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BJP ने किया चुनावी रणनीति का शाही आगाज

असम की जोरदार जीत से उत्साहित बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह पार्टी का ध्यान अब दूसरे राज्यों के चुनावों समेत 2019 के लोकसभा चुनाव की तैयारी पर केंद्रित करा रहे.

उदय माहूरकर
  • नई दिल्ली,
  • 03 जून 2016,
  • अपडेटेड 12:14 PM IST

भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले मोर्चे की 19 मई को असम विधानसभा चुनाव में हुई भारी जीत को 48 घंटे भी नहीं बीते थे कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह पार्टी मुख्यालय 11, अशोक रोड स्थित अपने कार्यालय में एक बैठक ले रहे थे. जीत से उनका मूड बेहद उत्साहित था, यह कहना उनके भाव को कम करके आंकना होगा क्योंकि असम की ताजा जीत पिछले नवंबर में बिहार में खाए जख्मों पर बीजेपी के लिए दरअसल एक मरहम थी.

शाह ने 9 अगस्त, 2014 को पार्टी अध्यक्ष के बतौर अपने पहले संबोधन में असम को बीजेपी की झोली में डालने का वादा किया था. यह जीत शाह के लिए बड़ी राहत लेकर आई थी. इसके बावजूद इस बैठक में शाह और उनके सहयोगियों ने असम पर कोई चर्चा नहीं की, बल्कि उनकी निगाह क्षितिज के पार थी—वे अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनावों के लिए रणनीति गढ़ने में जुटे थे और 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए दूसरे कार्यकाल को सुनिश्चित करने पर बात कर रहे थे. असम फतह की खुराक इतनी उत्साहवर्द्धक है कि इन रणनीतियों को लेकर किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए.

बिहार की हार के बाद अमित शाह थोड़े नरम पड़ गए थे. उन तक पहुंचना भी आसान हो गया था. बीजेपी अध्यक्ष के रूप में उनकी दूसरी पारी अधर में लटकी नजर आ रही थी. उनकी आक्रामकता अब लौट आई है. 2014 में ‘‘कांग्रेस-मुक्त भारत’’ का जुमला गढ़ने वाले शाह ने एक बार फिर मतगणना के दिन 19 मई को इसे अपने विरोधियों पर उछालते हुए मीडिया में बयान दिया, ‘‘यह देश कांग्रेस-मुक्त भारत के सपने से बस दो कदम दूर है.’’ इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस की खाली हो रही जगह को कौन-सी पार्टी भरेगी. उन्होंने इंडिया टुडे को बताया, ‘‘बीजेपी अब अखिल भारतीय पार्टी बन चुकी है. आज हम कच्छ से कामरूप और कश्मीर से कन्याकुमारी तक मौजूद हैं.’’

चुनावी जंग की नई मशीन
चुनाव के बाद पार्टी और सरकार में आसन्न बदलाव पर जो फुसफुसाहट थी, वह अब खुलकर सामने आ गई है. असम के जनादेश के फौरन बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली और शाह के बीच माना जा रहा है कि एक अहम बैठक हुई है जिसमें एनडीए के दो साल पहले सत्ता में आने के बाद पहली बार गहराई से फेरबदल का एक खाका बना है. शाह के लिए काम करने वाले स्वतंत्र शोधार्थियों की एक टीम ने कैबिनेट मंत्रियों के कामकाज का मूल्यांकन किया है. नतीजे न दिखाने वाले मंत्रियों को शायद राज्यपाल बनाकर भेज दिया जाएगा, राज्यमंत्रियों के भी बदलने की गुंजाइश है और संभव है कि प्रदेश इकाइयों को नए प्रभारी दिए जाएं. इस खाके को अंतिम रूप आने वाले हफ्तों में दिया जाएगा जब शाह नई टीम का गठन करेंगे.

इस पुनर्गठन से चुनावी जंग के लिए बीजेपी और सरकार का एक नया आकार उभरकर सामने आएगा जो बहुत संभव है कि 2019 के लोकसभा चुनावों तक अपरिवर्तित ही रहे. 12 और 13 जून को पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक पांच साल में पहली बार उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में होने जा रही है. इस कार्यकारिणी में अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनावों की रणनीति को अंतिम रूप दिया जाएगा.

इस 26 मई को पार्टी महीने भर तक चलने वाला एक प्रचार अभियान शुरू करेगी. यह एनडीए के दो साल पूरे होने का जश्न उतना नहीं होगा जितना कि उसके चुनाव प्रचार अभियान का आगाज होगा. पार्टी के कार्यकर्ता समाज के विभिन्न तबकों के साथ देश भर की 200 जगहों पर संवाद करेंगे. इन स्थानों का चुनाव अधिकतम सियासी असर के हिसाब से किया गया है. कार्यकर्ताओं से कहा गया है कि वे युवाओं, महिलाओं और आर्थिक रूप से कमजोर तबकों समेत जनता को सरकार की योजनाओं की जानकारी दें. पार्टी कार्यकर्ताओं की तीन सदस्यीय एक टीम सभी 200 स्थानों पर कार्यकर्ताओं की पहुंच पर निगरानी रखेगी.

