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आतंकियों के हाथ एटम बम लगने का अंदेशा

कट्टरवादी और जेहादी ताकतों के रेडियोधर्मी पदार्थों वाले संस्थानों में सेंध लगाने की लगातार कई कोशिशों से भारत के लिए परमाणु आतंकवाद का खतरा मुंह बाए खड़ा है. अमेरिका में हुए चौथे परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में भी इस विषय पर चर्चा की गई कि परमाणु हमला करने की मंशा रखने वाले आतंकवादियों से इस दुनिया को कैसे निबटना होगा.

राज चेंगप्पा
  • वाशिंगटन डीसी,
  • 08 अप्रैल 2016,
  • अपडेटेड 5:01 PM IST

अमेरिका के वॉल्टर ई. वाशिंगटन कन्वेंशन सेंटर के सभागार में जब रौशनी मद्धिम हुई और सिर के ठीक ऊपर लगे विशाल परदे पर फिल्म चलनी शुरू हुई, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत 50 राज्याध्यक्षों की निगाह एक साथ वहां जा टिकी. ये सभी नेता चौथे परमाणु सुरक्षा सम्मेलन में 1 अप्रैल को हिस्सा लेने के लिए वाशिंगटन डीसी में जमा हुए थे. इससे ठीक पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सभागार से मीडिया को बाहर भेज दिया था और वहां मौजूद नेताओं को सूचित किया था कि यह फिल्म आतंकवादियों द्वारा एक संभावित परमाणु हमले और उसके बाद पैदा होने वाली स्थितियों का आकलन करने के लिए बनाई गई है. इस फिल्म को देखना युद्ध पर आधारित किसी वीडियो गेम में हिस्सा लेने जैसा था जहां नेताओं को आसन्न परमाणु हमले पर अपनी प्रतिक्रियाएं देनी थीं.

फिल्म के एक दृश्य पर सभी का मुंह खुला का खुला रह जाता है जब आतंकवादी क्रॉप डस्टर उड़ा रहे होते हैं और चिकित्सा संस्थानों से प्राप्त जानलेवा रेडियोधर्मी पदार्थ का छिड़काव एक सघन रिहाइशी इलाके पर करते हैं जिससे लोगों में भयानक बीमारी फैलती है और उनकी मौत हो जाती है. फिल्म इस हल्के संदेश के साथ समाप्त होती है कि रेडियोधर्मी पदार्थों के इस्तेमाल से बड़े पैमाने पर जनता पर हमला करने की मंशा रखने वाले आतंकवादियों से इस दुनिया को कैसे निबटना होगा, जैसा कि फिल्म में अनुमान लगाया गया है.

एक रेडियोलॉजिकल डिसपर्सल डिवाइस (रेडियोधर्मी पदार्थ फैलाने वाला उपकरण) या लोकप्रिय भाषा में कहें तो डर्टी बम या शैतानी बम के घटक वही आइसोटोप होते हैं जिनसे कैंसर का इलाज होता है और ब्लड ट्रांसफ्यूजन संभव होता है. इन आइसोटोप को जब विस्फोटकों के साथ मिलाकर एक शहरी केंद्र के पास छोड़ दिया जाता है तो इससे होने वाले विस्फोट में आसपास रहने वाले लोगों की मौत हो जाती है. विस्फोट के बाद इससे होने वाला रेडियोधर्मी उत्सर्जन दो वर्ग किलोमीटर के दायरे में भयंकर बीमारियां फैला देता है-यह दिल्ली के कनॉट प्लेस जितना बड़ा इलाका हो सकता है-जिससे हजारों लोग बीमारियों की चपेट में आ सकते हैं. यह अपने पीछे इस इलाके में सक्रिय रेडियोधर्मी अवशेष छोड़ जाता है.

इससे भी बुरी बात यह है कि उक्त इलाके को बरसों तक घेर कर रखा जाता है जब तक कि आपदा प्रबंधन बल के लोग सुरक्षा कवच पहनकर उस इलाके को संक्रमण से पूरी तरह साफ नहीं कर देते. यह एक ऐसा परमाणु विनाश होगा जिसे यह दुनिया गवारा नहीं कर सकती. ऐसे किसी भी हमले के कई बरस बाद तक इसके मनोवैज्ञानिक, राजनैतिक और आर्थिक परिणामों को महसूस किया जाता रहेगा.

