिनव उपायों और जीएसटी को लेकर कुछ कार्यवाही के अलावा सरकार से किन्हीं बड़े सुधारों की शुरुआत की उम्मीद नहीं है.
उधर भंडारी मानते हैं कि सरकार न तो तैयार है और न ही उसके पास वह बौद्धिक क्षमता है, जिससे वह बड़े सुधारों के लिए जरूरी ऊंचे दर्जे की नफासत हासिल कर सके. इसलिए सही तरीका यही होगा कि भारी-भरकम सुधारों में हाथ डालने की बजाए छोटे-छोटे नीतिगत बदलाव करते रहा जाए, जिससे नई और युवा सरकार को सीखने और सीखते हुए आगे बढ़ने का मौका मिल जाएगा.
सबसे अहम रोजगार सृजन
निवेश का बेहतर माहौल बनाने और बिजनेस को बढ़ावा देने से अगला बड़ा मसला अपने आप हल हो जाएगा और वह है रोजगार. भारत में हर साल 1.2 करोड़ लोग रोजगार बाजार में आ जुड़ते हैं. लिहाजा, काम के अवसर और रोजगार की गुंजाइश पैदा करना बेहद जरूरी है. गोदरेज कहते हैं, ''अगर जीडीपी की वृद्धि दर बढ़ती है, तो नौकरियों के अवसर अपने आप बढ़ जाएंगे.'' इसके साथ ही वे उत्पादन क्षेत्र को प्रोत्साहित करने की जरूरत पर जोर देते हैं.
गोयल कहते हैं कि आवास निर्माण क्षेत्र और बुनियादी ढांचे पर जोर देने से निर्माण क्षेत्र में नौकरियों का भारी विस्तार होगा. दूसरी तरफ, भंडारी मानते हैं कि भारत में नौकरियां ज्यादातर असंगठित क्षेत्र में पैदा होती हैं, और यह क्षेत्र तभी अच्छा काम करता है जब कानून-व्यवस्था और बुनियादी ढांचे उसके रास्ते का रोड़ा न बनें. आदित्य बिरला समूह के चीफ इकोनॉमिस्ट अजित रानाडे कहते हैं, ''निर्माण, पर्यटन, टेक्सटाइल और कृषि पर जोर दिया जाना चाहिए, क्योंकि ये श्रम प्रधान क्षेत्र हैं. इन्हीं में लोगों को ज्यादा और टिकाऊ रोजगार देने की क्षमता है.'' वे यह भी कहते हैं कि विशाल पैमाने पर नौकरियां या आजीविका के अवसर कुटीर, लघु और मझोले उद्योगों से ही पैदा होंगे, न कि बड़ी कॉर्पोरेट कंपनियों की वजह से इस मामले में कोई अहम फर्क दिखेगा.
मोदी सरकार को अर्थशास्त्रियों और कॉर्पोरेट जगत का संदेश साफ है—निवेश बढ़ाने, उपभोक्ता खपत और बचत में सुधार के तरीके निकालो, कारोबार पर नीतियों की बंदिश कम-से-कम लगाओ और कर ढांचे को सरल बनाओ. संक्षेप में, अपने ही नारे पर चलो—न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन. अगर यह करने में कामयाब हो गए तो शर्तिया नौकरियां और वृद्धि फिर पीछे-पीछे चली आएंगी.