इस नई रणनीति के पीछे की चालक शक्ति मोदी-शाह की पुरानी जोड़ी ही रहेगी, बावजूद इसके कि दोनों के नजरियों में मामूली मतभेद है. मसलन, शाह कट्टर हिंदुत्व के समर्थक हैं जबकि मोदी इस मामले में थोड़ा महीन रवैया अपनाते हैं. पार्टी के भीतर शाह एक ऐसे रणनीतिकार हैं जो महासचिवों से मिलने वाली सूचनाओं पर आश्रित हैं. मोदी मुख्यमंत्री बदलने जैसे संवेदनशील मसलों पर ही अपनी अंतिम राय रखते हैं. मसलन, 200 स्थानों तक पहुंचने का नुस्खा शाह ने मोदी को दिया था जिन्होंने इस पर मुहर लगा दी. शाह की दिनचर्या अब भी काफी व्यस्त है—वे जनवरी तक रोजाना 465 किलोमीटर की औसत यात्रा कर चुके थे और भारत के सभी 31 राज्यों में जा चुके थे.
बिहार का सबक
पिछले नवंबर में बिहार की हार बीजेपी के लिए एक चेतावनी थी. दिल्ली में उसे जितनी मार झेलनी पड़ी थी, उससे कहीं ज्यादा बिहार ने पार्टी की कमजोरियों को सतह पर लाने का काम किया जब पार्टी का सामना एकजुट विपक्ष के साथ हुआ. इस हार ने पार्टी के स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी पर भी आशंका खड़ी कर दी जिन्होंने पिछले अक्तूबर में राज्य में तकरीबन 40 जनसभाओं को संबोधित किया था. अपनी हार से सबक लेते हुए पार्टी ने एक रणनीति बनाई जिसे उसने ‘‘असम मॉडल’’ का नाम दिया. यहां पार्टी ने दिल्ली और बिहार की तर्ज पर मुखर चुनाव प्रचार नहीं किया और निजी हमलों से बचने की कोशिश की. इसी योजना को अब अन्य राज्यों में लागू करने का प्रस्ताव है जहां सावधानीपूर्वक चुनावी जंग में उतरते हुए पहले ही पानी नाप लिया जाएगा. मसलन, असम में बीजेपी ने अवैध घुसपैठियों का मसला एक सीमा से ज्यादा नहीं उठाया. हाल के चुनावों में पहली बार उसने एक स्थानीय चेहरे को सामने रखा और सर्बानंद सोनोवाल को पहले ही मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर डाला.

नीतीश-लालू की जोड़ी ने बिहार बनाम बाहरी का जो जुमला उछाला था, उसने भी बीजेपी को एक सबक दिया. वह यह कि चुनावी राज्य में बाहर से स्टार प्रचारकों को लाना नुक्सानदेह साबित हो सकता है. यह जमीनी कार्यकर्ताओं के बीच एक गलत किस्म का भ्रम और उत्साह पैदा करता है, जो यह मानने लग जाते हैं कि एक जनसभा ही चुनाव जीतने के लिए काफी है.

इस बार मोदी और शाह ने प्रचार के दौरान असम की सिर्फ तीन यात्राएं कीं, राजनाथ दो बार वहां गए और अरुण जेटली तथा सुषमा स्वराज ने सिर्फ एक यात्रा की. जमीनी कार्यकर्ताओं को जनता के साथ संपर्क के व्यापक कार्यक्रमों के लिए मुक्त रखा गया.
पार्टी ने यह भी तय किया है कि वह मोदी को जरूरत से ज्यादा सामने नहीं लाएगी. इससे 2019 की बड़ी जंग के लिए उन्हें बचाए रखा जा सकेगा. पार्टी को दूसरे दलों से नेता अपने यहां लाने में कोई संकोच नहीं है, जैसा कि उसने असम कांग्रेस से हेमंत बिस्व सरमा को लाकर दिखाया. पार्टी के एक आला नेता कहते हैं, ‘‘चुनाव जीतना विचारधारा से ज्यादा व्यावहारिकता का मसला होता है.’’