सभागार में फिल्म के दौरान मौजूद एक वरिष्ठ भारतीय अधिकारी ने इंडिया टुडे को बताया कि फिल्म खत्म होने के बाद मोदी उन शुरुआती नेताओं में थे जिन्होंने टिप्पणी की. उन्होंने कहा, “आतंकवादियों को ऐसे जनसंहारक हथियारों के इस्तेमाल से रोकने का इकलौता तरीका है अंतरराष्ट्रीय सहयोग और कार्रवाई, जिसमें सूचना और खुफिया जानकारियों का आदान-प्रदान शामिल हो तथा खतरे से निबटने के लिए बड़े पैमाने पर मानव संसाधन को तैयार किया जा सके.”

मोदी के बाद जितने भी नेताओं ने अपनी बात रखी, उन सभी का एक स्वर में कहना था कि ओबामा ने जिसे दुनिया के समक्ष अब तक मौजूद “सबसे बड़ी चुनौतियों में एक करार दिया है, उससे लड़ने का इकलौता तरीका सामूहिक कार्रवाई ही है. मुंबई, पेरिस और हाल में ब्रसेल्स और लाहौर में हुए हमले इस बात का साफ संकेत हैं कि आतंकवादी अब कहीं ज्यादा बड़े और चौंकाने वाले हमलों की फिराक में हैं. सम्मेलन में इस चिंता की तात्कालिकता को साफ महसूस किया जा रहा था.

आतंकवादियों का किसी परमाणु हमले का खतरा कितना गंभीर है, इसका पता अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आइएईए) द्वारा जुटाई गई सूचनाओं से चलता है जिन्हें परमाणु और रेडियोधर्मी तत्वों के एक इन्सिडेंट ऐंड ट्रैफिकिंग डाटाबेस (आइटीडीबी) में सम्मिलित किया गया है. ताजा आंकड़े 31 दिसंबर, 2014 तक के उपलब्ध हैं, जिनके मुताबिक, आइटीडीबी ने दुनिया भर में 1993 से लेकर इस तारीख तक संवेदनशील परमाणु सामग्री और रेडियोधर्मी स्रोतों के अनाधिकारिक स्वामित्व और चोरी समेत संबंधित आपराधिक गतिविधियों के कुल 2,734 पुष्ट मामले सामने आए हैं. आइएईए का आकलन है, “आइटीडीबी में दर्ज घटनाएं दिखाती हैं कि परमाणु और अन्य रेडियोधर्मी सामग्रियों की तस्करी हो रही है और इनकी चोरी, लापता होने और अन्य अनाधिकारिक हरकतों जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं.”

भारत के लिहाज से परमाणु आतंकवाद का खतरा वास्तविक है और अब यह मात्र कपोल कल्पना भर नहीं रह गया है. मसलन, भारत के पास विशाल परमाणु सुविधाएं हैं जिसकी क्षमता व्यापक है-परमाणु हथियारों का निर्माण (भारत के पास फिलहाल 120 परमाणु हथियार हैं), बिजली पैदा करने वाले 22 रिएक्टर, जिनमें कुछ हथियारों के लिए परमाणु सामग्री भी पैदा करते हैं, रेडियोधर्मी कचरे का विशाल जखीरा (जल चुका ईंधन) जिसे विशिष्ट भंडारण क्षेत्रों में रखा गया है और 7,000 से ज्यादा संस्थान जो रेडियोधर्मी उपकरणों का प्रयोग करते हैं, जिनमें खासकर निदान (एक्स-रे) और उपचार (कैंसर) करने वाले अस्पताल शामिल हैं.

वैसे तो अधिकतर परमाणु परिसर सख्त निगरानी में हैं और देश में परमाणु सामग्री की आवाजाही पर निगरानी रखने वाली एजेंसियां पर्याप्त सक्षम हैं, फिर भी यह चिंता लगातार इसलिए बढ़ती जा रही है क्योंकि आतंकवादी अब इन संस्थानों और सुविधाओं में सेंध लगाने के लिए ज्यादा सूक्ष्म तरीके अपना रहे हैं और वे आसानी से पकड़ में नहीं आते.

