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शौचालय जो सिर्फ कागजों में दर्ज हैं

भारत के गांवों में सरकार की ओर से बनाए गए तकरीबन 43 फीसदी शौचालय गायब हैं या फिर बेकार हो चुके हैं.

रवीश तिवारी
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  • 07 अक्टूबर 2014,
  • अपडेटेड 3:09 PM IST

भारत में वर्षों से विभिन्न स्वच्छता कार्यक्रम चलते रहे हैं और ये सभी देश को खुले में शौच जाने की आदत से मुक्ïत कराने का वादा भी करते रहे हैं. लेकिन ताजा आंकड़े तो कुछ और ही इशारा कर रहे हैं. ये आंकड़े बताते हैं कि पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने इस समस्या से निपटने के लिए करदाताओं का जो धन खर्च किया है, उसमें से अधिकांश पैसा गायब हो चुके शौचालयों में बह गया है. 2011 की जनगणना से लगता है कि भारत के दो तिहाई से अधिक गांवों में परिवारों के लिए अलग शौचालय (आइएचएचएल) उपलब्ध नहीं है. पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के नवीनतम सर्वे का परिणाम भी कुछ अलग नहीं है. इस सर्वे से भी यही पता चलता है कि भारत के करीब 60 फीसदी गांवों में घरों के भीतर शौचालय नहीं है.

केंद्र सरकार 1999 से गांवों में शौचालय बनाने के लिए धन दे रही है. इस धन से अब तक 9 करोड़ 73 लाख शौचालय बनाने का दावा किया गया है, लेकिन पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के 2012 के सर्वेक्षण से पता चलता है कि इनमें से कम-से-कम 2.764 करोड़ शौचालयों का वास्तविक जमीन पर कोई वजूद ही नहीं है और 1.415 करोड़ शौचालय बेकार पड़े हुए हैं, जिनका इस्तेमाल करना मुमकिन नहीं है. इसका सीधा सा अर्थ यह है कि 4.179 करोड़ से अधिक शौचालयों के निर्माण पर जो भी पैसा खर्च हुआ, उससे शौचालय बनाने का लक्ष्य सरकारी फाइलों में भले पूरा हो गया हो, लेकिन इसे बनाने का मकसद पूरा नहीं हुआ है. केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी ने 25 अगस्त को राज्यों के मंत्रियों के सम्मेलन में स्वीकार किया, ''सच तो यह है कि इनमें से कुछ शौचालय गोदाम बन चुके हैं."  इस सम्मेलन से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वपूर्ण 'स्वच्छ भारत मिशन' का खाका तैयार करने में मदद मिली.

शौचालय निर्माण के काम की इस असफलता का असर देश के तमाम गांवों में नजर आ रहा है. बिहार के नवादा जिले में निर्मलवीघा नाम का एक गांव है. इस गांव के करीब 1,400 परिवार आज भी खुले में शौच जाने के लिए मजबूर हैं क्योंकि सरपंच और उसके दो समर्थकों के परिवारों को छोड़कर और किसी के लिए शौचालय सुलभ नहीं है. स्थानीय निवासी 65 वर्षीय तनिक मांझी कहते हैं, ''सरकार ने करीब 100 दलित परिवारों में शौचालय बनवाए, लेकिन वे 100 दिन भी नहीं चले. उनमें न छत है और न दरवाजा. शौचालयों की गहराई भी सिर्फ दो से तीन फुट है. दीवारें इतनी कमजोर थीं कि पहली ही बारिश में ढह गईं."

सरकार का अनुमान है कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत खुले में शौच को पूरी तरह खत्म करने का लक्ष्य हासिल करने के लिए अगले पांच साल में करीब 11.1 करोड़ नए आइएचएचएल बनवाने होंगे. मंत्रालय ने इस दौरान शौचालय बनाने के लिए मदद पाने योग्य करीब 8.84 करोड़ परिवारों की पहचान भी कर ली है. मतलब सरकार के पैसे से हर साल 177 लाख शौचालय बनाने होंगे. तब कहीं जाकर 2 अक्तूबर, 2019 तक पांच वर्ष में यह लक्ष्य पूरा हो सकेगा. इसका अर्थ है कि सरकार को रोजाना करीब 50,000 शौचालय बनवाने होंगे.

इसी के साथ शहरी विकास मंत्रालय भी 4,000 से अधिक निर्धारित कस्बों में शहरी परिवारों के लिए 1.04 करोड़ शौचालय और बनवाना चाहता है. इस तरह कुल शौचालयों का आंकड़ा और बढ़ जाएगा. यह काम कितना बड़ा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले वित्त वर्ष में सरकार गांवों में सिर्फ 50 लाख आइएचएचएल ही बनवा सकी. एक साल में बने सबसे अधिक शौचालयों का रिकॉर्ड वर्ष 2009-10 में बने 1.24 करोड़ शौचालयों का था, जो नए संशोधित लक्ष्य से बहुत कम है.

इनमें से हरेक शौचालय के निर्माण के लिए 12,000 रु. की सहायता का वादा किया गया है. इसलिए अगर ठीक ढंग से काम किया जाए तो गांवों में स्वच्छ भारत मिशन पर सरकार को अगले पांच वर्ष में लगभग एक लाख करोड़ रु. खर्च करने पड़ेंगे. इसमें से 75,000 करोड़ रु. केंद्र्र सरकार देगी और बाकी हिस्सा राज्य सरकारों के बीच बराबर बांटा जाएगा. भारत के शहरों के लिए मंत्रिमंडल ने अगले पांच वर्ष में 62,000 करोड़ रु. से अधिक के खर्च का अनुमान लगाया है. इसमें से अधिकांश बोझ् राज्य सरकारें सार्वजनिक-निजी भागीदारी के जरिए उठाएंगी.

बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था करने के साथ-साथ स्वच्छ भारत मिशन स्वच्छता के प्रति भारत के लोगों का नजरिया बदलना चाहता है. सरकार सफाई और खुले में शौच करने के प्रति लोगों की सोच बदलने के लिए जनांदोलन छेडऩा चाहती है. इस काम से जुड़े एक अधिकारी कहते हैं, ''हमारा इरादा गांव के लोगों में शर्मिंदगी और अस्वीकृति का भाव पैदा करने का है ताकि काम करने लायक शौचालयों की मांग पैदा हो सके. ऐसा होने पर ही भारत 2019 तक स्वच्छ हो सकता है." लेकिन अगर यहां जनांदोलन सफल हो गया तो भी लाखों का सवाल यही रहेगा- क्या इतने शौचालय होंगे कि यह सपना सच लगने लगे?

— साथ में अशोक कुमार प्रियदर्शी

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