इसी व्यावहारिकता का एक दुर्लभ मुजाहिरा तब हुआ जब पार्टी नेतृत्व ने आरएसएस की असम इकाई के हस्तक्षेप को दरकिनार कर दिया. यह बात अलग है कि 2014 की कामयाबी को आगे दोहराने के लिए पार्टी आरएसएस का इस्तेमाल चुनावों में जरूर करेगी. शाह फिलहाल आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और मोदी के बीच अच्छे रिश्तों को भुना रहे हैं जिसके चलते संघ और सरकार के बीच मतभेद सतह पर आने से रह जा रहे हैं.

सभी आगामी चुनावों के लिए बीजेपी ने पांच सूत्री रणनीति तैयार की है—भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन, जन धन जैसी योजनाओं के माध्यम से आर्थिक सशक्तीकरण, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, स्टैंड-अप इंडिया और स्टार्ट-अप इंडिया जैसी योजनाओं के माध्यम से आर्थिक तरक्की, कम किस्तों वाली दो जीवन बीमा और दुर्घटना बीमा योजनाओं के माध्यम से आर्थिक सुरक्षा और अंततः, मनरेगा को राष्ट्रीय परिसंपत्ति निर्माण के साथ जोड़कर टिकाऊ आर्थिक वृद्धि.

2019 के लिए 100 सीटों की योजना
शाह का मानना है कि विंध्य के उत्तरी राज्यों में बीजेपी की तरक्की की गुंजाइश समाप्त हो चुकी है जहां उसने लोकसभा की 282 में से 220 सीटें जीती थीं. इनमें उत्तर प्रदेश में 80 में से 71 सीटें, गुजरात की कुल 26 सीटें, राजस्थान की कुल 25 सीटें और मध्य प्रदेश की 29 में से 27 सीटें बीजेपी के पास आई थीं. सिर्फ इन्हीं राज्यों पर 2019 की जीत के लिए भरोसा कायम रखना कुछ ज्यादा आशावादी नजरिया होगा. इसीलिए अमित शाह ने एक नुस्खा निकाला हैः यह 100 सीट की योजना है. उनके निशाने पर अब एक नया क्षेत्र हैः असम की ब्रह्मपुत्र घाटी से लेकर केरल के मालाबार तट तक की पट्टी जिसमें पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश आते हैं. ये सब मिलकर लोकसभा की कुल 205 सीटें बनाते हैं लेकिन इन्हीं राज्यों में बीजेपी का आधार कमजोर है. यहां उसे सिर्फ 9 सीटें हाथ लगी थीं—असम में सात और 2014 में पश्चिम बंगाल में दो. शाह का मानना है कि पार्टी अगर एकजुट होकर काम करे तो इन राज्यों में उसके हाथ सोने की खान लग सकती है. इन्हीं राज्यों में पार्टी अगले दो साल में चुनाव केंद्रित कार्यक्रमों और एक सशक्त नेतृत्व का सम्मिश्रण इस्तेमाल करके अपने आधार को व्यापक बनाएगी.

असम में केंद्रीय भूमिका निभाने वाले पार्टी के महासचिव राम माधव पार्टी की संभावनाओं को लेकर उत्साहित हैं. हालिया विधानसभा चुनावों में वे बढ़े हुए वोट प्रतिशत की ओर इशारा करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘अगर हम राज्यों के चुनावों में 2011 के 11 फीसदी से 43 फीसदी तक और पश्चिम बंगाल में गठबंधन सहयोगियों के साथ मिलकर 4.1 फीसदी से 15 फीसदी तक वोट प्रतिशत बढ़ा सके हैं, तो हमारे पास आत्मविश्वास की हर वजह मौजूद है.’’

यूपी की चुनौती
अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनावों को लेकर शाह काफी सतर्क हैं और हमले तथा बचाव की दोतरफा नीति पर काम कर रहे हैं. पंजाब में उन्हें किसी ऐसे तरीके की तलाश है जिससे दशक भर में बने सत्ता विरोधी माहौल को वे अपने पाले में कर सकें. इसके अलावा छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में आशंका है कि 2018 के चुनावों में बीजेपी को कुछ नुक्सान हो क्योंकि यहां वह 13 साल से राज कर रही है. उत्तर प्रदेश हालांकि इस मामले में भिन्न है कि पार्टी यहां 2002 के बाद से ही सत्ता से बाहर है और यहीं उनकी चुनावी रणनीति का सबसे तगड़ा इम्तिहान होना है. लोकसभा चुनाव में तो मोदी की लहर और सूझ-बूझ भरे टिकट वितरण के सहारे शाह ने 80 में से 71 सीटें निकाल ली थीं. यूपी में अगर वे हारते हैं, तो 2019 में जीत के सपने पर सवालिया निशान लग जाएगा. इसीलिए वे यहां कुछ भी करने को तैयार दिखते हैं.