आतंकवादी भारत और बाकी दुनिया में तीन मुख्य तरीकों से नाभिकीय हमले कर सकते हैः

  • परमाणु बम का विस्फोट-या तो किसी राज्य के जखीरे से चुराया गया हथियार हो या फिर हथियारों के लिए तैयार की गई परमाणु सामग्री की तस्करी से बनाया गया कोई परमाणु उपकरण.
  • किसी प्रमुख परमाणु प्रतिष्ठान पर हमला ताकि भारी मात्रा में जानलेवा विकिरण वहां से उत्सर्जित हो सके और तबाही ला सके.
  • किसी शहरी केंद्र में एक शैतानी बम या रेडियोलॉजिकल डिसपर्सल डिवाइस का विस्फोट.
भारतीय परमाणु प्रतिष्ठान कितने सुरक्षित?
भारत में आतंकवादियों के लिए परमाणु हथियार चुरा पाना या परमाणु ऊर्जा विभाग (डीएई) के परिसरों से परमाणु हथियारों में लगने वाली रेडियोधर्मी सामग्री की तस्करी कर पाना और उससे बम बना पाना बेहद मुश्किल है. भारत के परमाणु हथियार कथित तौर पर देश भर में अलग-अलग ठिकानों पर रखे हुए हैं और इन्हें कंक्रीट के मजबूत कवच के भीतर रखा गया है जो किसी शत्रु देश के परमाणु हमले या बंकर तोड़ने वाली मिसाइल से सुरक्षित है. ये ठिकाने जबरदस्त निगरानी में हैं और यहां तक कि इन तक बेहद कम लोगों की पहुंच है.

भारत ने पहले हमला न करने का सिद्धांत अपनाया हुआ है (जिसका मतलब यह हुआ कि दूसरे देश के ऐसे हमले के बाद ही भारत अपनी ओर से परमाणु हमला करेगा), इसलिए यह व्यापक जखीरा एकदम सुरक्षित और ऐसी अनजान जगहों में रखा गया है जिस पर जबरदस्त निगरानी और पहरा है. अगर कभी जंग का खतरा बहुत बढ़ गया, तभी इन्हें मिसाइलों के साथ जोड़ा जाएगा.

भारत में कमान और नियंत्रण की व्यवस्था काफी चुस्त है जो सीधे प्रधानमंत्री (जिनके पास निर्देश देने का कोड मौजूद है) और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद तक जाती है, जो सभी परमाणु हथियारों की आवाजाही पर नियंत्रण रखती है. यह तंत्र बेहद कसा हुआ है और गोपनीयता की आड़ में काम करता है. इसमें सरकार के दूसरे विभाग भी सेंध नहीं लगा सकते, आतंकवादियों की तो बात ही छोड़ दें जिनकी मंशा इन तक पहुंचने की हो सकती है.

यह बात देश भर के उन तमाम परमाणु परिसरों पर भी समान रूप से लागू होती है जहां हथियारों के लिए परमाणु सामग्री तैयार की जाती है और बम बनाया जाता है. यह काम करने वाली दो अहम एजेंसियां हैं-भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बार्क) जो नाभिकीय केंद्र बनाता है और रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ), जो विस्फोटक बनाता है और इनके परिवहन के लिए मिसाइलें तैयार करता है. इन संस्थानों के परिसर “डिफेंस इन डेप्थ” प्रणाली से महफूज हैं, जहां बाड़, अवरोध और सुरक्षा के कई स्तर मौजूद हैं जिसके चलते इनमें सेंध लगा पाना तकरीबन नामुमकिन है. यह बात अलग है कि भारत के अहम रक्षा संस्थान अब भी सुरक्षा के मामले में कमजोर हैं और वहां ज्यादा तगड़ी सुरक्षा की दरकार है, जैसा कि हाल ही में पठानकोट एयरबेस पर हुए आतंकी हमले के दौरान देखने में आया है.

क्या भारत के परमाणु ऊर्जा संयंत्र पर्याप्त महफूज हैं?
बम चुराना तो तकरीबन नामुमकिन है, लेकिन एक खतरा जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, वह यह है कि आतंकवादी वास्तव में एक शैतानी बम बना सकते हैं और इसके लिए हथियार बनाने वाली परमाणु सामग्री या हानिकारक रेडियोधर्मी पदार्थ भारत के परमाणु परिसरों से चुराया जा सकता है. जैसा कि दुनिया भर के परिसरों में होता है, ऐसा कोई भी खतरा “आंतरिक” ही होता है-यानी अंदर के कर्मचारियों की वह भारी संख्या, जो इन संस्थानों में काम करती है और जिसके पास सुविधाओं, पदार्थों और तमाम तरह संवेदनशील सूचनाओं तक आधिकारिक पहुंच होती है.

पिछले हफ्ते हुए वैश्विक सम्मेलन में इसी संदर्भ में यह बात कही गई कि सभी देश अपने कर्मचारियों की निगरानी को और सशक्त करें जो ऑन साइट निगरानी के अलावा भी हो यानी जिससे एकदम सुरक्षित होने के लिए आश्वस्त हुआ जा सके. पिछले महीने ब्रसेल्स में हुए भयावह आतंकी हमले में पता चला कि बेल्जियम के डोएल-4 परमाणु पावर रिएक्टर की सुरक्षा में अगस्त, 2014 में गंभीर लापरवाही बरती गई थी.

