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वर्ष 1977 में बिहार के बेलछी गांव में जब भूमिहारों ने कथित तौर पर नौ दलितों की हत्या कर दी थी, तब कुछ ही माह पहले जनता पार्टी के हाथों सत्ता से अपदस्थ की गईं इंदिरा गांधी ने इस घटना में अपनी किस्मत को सूंघ लिया था. चार साल बाद हुई अपनी वापसी की पटकथा का पहला अध्याय उन्होंने बेलछी के अप्रत्याशित और असामान्य दौरे से ही लिखा था. उस यात्रा के आखिरी पड़ाव में वे हाथी पर चढ़कर वहां पहुंचीं और राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में छा गई थीं. आज चार दशक बाद उनके पोते और कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपने बेलछी की तलाश में अब तक जुटे हुए हैं, जबकि मई 2014 के बाद हुआ हर विधानसभा चुनाव कांग्रेस की बहाली की संभावना को क्षीण से क्षीणतर करता जा रहा है. बिहार इकलौता अपवाद था जहां कांग्रेस विजयी गठबंधन के हिस्से के तौर पर तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी.
इस दौरान बेलछी जैसे कई मौके आए और चले भी गए—दादरी में एक शख्स के मारे जाने से लेकर हैदराबाद में रोहित वेमुला की खुदकुशी और जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी तक, हर मौके पर राहुल गांधी ने अपनी मौजूदगी दर्ज कराई. लेकिन पार्टी की सेहत पर उसका कोई असर नहीं पड़ा. कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे को दुरुस्त करने के लिए उन्होंने न तो कोई कोशिश की है और न ही इसका कोई संकेत नजर आ रहा है. ऐसा लगता है कि दिसंबर 2013 में दिल्ली में पार्टी की करारी हार के बाद उन्होंने जो कहा था, उसे वे भूल चुके हैं, ‘‘मैं पार्टी के संगठन का कायाकल्प करने के लिए हर तरह की कोशिश करने को तैयार हूं. मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि बदलाव हो और मैं उन तरीकों से ऐसा करके दिखाऊंगा जिनकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते.’’
यह ‘‘अकल्पनीय बदलाव’’ लाने के लिए राहुल गांधी ने सितंबर से दिसंबर, 2014 के बीच पार्टी के 400 कार्यकर्ताओं के साथ मुलाकात की और पार्टी को बहाल करने का एक खाका तैयार किया. यह खाका फरवरी 2015 में पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी को भेजा गया. इसमें हर जिले में पार्टी की मौजूदगी को सुनिश्चित करना, जमीनी कमेटियों को सशक्त बनाना और चुनावों में प्रत्याशी चयन के मामले में उनकी राय को शामिल करना, राज्यों में अच्छे प्रदर्शन नहीं करने वाले नेतृत्व को बदलना, युवाओं को आकर्षित करने के लिए सदस्यता अभियान शुरू करना और हिंदू विरोधी और अल्पसंख्यक हितैषी पार्टी की छवि से कांग्रेस को मुक्त कराना शामिल था. एक साल से यह योजना ठंडे बस्ते में पड़ी हुई है.
हालांकि पूर्व केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद की एआइसीसी में फेरबदल पर दूसरी राय है. वे कहते हैं, ‘‘एआइसीसी में अनुभव और युवा इच्छाशक्ति का सम्मिश्रण होना चाहिए. हमें यह समझना होगा कि पार्टी में कई किस्म के काम होते हैं. कुछ लोगों को विचार करना होता है जबकि बाकी लोग इन विचारों को मैदान में उतारने का काम करते हैं.’’
एआइसीसी मुख्यालय में आजकल एक लतीफा चल रहा है कि राहुल ने जब ‘‘अकल्पनीय बदलाव’’ की बात की थी तो वे शायद पार्टी के राष्ट्रीय परिदृश्य से गायब हो जाने की बात कह रहे थे. यूपीए के एक पूर्व मंत्री कहते हैं, ‘‘राहुल का समयबोध बहुत भयावह है. अरुणाचल और पंजाब का संकट निबटाने के लिए उन्होंने काफी लंबा इंतजार किया. पंजाब में आम आदमी पार्टी ने घुसकर अपनी जगह बना ली, जबकि राहुल भीतरी मतभेदों से आंखें मूंदे रहे और जब उन्होंने आखिरकार अमरिंदर सिंह को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाने का फैसला किया, तब तक काफी देर हो चुकी थी.’’ उनके मुताबिक, पार्टी ने पंजाब की सत्ता में लौटने का मौका गंवा दिया है और उत्तर प्रदेश में सम्मानजनक स्थिति हासिल करने की उसकी संभावना फिसल चुकी है. वे कहते हैं, ‘‘हमने इन दोनों राज्यों के लिए प्रशांत किशोर को अपने साथ लिया था पर पंजाब में अमरिंदर उनसे झगड़ रहे हैं तो उत्तर प्रदेश में हम उनके सुझावों के हिसाब से कोई फैसला नहीं ले रहे.’’ अटकलें हैं कि पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार का नेतृत्व करेंगे.
