
तुम्हारे खराब व्यवहार और शरीया के खिलाफ कामों से परेशान होकर मैं तुमसे अलग हो जाना ही बेहतर समझता हूं. इसलिए मैं अपने पूरे होशो-हवास में शरीया के मुताबिक तीन बार, मैं तलाक देता हूं, मैं तलाक देता हूं, मैं तलाक देता हूं, बोलकर तुम्हें शादी के बंधन से आजाद करता हूं.
37 वर्षीया शायरा बानो को अक्तूबर 2015 में जिस दिन अपने शौहर का यह पत्र मिला, उस दिन उसकी तो जैसे दुनिया ही उजड़ गई. उस समय वे बीमारी के बाद स्वास्थ्य लाभ के लिए उत्तराखंड के काशीपुर में अपने मायके आई हुई थीं. इलाहाबाद के प्रॉपर्टी डीलर रिजवान अहमद के साथ उसकी 15 वर्ष पुरानी शादी कतई खुशहाल नहीं रही थी. दो बच्चों की मां शायरा को इस रिश्ते में रोज ही अपमान झेलना पड़ रहा था. वे कई बार गर्भवती हुईं और कई बार उन्हें जबरन गर्भपात कराना पड़ा था. समाजशास्त्र में उनकी एमए की डिग्री धूल चाट रही थी. नाममात्र की बचत, आमदनी का कोई साधन न होने और अपने बच्चों से मिलने के सारे रास्ते बंद हो जाने से तंग आकर शायरा ने खुद को खड़ा किया और जुल्मों का सामना करने का फैसला किया. उन्होंने फरवरी 2016 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की.
यह देश में पहली मुस्लिम महिला थी जिसने सदियों से चली आ रही एकबारगी तीन तलाक कहकर फौरन तलाक देने की प्रथा की वैधता को चुनौती दी थी.
अभूतपूर्व फैसला
22 अगस्त, 2017. प्रधान न्यायाधीश की अदालत में गहरी शांति छाई हुई थी, जो सुप्रीम कोर्ट के महान फैसलों की परंपरा के अनुरूप थी. लेकिन अदालत के बाहर मेला-सा लगा हुआ था. पूरा लॉन रंग-बिरंगी छतरियों से ढक गया था, टीवी चैनलों के फोटोग्राफरों ने अपने कैमरे अदालत के ऊंचे-ऊंचे स्तंभों पर लगा रखे थे, रिपोर्टर अधिकारियों से एक पास के लिए रिरिया रहे थे, युवा वकील बड़ी तेजी से लाल रंग के मखमली परदों को हटाकर अंदर-बाहर आ-जा रहे थे. सुबह करीब 10.30 बजे कोलाहल शुरू हो गया. दोपहर तक भीड़ खुशी से उछल पड़ी और उंगलियों से अंग्रेजी का ''वी" (जीत) अक्षर बनाते हुए ''बॉय, बॉय, ट्रिपल तलाक" के नारे गूंज उठे.
तीन तलाक का मुद्दा जितना चर्चित हुआ है, उतना हाल के वर्षों में शायद ही कोई दूसरा मुद्दा चर्चित हुआ हो. यह मुद्दा अक्तूबर 2015 में उस समय से ही राष्ट्रीय सुर्खियों में छाया रहा है जब सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका और तीन तलाक पर रोक लगाने की मांग करने वाली मुस्लिम महिलाओं की याचिकाओं को स्वीकार किया था. इस मुकदमे के केंद्र में उन मुस्लिम महिलाओं की तकलीफों से भरी निजी जिंदगी थी, जो परंपरा और आधुनिकता, मजहब और कानून के बीच फंस कर रह गई थी. इसके इर्दगिर्द आम जनता में भी मुकदमे का नाटक चल रहा थाः राजनैतिक रूप से होड़ लगी थी कि मुस्लिम महिलाओं को ''आजादी" दिलाने का श्रेय कौन ले जाता है. क्या मोदी सरकार, जिसने तीन तलाक के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया, या ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआइएमपीएलबी) जो पूरे भारत में सुन्नी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करता है. बोर्ड का कहना था कि पर्सनल लॉ पर न्यायपालिका को दखल देने का अधिकार नहीं है. अदालत के भीतर जो ड्रामा हुआ, वह इसका क्लाइमेक्स था. वहां पांच जजों ने तीन-दो के मामूली अंतर से तीन तलाक को खत्म करके देश के इतिहास में एक नया अध्याय लिख दिया.