माना जा रहा है कि एक कर्मचारी ने एक क्रिटिकल कूलिंग वॉल्व से छेड़छाड़ की थी जिससे टर्बाइन जरूरत से ज्यादा गरम हो गया और नष्ट हो गया. यह हादसा भले ही प्लांट के गैर-नाभिकीय क्षेत्र में हुआ, फिर भी इससे तकरीबन 20 करोड़ डॉलर का नुक्सान हो गया और कई महीनों तक इसे बंद रखना पड़ा. इस शख्स को अब तक पकड़ा नहीं जा सका है, लेकिन जांच में पता चला है कि प्लांट की जांच के लिए जिस बाहरी ठेकेदार को मंजूरी दी गई थी, वह दो साल पहले ही आइएसआइएस के लिए लड़ने चला गया था. डोएल-4 की घटना में हालांकि इसे संदिग्ध नहीं माना जा रहा है, लेकिन यह चिंता का विषय है कि एक संभावित जेहादी अवश्य था जिसकी पहुंच प्लांट के संवेदनशील क्षेत्रों तक थी.

यह डर और ज्यादा बढ़ गया जब पाया गया कि हाल में ब्रसेल्स हमले में शामिल आइएसआइएस के कुछ लोगों के पास कई घंटे का एक जासूसी वीडियो मौजूद था जो नवंबर 2015 में बेल्जियम नाभिकीय अनुसंधान केंद्र के एक वरिष्ठ अधिकारी के घर पर बनाया गया था, जहां हाइली एनरिच्ड यूरेनियम (एचईयू) की पर्याप्त मात्रा थी, जिसका इस्तेमाल नाभिकीय विस्फोटक बनाने में हो सकता था. जांचकर्ताओं को संदेह है कि वे लोग अधिकारी या उसके परिवार को अगवा करने के चक्कर में थे ताकि परिसर और यूरेनियम तक उनकी पहुंच आसान बन सके. आइएसआइएस की परमाणु महत्वाकांक्षाओं का यह पहला उदाहरण है. यह बात तो सभी जानते हैं कि अल कायदा परमाणु विस्फोटकों की तलाश में था और उसने इन्हें पाने के लिए एक “न्यूक्लियर सीईओ” की भी नियुक्ति की थी, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका.

भारतीय नाभिकीय प्रतिष्ठानों में पहले से ही सभी कर्मचारियों के लिए एक मजबूत पर्सनल रिलायबिलिटी प्रोग्राम (पीआरपी) चलता आ रहा है. यहां नियुक्त किए जाने वाले हर किसी के आपराधिक इतिहास, परिवार और गंभीर चिकित्सीय हालात की जांच करने का पहले से स्थापित तरीका है. कर्मचारियों के व्यवहार अध्ययन और भरोसे की आवधिक समीक्षा भी की जाती है. पिछले साल ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन की वरिष्ठ फेलो डॉ. राजेश्वरी पिल्लै राजगोपालन की एक रिपोर्ट ने पाया था कि ठेकेदारों और अस्थायी श्रमिकों को नियुक्त किए जाने के प्रोटोकॉल अजीबोगरीब थे. हालांकि ऐसा परमाणु परिसर की बाहरी परिधि तक ही सीमित था. फिर भी इसे बड़ी चूक कहा जा सकता है और इसके गंभीर नतीजे निकल सकते हैं.

निगरानी के सख्त उपायों के बावजूद कुछ ऐसी घटनाएं घटी हैं जो चिंता का विषय हैं. कर्नाटक के कैगा परमाणु ऊर्जा संयंत्र में 2009 में एक असंतुष्ट कर्मचारी ने कथित रूप से पेयजल आपूर्ति को प्लांट के हेवी वॉटर से दूषित कर दिया, जिसके चलते 45 कर्मचारियों में जहर फैल गया. इसी तरह 2014 में कलपक्कम के मद्रास परमाणु ऊर्जा संयंत्र में केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआइएसएफ) के हेड कांस्टेबल विजय सिंह ने काम पर आने के तुरंत बाद अपनी सर्विस राइफल से तीन लोगों को गोली मार दी थी. बाद में पता चला कि पीआरपी समीक्षा में उसकी मानसिक हालत का पता लगाने में चूक हुई थी.