कांग्रेस की बहाली के लिए बुनियादी सर्जरी करने पर राहुल गांधी ने अब तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है, पर पार्टी के कुछ नेता अलग-अलग बयान दे रहे हैं. उनका कहना है कि ऑपरेशन थिएटर को अब राज्यों में ले जाना होगा. लोकसभा में कांग्रेस के मुख्य सचेतक ज्योतिरादित्य सिंधिया कहते हैं, ‘‘देश में चुनावी जंग जीतने के तरीकों में बुनियादी बदलाव आ चुका है. राष्ट्रीय मौजूदगी के लिए पार्टी को राज्यों में मजबूत और नतीजे देने वाले नेता खड़े करने होंगे. हम राज्यों में केंद्र के करिश्माई नेताओं के भरोसे चुनाव जीतने की खुशफहमी नहीं पाल सकते क्योंकि वहां के मुद्दे स्थानीय होते हैं.’’
मध्य प्रदेश से सिंधिया के वरिष्ठ सहकर्मी और लोकसभा सांसद कमलनाथ उनकी ही बात को दोहराते हैं. वे तो प्रस्ताव देते हैं कि गुना के सांसद सिंधिया को ही राज्य का प्रभार दे दिया जाए. नाथ कहते हैं, ‘‘वे युवा और ऊर्जावान हैं और जननेता भी. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में मैं उनका समर्थन करूंगा.’’
कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता दावा करते हैं कि सिंधिया ने कभी भी राज्य में वापस जाने की दिलचस्पी नहीं दिखाई है और वे अपने लिए राष्ट्रीय भूमिका चाहते हैं. इंडिया टुडे ने उनसे इस बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा, ‘‘मैंने पार्टी में कभी भी कोई आधिकारिक पद नहीं चाहा है और न ही चाहूंगा, पर हकीकत यह है कि मुझसे राज्य का प्रभार लेने को कभी नहीं कहा गया.’’
सिंधिया की ऊहापोह वाली स्थिति ही बताने के लिए काफी है कि कांग्रेस को क्या बीमारी है और पार्टी कैसे अपनी बहाली के रास्ते से फिर भटकने वाली है. अगले लोकसभा चुनावों से पहले चार अहम राज्यों—राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़—में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. प्रत्येक में बीजेपी को सत्ताविरोधी माहौल का सामना करना होगा और यहां कांग्रेस इकलौती विपक्षी पार्टी है. इस बात की भी अटकलें तेज हैं कि बीजेपी के दो मुख्यमंत्रियों—गुजरात में आनंदीबेन पटेल और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह—को हटाया जा सकता है. मध्य प्रदेश में व्यापम घोटाले का प्रेत अब भी शिवराज सिंह चौहान के सिर पर मंडरा रहा है. कांग्रेस के एक महासचिव कहते हैं, ‘‘इन राज्यों में हमें कुल मिलाकर एक प्रेरक नेतृत्व को तैनात करना है और चारों में जीत की असल संभावनाएं हमारे साथ हैं. गुजरात और मध्य प्रदेश में सत्ता विरोधी माहौल अहम भूमिका निभाएगा क्योंकि यहां बीजेपी को राज करते 15 साल हो चुके हैं.’’
अपने दावों को पुष्ट करने के लिए कांग्रेस के लोग पूर्व केंद्रीय मंत्री सचिन पायलट की फरवरी 2014 में राजस्थान के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर नियुक्ति और उसके बाद नगर निकाय चुनावों में मिली ‘‘कामयाबी’’ का हवाला देते हैं. राहुल गांधी के करीबी एक महासचिव ने बताया कि कैसे दिल्ली में अजय माकन की नियुक्ति से नतीजे मिलने शुरू हो गए हैं. इसी महीने की शुरुआत में दिल्ली में नगर निकाय उपचुनावों में पार्टी को चार सीटें हासिल हुई थीं.
जैसा कि हर चुनावी हार के बाद कांग्रेस में एक रवायत-सी बन चुकी है, एक बार फिर राहुल गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बनाने के लिए हल्ला मचाया जा रहा है. कुछ लोग राहुल की जगह उनकी बहन प्रियंका गांधी को लाने की भी मांग कर रहे हैं. कांग्रेस के पास अपनी बहाली के लिए धमाकेदार योजना शुरू करने की कुव्वत है या नहीं यह तो देखने वाली बात होगी, पर जैसा कि शशि थरूर कहते हैं, ‘‘बदलाव इसलिए भी जरूरी है ताकि जनता को दिखाया जा सके कि चुनावी हार के लगातार दो साल बाद कांग्रेस में यथास्थिति कायम नहीं है.’’
आधा वक्त तो बीत चुका है. क्या देश की सबसे पुरानी पार्टी खुद को पटरी पर ले आएगी या वह इतना टूट चुकी है कि टुकड़ों को जोड़ पाना अब नामुमकिन है? अगले कुछ महीनों में इसका जवाब मिल जाएगा.