तीन तलाक का मुकदमा आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में संवैधानिक न्याय का एक आदर्श रूप है. केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के मुताबिक, यह मानव अधिकारों, लोकहित के लिए कानून के शासन और एक विशेष राजनैतिक संस्कृति के प्रति सम्मान है. वे कहते हैं कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम से लेकर सुकन्या समृद्धि योजना तक ''लैंगिक न्याय" दिलाना नरेंद्र मोदी सरकार का मुख्य लक्ष्य रहा है.
वादा जो पूरा हुआ
''आखिरकार आज मैं आजाद महसूस कर रही हूं." यह कहते हुए शायरा के चेहरे पर मुस्कान और आंखों में चमक दिखाई दे रही थी. उनका कहना था, ''मैं फैसले का समर्थन और स्वागत करती हूं. यह मुस्लिम औरतों के लिए एक ऐतिहासिक दिन है." अदालत में जब फैसला पढ़ा जा रहा था तो नीले रंग की सलवार-कमीज पहने हुए शांत और सकुचाई शायरा ने खामोशी के साथ साफ देखा कि कानून का राज किस तरह काम करता है. देश की आजादी के 70वें वर्ष में अगर सचमुच किसी ने किस्मत के साथ वादे को निभाते हुए देखा है तो वह शायरा है, भारत की पहली महिला जिसने तीन तलाक की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी—वह एक बैठकी में तीन बार तलाक कहने की प्रथा जो मुस्लिम मर्दों को (खासकर सुन्नी संप्रदाय के) फौरन एकतरफा और वापस न लिया जा सकने वाला तलाक देने का अधिकार देती है. यह सदियों से मनमाना ''अधिकार" उन आदिम कानूनों को मिला हुआ था जो मजहब और परंपरा के नाम पर परिवार, शादी, तलाक और विरासत के बारे में फैसला करते आ रहे थे.
शायरा की जिंदगी की कहानी आम महिलाओं की डरावनी कहानी है. इशरत जहां का ही किस्सा लें. करीब 40 साल की इशरत पश्चिम बंगाल के एक गांव में अपने चार बच्चों के पालन-पोषण में व्यस्त रहती थी कि एक दिन कढ़ाई का काम करने वाले उसके पति ने दुबई से फोन करके 15 साल पुरानी शादी को तोड़ दिया. या फिर 29 वर्षीया आफरीन रहमान का ही मामला लें. मध्य प्रदेश के उसके पति सैयद अशहर अली वारसी ने सिर्फ 11 महीने की शादी के बाद ही स्पीड पोस्ट से तीन तलाक भेज दिया. देश में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए लडऩे वाले संगठन भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) की सह-संस्थापक जकिया सोमन और नूरजहां नियाज ने मार्च 2015 में ''सीकिंग जस्टिस विदिन फैमिली" नाम से 5,000 मुस्लिम महिलाओं पर एक सर्वेक्षण किया था. उन्होंने पाया कि तलाकशुदा 59 प्रतिशत महिलाएं तीन तलाक की व्यवस्था से पीड़ित थीं और 92 प्रतिशत महिलाएं इस पर प्रतिबंध लगाने के पक्ष में थीं. उन्होंने 50,000 से ज्यादा हस्ताक्षर जुटाए थे और इसे प्रधानमंत्री के पास भेज दिया था.