सभी नाभिकीय परिसरों के भीतरी हिस्से की सुरक्षा सीआइएसएफ के हाथ में होती है और दूसरे सुरक्षा बलों की तरह यहां भी कुछ असंतुष्ट कर्मचारी होते हैं और कुछ ऐसे लोग होते हैं जो आसानी से भ्रष्ट किए जा सकते हैं. राजगोपालन की सिफारिश है कि नाभिकीय संस्थानों के लिए अलग से एक सुरक्षाबल बनाया जाए ताकि भारत के परमाणु संस्थानों की सुरक्षा सशक्त हो सके और उसे भेदना आसान न हो.

परमाणु संयंत्रों के लिए एक और बड़ा खतरा साइबर हमला है. अमेरिका जब ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकना चाह रहा था, तो उसके जासूसों ने वहां के एक भीतरी आदमी का इस्तेमाल करके सेंट्रिफ्यूजों को नियंत्रित करने वाले कंप्यूटरों में स्टक्सनेट नाम का वायरस डलवा दिया था. नियंत्रण प्रणाली को नुक्सान पहुंचाने के अलावा एक साइबर हमला चोरी को रोकने वाले अलार्म को भी नाकाम कर सकता है और यहां तक कि चोरी को छिपाने के लिए लेखा प्रणाली में भी बदलाव कर सकता है. आतंकवादी ऐसा करके संवेदनशील सूचनाएं चुरा सकते हैं, जैसा कि हाल ही में दक्षिणी कोरिया के एक नाभिकीय संयंत्र में देखने में आया, जहां कर्मचारियों की निजी सूचना और परिसर के खाके को हैक कर लिया गया.

इस खतरे को ध्यान में रखकर उचित कार्रवाई करने के लिए भारत ने कंप्यूटर इन्फॉर्मेशन ऐंड सिक्योरिटी एडवाइजरी ग्रुप (सीआइएसएजी) की स्थापना की है जो अब सूचना तंत्र का ऑडिट करता है, साइबर हमलों को रोकने और उनके प्रभावों को खत्म करने के लिए उपाय बताता है और दिशा-निर्देश तैयार करता है. नाभिकीय परिसरों में यूएसबी और बाहरी उपकरणों का इस्तेमाल प्रतिबंधित है और इनमें इंटरनेट की सुविधा भी सीमित होती है. स्मार्टफोन हालांकि एक नई चुनौती बनकर उभरे हैं जिनका तोड़ अब भी निकाला जाना बाकी है. यह जरूर है कि डीएई ने एक साइबर सुरक्षा ढांचे का निर्माण किया है जिसमें सिक्योर नेटवर्क ऐक्सेस सिस्टम्स (एसएनएएस) शामिल है.

जानकारों का कहना है कि असली चिंता “फुकुशिमा जैसे किसी प्राकृतिक आपदा” की है (2011 में जापान के फुकुशिमा नाभिकीय परिसर में सूनामी से तबाही हुई, जिसमें रिएक्टर का कूलिंग सिस्टम नष्ट हो गया, जिसके कारण रिएक्टर से उच्च रेडियोधर्मी पदार्थों का विकिरण वातावरण में होने लगा था). डीएई के अधिकारियों का कहना है कि भारत के हर नाभिकीय पावर प्लांट में डिजाइन बेसिस थ्रेट (डीबीटी) डॉक्युमेंट होना चाहिए, जो यह आश्वस्त कर सके कि रेडियोधर्मी सामग्री के विकिरण को रोकने के लिए उसमें आधुनिक सुरक्षा प्रणाली लागू हो. इनमें फेलसेफ सिस्टम शटडाउन, ऐक्टिव और पैसिव कूलिंग प्रणाली तथा झटके सहने योग्य मजबूती हो ताकि न सिर्फ भूकंप और सूनामी बल्कि इनसान के किए हमलों को भी वह झेल सके.

हाल के वर्षों में इस बात के अहम बचाव उपाय किए गए हैं कि रेडियोधर्मी कचरे का दुरुपयोग न होने पाए. निम्न स्तर के रेडियोधर्मी कचरे को अलग से छांट लिया जाता है, ठोस किया जाता है और बड़े-बड़े कंटेनरों में उसे पैक करके विशेष रूप से निर्मित निस्तारण केंद्रों तक भेज दिया जाता है, जहां कंक्रीट की सुरंगों से लेकर टाइल होल तक की संरचनाएं शामिल होती हैं. इन संरचनाओं की चौबीसों घंटे निगरानी की जाती है. उच्चस्तरीय रेडियोएक्टिव कचरे के बारे में अधिकारियों का कहना है कि भारत में ईंधन चक्र ऐसा है जिसमें तकरीबन 97 फीसदी जला हुआ ईंधन फास्ट ब्रीडर रिएक्टरों में इस्तेमाल के लिए दोबारा प्रसंस्करित कर दिया जाता है.
इससे प्लूटोनियम का भंडारण होने से बचा लिया जाता है जो आतंकवादियों का अहम निशाना बन सकता है. बाकी के तीन फीसदी रेडियोधर्मी कचरे को ठोस शक्ल देकर गुंबदों के भीतर 40 साल तक ठंडा किया जाता है, उसके बाद नियंत्रित क्षेत्रों में उसका निस्तारण किया जाता है.