पार्टी का मिशन यूपी 1 मई को शुरू हुआ था जब मोदी ने अपनी सरकार की महत्वाकांक्षी प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना का शुभारंभ यहां से किया था. यह 800 करोड़ रु. की लागत वाली योजना है जिसमें गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे पांच करोड़ परिवारों को एलपीजी के कनेक्शन दिए जाएंगे.

पिछड़ी जाति के नेताओं की ताकत पर भरोसा करते हुए पार्टी ने यहां केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाया है. प्रदेश इकाई को पिछड़ी जाति आधारित संगठन के रूप में शक्ल दे दी गई है. राज्य में नवनियुक्त 90 जिला अध्यक्षों में 44 पिछड़ी जातियों के नेता हैं और चार दलित हैं. पिछड़ा कार्ड खेलते वक्त हालांकि शाह और माथुर को यह ध्यान में रखना होगा कि वे ब्राह्मणों को न भूल जाएं जिन पर मायावती दोबारा डोरे डाल रही हैं.

समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के कथित दुराचारों के बरअक्स मोदी सरकार के स्वच्छ शासन और सुशासन को भी खड़ा करने की योजना है. युवाओं और महिलाओं को लक्षित करने की योजना के अंतर्गत बीजेपी की प्रदेश इकाई ने राज्य के कुल 1.4 लाख बूथों में से 1.13 लाख बूथों के आंकड़े एकत्रित कर लिए हैं. ये आंकड़े बूथ आधारित चुनावी रणनीति में इस्तेमाल किए जाएंगे, जैसा कि मोदी-शाह की जोड़ी ने सफलतापूर्वक गुजरात में लागू किया था. आरएसएस और बीजेपी के कार्यकर्ताओं को मिलाकर बनी बूथ कमेटियां संभावित वोटरों की पहचान करेंगी और विपक्षी मतदाताओं को लुभाने का काम करेंगी. यूपी की चौतरफा जंग में हाशिए के वोटों में हेरफेर भी कारगर साबित हो सकती है. फिलहाल यहां मुख्यमंत्री पद के लिए प्रत्याशी की तलाश जारी है.

बीजेपी मायावती को अपनी सबसे बड़ी चुनौती मान रही है, लिहाजा वह बीएसपी के नेताओं को अपनी ओर करने की कोशिश में है. पार्टी ने मायावती के दलित जाटव आधार को अपने जाटव नेताओं के माध्यम से चुनौती दी है. पार्टी के महासचिव और यूपी के प्रभारी ओ.पी. माथुर पूरे विश्वास से कहते हैं, ‘‘हमारे लिए स्थिति बहुत परिपक्व है.’’

बीजेपी ने अधिकतर उन्हीं राज्यों में सत्ता हासिल की है जहां कांग्रेस सत्ता में थी. उत्तर प्रदेश में इस लिहाज से मुलायम सिंह यादव और मायावती जैसे क्षत्रपों के खिलाफ उसकी जंग का आगाज होगा. प्रदेश इकाई में पदाधिकारियों की घोषणा होनी अभी बाकी है. यही नाम राज्य में पार्टी के भविष्य की दिशा तय करेंगे.

राज्य में चुनाव पूर्व गठजोड़ की गुंजाइश काफी कम है. माना जा रहा है कि बीजेपी राष्ट्रीय लोक दल के अजित सिंह से बातचीत कर रही है कि वे अपनी पार्टी का विलय उसमें कर दें. इसके बदले अजित सिंह को राज्यपाल बना दिया जाएगा और उनके बेटे जयंत को कैबिनेट मंत्री का पद दे दिया जाएगा.

कड़वी हकीकत
केरल, तमिलनाडु, ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में बीजेपी की राज्यव्यापी मौजूदगी नहीं है. विंध्य के दक्षिण में उसके पास जो मुट्ठी भर नेता हैं, उनमें एक कन्याकुमारी के सांसद और केंद्रीय मंत्री 64 वर्षीय पी. राधाकृष्णन हैं जो अब तक राज्यस्तरीय नेता के रूप में नहीं उभर सके हैं. केरल में पार्टी की पहली विधानसभा सीट जीतने वाले ओ. राजगोपालन की उम्र 86 साल हो चुकी है. इस बारे में पूछे जाने पर बीजेपी के महासचिव के. मुरलीधर राव कहते हैं, ÒÒअमितभाई इन राज्यों में एक विस्तार योजना पर काम कर रहे हैं जिसमें इन तमाम मसलों को शामिल किया जाएगा.ÓÓ शाह को साक्षी महाराज और निरंजन ज्योति जैसी आवाजों को भी काबू में करना होगा. पार्टी के विजय जुलूस के दौरान उन्हें कुछ कठिन चुनाव भी करने होंगे—उनमें एक है विकास या हिंदुत्व.

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