शब्दों की शक्ति
यह वह क्षण है जिसे शब्दों की ताकत से नापा जा सकता है. इस मुद्दे पर राजनैतिक हलकों में जमकर चर्चा हो रही है. कुछ नेता तो इस शब्द पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी ज्यादा वजन डाल रहे हैं. अक्तूबर 2016 से ही प्रधानमंत्री ने अपने भाषणों में तीन तलाक के अन्याय से ''मुस्लिम बहनों" की ''रक्षा करने" और ''बचाने" जैसे शब्दों का लगातार इस्तेमाल किया हैः उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान, भुवनेश्वर में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को संबोधन के अवसर पर, और इस साल स्वतंत्रता दिवस के भाषण में. 22 अगस्त को उन्होंने इस फैसले को ''ऐतिहासिक" बताया. सोशल मीडिया पर तीन तलाक की इस कानूनी लड़ाई का श्रेय प्रधानमंत्री को दिए जाने के लिए यह काफी था. एक प्रतिक्रिया को देखें, ''प्रधानमंत्री मोदी की ओर से लगातार स्पष्ट और दृढ़ रुख अख्तियार करने के बाद तीन तलाक की कुप्रथा को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक बता दिया है."
केंद्रीय वित्त, रक्षा और कॉर्पोरेट मामलों के मंत्री अरुण जेटली ने फैसले के बाद यही कहा. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इसे मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की जीत बताया. आरएसएस के इंद्रेश कुमार और राकेश सिन्हा जैसों के मुताबिक, यह ''आसुरी शक्तियों" और ''पुरातन धर्मनिरपेक्षता" पर ''ईश्वर", की जीत है. अभिनेत्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता शबाना आजमी ने इसे ''बहादुर मुस्लिम महिलाओं" की जीत बताया है. ऑल इंडिया मुस्लिम वीमेन पर्सनल लॉ बोर्ड की शाइस्ता अंबर ने इस फैसले को ''महिलाओं और इस्लाम की जीत" बताया. एआइएमपीएलबी, जो मुकदमे में एक प्रतिवादी और तीन तलाक का घोर पक्षधर था, ने भी इस फैसले को ''निजी कानूनों की जीत" करार दिया है.
विपक्ष ने इस पर सावधानीपूर्वक मुस्लिम महिलाओं को बधाई संदेश दिया है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट किया ''सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत है." पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जिन्होंने नोटबंदी पर लिखी एक कविता में कहा था कि भारत मोदी को तीन तलाक देगा, अब इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए हैं. माकपा नेता वृंदा करात ने ''अल्पसंख्यक महिलाओं के संघर्ष को हथियाने की कोशिश" के लिए भाजपा को आड़े हाथों लिया है. सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी ऐंड पॉलिटिक्स, कानुपर के निदेशक ए.के. वर्मा भी इससे सहमत हैं. वे कहते हैं कि प्रधानमंत्री का तीन तलाक का मुद्दा उठाने के रणनीतिक कदम ने चुनावी तौर पर भाजपा के लिए खेल बदल दिया है. यूपी में 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 403 में से शानदार 311 सीटें मिली थीं. यहां 100 से ज्यादा मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्र हैं, जहां भाजपा की पहले कभी मौजूदगी नहीं रही थी. वर्मा कहते हैं, ''लेकिन इस बार यूपी में मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में ज्यादातर वोट भाजपा के पक्ष में गए. यहां तक कि देवबंद में भी, जहां 71 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है."
इसने बसपा सुप्रीमो मायावती को बेहद हैरान कर दिया था, जिससे उन्हें लगा कि वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी की गई थी. दरअसल, प्रधानमंत्री ने चुनावों से पहले खुले तौर पर कहा था कि मुस्लिम महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जाएगी. वे कहती हैं, तीन तलाक का मुद्दा उठाकर मुस्लिम महिलाओं में पहुंच बनाने का यह एक सोचा-समझा खतरा था, जिसका भारी फायदा मिला.