दुनिया भर में इस उच्च रेडियोधर्मी पदार्थ के भंडारण को रोकने के उपायों के तहत भारत ने फिलहाल अपना इकलौता एचईयू पावर प्लांट बंद कर दिया है. परमाणु ऊर्जा आयोग (एईसी) के अध्यक्ष शेखर बसु ने इंडिया टुडे को बताया, “हमारे नाभिकीय परिसरों में बहुस्तरीय उच्च सुरक्षा है और वे पूरी तरह महफूज हैं.”

क्या रेडियोधर्मी उपकरण गलत हाथों में जा सकते हैं?
सबसे बुरा खतरा “शैतानी बम” का है जिसे रेडिएशन डिसपर्सल डिवाइस भी कहते हैं जो सामान्यतः अस्पतालों, उद्योगों और शैक्षणिक संस्थानों में मौजूद नाभिकीय सामग्री से बनाया जा सकता है. भारत में ऐसे 7,000 से ज्यादा संस्थान हैं जिनके पास ऐसी मशीनें हैं जो रेडियोधर्मी सामग्री का इस्तेमाल निदान और उपचार के लिए करती हैं, इनके अलावा औद्योगिक उपयोग की मशीनें भी उपलब्ध हैं. चिंता की बात यह है कि इस सामग्री के गलत हाथों में जाने संबंधी कई खबरें भी आई हैं. ऐसी एक घटना 2010 में दिल्ली के मायापुरी की थी जहां एक कबाड़ी के पास कोबाल्ट पाया गया था जो दिल्ली विश्वविद्यालय का था. इस घटना ने काफी विवाद पैदा कर दिया था. इसमें एक व्यक्ति की मौत हुई थी और सात अन्य को रेडियोधर्मी जख्म आए थे.

इस घटना के बाद परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड (एईआरबी) ने लाइसेंसिंग प्रणाली को मजबूत करने के लिए नए दिशा-निर्देश जारी किए थे और रेडियोधर्मी उपकरणों का इस्तेमाल करने वाले सभी संस्थानों के लिए अनिवार्य कर दिया था कि वे ऐसे उपकणों के निस्तारण स्थल के बारे में सूचना मुहैया कराएं. एईआरबी ने देश में इस्तेमाल हो चुके रेडियोधर्मी विकिरण स्रोतों का एक डेटाबेस तैयार किया है और हाल ही में विकिरण स्रोतों का इस्तेमाल करने वाले परिसरों की पूर्ण लाइसेंसिंग और ऑटोमेशन के लिए एक मंच तैयार किया है जिसका नाम है ई-लोरा (ई-लाइसेंसिंग ऑफ रेडिएशन एप्लिकेशंस). डीएई भी इन उपकरणों, खासकर सीजियम-137 की जगह कुछ कम खतरनाक नाभिकीय विकल्प लाने के लिए प्रौद्योगिकियां विकसित कर रहा है.

हाल ही में एक अंतर-मंत्रालयी नाभिकीय तस्करी रोधी टीम का गठन किया गया है. यह टीम एक बहु एजेंसी समन्वय रणनीति तैयार करेगी, जिसमें खुफिया एजेंसियों, परमाणु ऊर्जा वैज्ञानिकों और विदेश मंत्रालय के अधिकारियों को शामिल किया जाएगा. इसका काम ऐसे व्यक्तियों या समूहों से निबटना होगा जो गलत उद्देश्यों के लिए रेडियोधर्मी या नाभिकीय सामग्री को हथियाने की मंशा रखते हैं. इस दिशा में और ज्यादा भरोसा बढ़ सकता है अगर संसद 2011 से लंबित एक विधेयक को पारित कर देती है जिसका उद्देश्य नाभिकीय सुरक्षा नियमन अधिकरण (एनएसआरए) का गठन करना है जो कि पूरी तरह डीएई से स्वतंत्र होगा. इस काम के लिए बनी मौजूदा संस्था एईआरबी को हमेशा उसकी मातृ संस्था डीएई की इकाई के तौर पर देखा गया है.

इस दौरान देश एक संभावित नाभिकीय हमले के लिए भी कमर कस रहा है. राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन एजेंसी के पास एक समर्पित नाभिकीय, रासायनिक और जैविक प्रकोष्ठ है जो ऐसी घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने के अलावा इनका पूर्वाभ्यास भी करवाता रहता है. इसमें राज्य स्तर की आपदा प्रबंधन एजेंसियों को भी जुड़ने की जरूरत है. शुरुआती तौर पर देश भर में फैले 23 आपात प्रतिक्रिया केंद्रों के एक नेटवर्क का गठन किया गया है जिसका काम देश में कहीं भी किसी नाभिकीय या विकिरण संबंधी आपात स्थिति की पहचान करना और उस पर प्रतिक्रिया देना होगा. अधिकारियों के मुताबिक, सभी अहम बंदरगाहों और हवाई अड्डों पर रेडिएशन पोर्टल लगाए जा रहे हैं और पहचान करने वाले उपकरण रखे जा रहे हैं जो सभी वाहनों, सवारी और मालवाहक ट्रैफिक की जांच करने में सक्षम होंगे.

पड़ोसी देशों से परमाणु खतरा
भारत के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं होगा कि वह परमाणु सामग्री का इस्तेमाल होने के खतरे को कम करे. आतंकवादियों की कोई सरहद नहीं होती. वे ढीले-ढाले कानून वाले किसी भी अन्य देश से रेडियोधर्मी सामग्री ला सकते हैं. दुनिया भर में हजारों विकिरण इकाइयां फैली हुई हैं, खासकर मध्य एशियाई और अफ्रीकी देशों में.

परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन में मोदी परमाणु आतंकवाद के खतरे से निबटने के लिए दुनिया में उठाए जा रहे तरीके पर सवाल उठा रहे थे. उन्होंने कहा, “आतंकवादी जहां 21वीं सदी की तकनीकी का इस्तेमाल कर रहे हैं, वहीं हम अभी पुरानी तकनीकों को लेकर बैठे हैं. आतंकवादियों ने दुनिया भर में अपने नेटवर्क बना लिए हैं, जबकि हम इससे मुकाबला करने के लिए सिर्फ राष्ट्रीय स्तर तक ही सीमित रहकर काम करते हैं. आतंकवादियों की पहुंच और आपूर्ति की कड़ियां दुनिया भर में फैली हैं, लेकिन देशों के बीच में सच्चे सहयोग का अभाव है.” वे परोक्ष रूप से पाकिस्तान का जिक्र कर रहे थे, जो मुंबई हमलों और हाल ही में पठानकोट हमलों के दोषियों को सजा देने से पीछे हट रहा है. मोदी ने कहा, “आतंकवाद की रोकथाम और सजा की कार्रवाई के बिना परमाणु आतंकवाद पर लगाम लगाने का और कोई रास्ता नहीं है.”

यह बहुत जरूरी है कि सारी दुनिया एकजुट होकर कदम उठाए. पाकिस्तान के पास विश्व का सबसे तेज रफ्तार से बढ़ने वाला परमाणु जखीरा है. इसके अलावा वह कुछ सबसे खतरनाक आतंकी संगठनों को पनाह भी देता है. अतीत में परमाणु विज्ञानी ए.क्यू. खान ईरान और उत्तर कोरिया को परमाणु जानकारियां दे चुके हैं. इस प्रकार उसका परमाणु स्वच्छंदता का काला इतिहास रहा है. हालांकि स्ट्रैटेजिक प्लांस डिविजन, जो पाकिस्तान के परमाणु हथियारों का नियंत्रण संभालता है, का कहना है कि उसके पास परमाणु हथियारों और संयंत्रों की रखवाली के लिए 25,000 जवान तैनात हैं, फिर भी दूसरे सैनिक ठिकानों पर कई सनसनीखेज हमले हो चुके हैं, जो आतंकवादियों की ताकत और क्षमता का प्रत्यक्ष सबूत हैं. इसके अलावा खुफिया एजेंसियों के साथ गठजोड़ भी चिंता का विषय है. मोदी ने साफ तौर पर पाकिस्तान का जिक्र करते हुए कहा, “राज्य के जिम्मेदार लोग परमाणु का अवैध धंधा करने वालों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं, जो हमारे लिए सबसे बड़ी खतरे की बात है.”