अदालत में खींचतान
सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक के मुकदमे में अलग-अलग धर्मों से संबंध रखने वाले पांच जजों की संविधान पीठ बनाकर खुद को निष्पक्ष दिखाने का संकेत दे दिया थाः प्रधान न्यायाधीश जे.एस. खेहर (सिख), जस्टिस कुरियन जोसफ (ईसाई), रोहिनटन नरीमन (पारसी), यू.यू. ललित (हिंदू) और जस्टिस एस. अब्दुल नज़ीर (मुस्लिम). 22 अगस्त को जस्टिस नरीमन, जोसफ और ललित बनाम प्रधान न्यायाधीश खेहर और नज़ीर के बीच इस मुद्दे पर जमकर खींचतान हुई. अदालत के औपचारिक शिष्टाचार में रहते हुए भी इन दोनों गुटों के बीच जोरदार कानूनी बहस हुई. जस्टिस नरीमन ने बहुमत का नेतृत्व किया और अदालत ने 3-2 के फैसले से तीन तलाक की व्यवस्था को खत्म करके कानून के शासन को बरकरार रखा. दो जजों (जस्टिस नरीमन और जस्टिस ललित) ने इसे ''असंवैधानिक" बताते हुए रद्द कर दिया. जस्टिस जोसफ ने इसे गैर-इस्लामी होने के आधार पर खारिज किया था. जस्टिस नरीमन और जस्टिस ललित की नजर में तीन तलाक अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष बराबरी) के तहत भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों का हनन है.
जस्टिस जोसफ ने भी ऐसा ही राय जाहिर की लेकिन एक अलग तर्क के आधार पर. उनका कहना था कि कुरान में तीन तलाक का कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए यह गैर-इस्लामी है और संविधान के तहत अनुच्छेद 25 (धार्मिक आजादी का अधिकार) की रक्षा का अधिकार नहीं देता है. प्रधान न्यायाधीश खेहर तीन तलाक के पक्ष में जस्टिस अब्दुल नज़ीर के साथ थे क्योंकि यह सैकड़ों वर्षों से मुस्लिम निजी कानून का हिस्सा था, इसलिए इसे ''मौलिक अधिकारों का दर्जा" प्राप्त है. उन्होंने छह महीने के भीतर मुस्लिम विवाहों और तलाक का नियमन करने वाले कानून बनाने का जिक्वमा भी संसद पर डाल दिया. अल्पमत की राय होने के कारण इसे महत्वहीन माना गया.
ब्रिटेन की वारविक यूनिवर्सिटी में विधि विभाग के प्रोफेसर उपेंद्र बख्शी का कहना है कि अदालती ड्रामे से बाहर एक नया माहौल और न्यायपालिका के लिए शायद नई भूमिका तैयार हो रही है. क्या हम अपने कानून की पोथियों में एक धर्मनिरपेक्ष समान नागरिक कानून—समान नागरिक संहिता—लिख सकते हैं?
बत्तीस साल पहले जब 65 वर्षीया शाह बानो ने शायरा की तरह ही लडऩे का फैसला किया था तो निजी कानूनों को लेकर एक राजनैतिक लड़ाई छिड़ गई थी. उन्होंने अदालत से उस आदमी से गुजारा भत्ता दिलाने की मांग की थी जिसने उन्हें 1985 में तलाक दे दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने उनके दावे को सही बताया था लेकिन इस पर हंगामा खड़ा हो गया था और तब शाह बानो को अपने पूर्व अमीर शौहर से हर महीने मिलने वाले 25 रु. की रकम बढ़ाकर 179.20 रु. करने की मांग करनी पड़ी थी. मुस्लिम महिलाओं के लिए यह अब निर्वाह या मेहर (शादी के समय वादा की गई रकम) नहीं है. वे अब उन कानूनों को ही चुनौती दे रही हैं जो उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं देते.
सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1,400 वर्ष से प्रचलित एक बार में तीन तलाक यानी तलाक-ए-बिदअत को असंवैधानिक करार देने के निर्णय पर मुस्लिम उलेमा बेहद सधी हुई प्रतिक्रिया दे रहे हैं. दारुल उलूम, देवबंद अभी भी पुराने स्टैंड पर कायम है कि यह शरीयत का मामला है और इसमें कानून दखल नहीं दे सकता है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड फैसले का अध्ययन करने के बाद 10 सितंबर को कार्यसमिति की बैठक में रुख स्पष्ट करेगा.
दारुल उलूम, देवबंद के मोहतमिम मौलाना मुक्रती अबुल कासिम नोमानी बनारसी कहते हैं, ''जो मजहबी मसले हैं, उनमें अदालतें और संसद हस्तक्षेप न करें. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जो भी फैसला करेगा, हम उसका समर्थन करेंगे. शरीयत में कोई दखलअंदाजी बर्दाश्त नहीं होगी." ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने कोई फौरी टिप्पणी नहीं की है. बोर्ड के वरिष्ठ उपाध्यक्ष मौलाना मोहम्मद सालिम कासमी ने कहा, ''बोर्ड की बैठक में तय किया जाएगा."
दूसरी तरफ ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर बेहद उत्साहित हैं. अंबर कहती हैं, ''मुझे फैसले से बहुत खुशी है. सरकार से उम्मीद है कि वह छह महीने के अंदर सख्त कानून बनाएगी. महिलाओं को सम्मान देने वाला हर संगठन फैसले के साथ है. जो विरोध कर रहे हैं उनका कोई वजूद नहीं है."
ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड के उपाध्यक्ष मौलाना डॉ. कल्बे सादिक इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा, ''सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही है. शिया समुदाय तीन तलाक को पहले ही तलाक दे चुका है."
जबकि देवबंदी विचारधारा से जुड़े आलिमों के संगठन जमीयत उलेमा हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी कहते हैं, ''देश एक बार सांप्रदायिकता की जद में आकर बंट चुका है. इसलिए सरकार को चाहिए कि वह पूरे होशो-हवास में काम करे. तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही है." इससे हटकर बरेलवी विचारधारा के आलिम दरगाह आला हजरत, बरेली के राष्ट्रीय महासचिव मौलाना शहाबुद्दीन रजवी की राय जुदा है. वे कहते हैं, ''दरगाह आला हजरत स्थित सुन्नी बरेली मरकज की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार अर्जी दी जाएगी."
तीन तलाक तो पहले से अनुचित
कुरआन और हदीस में एक साथ तीन तलाक कहने की अनुमति नहीं है. इस्लाम के पहले खलीफा अबुबकर सिद्दीक के मुताबिक एक साथ बोली गई तीन बार तलाक एक ही तलाक मानी जाएगी. तीन बार तलाक एक एक महीने के अंतराल पर तीन अलग अलग समय में दी जाएगी. इस्लाम के दूसरे खलीफा उमर फारूक के समय कुछ दिनों तक यह व्यवस्था रही, लेकिन तलाक के मामले बढ़े तो उन्होंने एक साथ तीन तलाक को मान्यता तो दी, लेकिन यह व्यवस्था भी दी कि ऐसा करने वाले की पीठ पर जख्मी होने तक कोड़े बरसाए जाएंगे, ताकि लोग एक साथ तीन तलाक बोलने से डरें. 13वीं सदी में इस्लाम के सर्वकालिक महान विचारक इमाम इब्ने तैमिया ने एक साथ तीन तलाक को अनुचित माना. देवबंदी विचारधारा के उलेमा मानते हैं कि भले ही यह तरीका सही नहीं, लेकिन तलाक तो हो गया. वे दूसरे खलीफा की एक साथ तीन तलाक की व्यवस्था को तो स्वीकार करते हैं, लेकिन कोड़े मार मारकर घायल करने के आदेश की अनदेखी करते हैं.
—साथ में आशीष मिश्र