यह ओबामा ही थे, जिन्होंने 2009 में परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन की प्रक्रिया की शुरुआत की थी ताकि परमाणु आतंक के खतरे से निबटने के लिए विभिन्न देशों के बीच एक संवाद शुरू किया जा सके. चार शिखर सम्मेलनों के सकारात्मक नतीजों को देखें तो उनमें एक था ग्लोबल इनीशिएटिव टु कम्बैट न्यूक्लियर टेरेरिज्म (परमाणु आतंकवाद से मुकाबले के लिए वैश्विक पहल) का गठन करना. यह कुल 86 देशों और आइएईए समेत पांच अंतरराष्ट्रीय संगठनों की एक स्वैच्छिक अंतरराष्ट्रीय भागीदारी थी. इसका उद्देश्य था परमाणु आतंकवाद को रोकना, उसका पता लगाना और वैश्विक स्तर पर उसके खिलाफ कार्रवाई की क्षमता को मजबूत करना.

भारत ने भी गुड़गांव में ग्लोबल सेंटर फॉर न्यूक्लियर एनर्जी पार्टनरशिप की स्थापना की है, जो अब तक 30 देशों के 300 से ज्यादा लोगों को अंदरूनी खतरों, आकलन में चूक, परिवहन सुरक्षा, साइबर सुरक्षा और विकिरण हमलों से मुकाबला जैसे परमाणु संबंधी नए विषयों पर प्रशिक्षण दे चुका है. इस बीच भारत के तेजतर्रार संयुक्त सचिव अमनदीप गिल, जो विदेश मंत्रालय में परमाणु संबंधी मामलों को देखते हैं, कहते हैं, “भारत ने इस बात पर जोर दिया है कि आइएईए को परमाणु सुरक्षा सुदृढ़ करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग बनाने और राष्ट्रीय प्रयास बढ़ाने के काम में केंद्रीय भूमिका दी जाए.”

शिखर सम्मेलन में मोदी ने आइएईए के न्यूक्लियर सेक्युरिटी फंड को बढ़ाने के लिए 1,00,000 डॉलर के अतिरिक्त योगदान की घोषणा की. भारत इससे पहले प्रथम शिखर सम्मेलन में इतनी ही रकम दे चुका था. इस साल के शिखर सम्मेलन में परमाणु सामग्री की तस्करी में शामिल अपराधियों को पकडऩे के लिए इंटरपोल की मदद ली गई थी.

चौथे और अंतिम शिखर सम्मेलन पर जब परदा गिरा, तो यह साफ था कि परमाणु सामग्री गलत हाथों में पड़ने के खतरे को कम करने की दिशा में भले ही काफी काम किया गया है, फिर भी विश्व आज भी इस तरह के आतंकी हमलों से पूरी तरह सुरक्षित नहीं है और अभी काफी कुछ करने की जरूरत है. हार्वर्ड केनेडी स्कूल बेल्फर सेंटर, जो अपना “प्रोजेक्ट ऑन मैनेजिंग द एटम्य चलाता है, का मानना है कि “वैश्विक परमाणु सुरक्षा ढांचा एक पैबंद ही बना हुआ है, जिसमें कोई सर्वमान्य मानदंड शामिल नहीं हैं, जो यह बताए कि परमाणु हथियारों या परमाणु हथियार बनाने वाली सामग्री की सुरक्षा के लिए किस स्तर की सुरक्षा जरूरी है.”

ओबामा का कार्यकाल इस साल खत्म होने जा रहा है, ऐसे में अमेरिका के अगले राष्ट्रपति इस अच्छे काम को अगर आगे बढ़ाने का फैसला नहीं करते हैं तो शिखर सम्मेलन की यह प्रक्रिया भी खत्म हो चुकी है. इस बीच भारत भी चार शिखर सम्मेलनों में सुझाए गए परमाणु सुरक्षा उपायों को लागू करने वाले 35 देशों के साथ आ गया है. जो काम अभी लंबित हैं, उनमें से एक है 24 देशों के पास अब भी जमा 1,400 टन एचईयू के जखीरे को कम करना.

आतंकवादी बम बनाने के लिए इस सामग्री की तलाश में रहते हैं. अब भी कई बड़ी कमजोरियां हैं, जैसे हमारे पास ऐसे उपकरण का अभाव है जिससे सूटकेस में ले जाई जा रही उच्च रेडियोधर्मी सामग्री का पता लगाया जा सके. ओबामा ने समापन भाषण में कहा, दुनिया खुशकिस्मत है कि अब तक किसी आतंकवादी ने किसी देशी परमाणु बम का विस्फोट नहीं किया है. लेकिन हमने इस खतरे के प्रति ध्यान नहीं दिया तो आगे हमारी किस्मत साथ देने वाली नहीं है.

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