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पहली बार इस राष्ट्र की सार्वजनिक राजनैतिक कल्पना का हिस्सा बने एक प्रतीक के सौ साल बाद और आजादी के 68 साल बाद आज हमसे कहा जा रहा है कि हम नए सिरे से भारत माता की सौगंध खाएं. किसी भी किस्म की बहस या असहमति की गुंजाइश के बगैर अब जबकि यह मांग हमारे ऊपर लगातार थोपी जा रही है, वक्त आ गया है कि हम कुछ सवाल पूछें: मसलन, मातृभूमि की इस मिथकीय तस्वीर में आखिर कौन है; यह तस्वीर कब और कैसे अस्तित्व में आई; और आखिर किस संदर्भ में इस तस्वीर ने राष्ट्रवाद के संगठक प्रतीक की सियासी भूमिका अख्तियार कर ली? इन सवालों का तत्काल जवाब दिया जाना होगा क्योंकि किसी राष्ट्र की एक स्त्री-रूप में परिकल्पना, चाहे वह इनसानी हो या दैवीय, न तो कुदरती है और न ही स्वयंसिद्ध और बेशक, यह शाश्वत तो कतई नहीं है.
समृद्ध राजनैतिक विरोधाभास
इस राष्ट्र के अमूर्त सेकुलर आदर्श ने उपासना के उद्देश्य से जिस तरीके से एक मानवरूपी छवि की तलाश करके उसकी देह को देश के मानचित्र पर उकेर दिया, उस प्रक्रिया में एक समृद्ध राजनैतिक विरोधाभास निहित है. देवियों और देवताओं से पटी पड़ी इस धरती पर इस नई देवी का आविर्भाव बीसवीं सदी के आरंभ में होता है जो खुद अपने लिए एक जगह बनाती है. मुद्रित माध्यम की लोकप्रिय तस्वीरों में जैसे-जैसे यह तस्वीर प्रसारित होती गई, वैसे-वैसे एक देवी के रूप में मातृभूमि को मानचित्र पर दिखाया जाना शुरू हुआ. इसने हमारे भौगोलिक और प्रशासनिक दावे को नए सिरे से शुचिता प्रदान करने का काम किया.
उसकी देह और मानचित्र का फर्क धीरे-धीरे मिटता गया, फिर भारत माता ने अपने इर्दगिर्द तिरंगे और अशोक स्तंभ जैसे दूसरे राष्ट्रीय सेकुलर प्रतीकों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया. कभी-कभी तो यह मिश्रित परिदृश्य इतना दूरदर्शी बन पड़ा है कि इससे आकर्षित हुए बिना रह पाना मुश्किल हो जाता है. मसलन, 1962 में भारत माता की एक तस्वीर प्रकाशित हुई जिसमें दिखाया गया था कि खंडित अशोक स्तंभ की सुरक्षा माता के कुछ शेर कर रहे हैं और माता चीन के साथ जंग में भारत की सरहदों की सुरक्षा कर रही है. सुमति रामास्वामी ने अपनी पुस्तक द गॉडेस ऐंड द नेशनरू मैपिंग मदर इंडिया में देश की परिकल्पना की प्रक्रिया में 'वैज्ञानिक-भौगोलिक' और 'मानवरूपी-पावन' तत्वों के इस सशक्त सम्मिश्रण का जिक्र किया है. धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक के इसी सम्मिश्रण के चलते यह तस्वीर इतना अपील करती है और एक बहुधार्मिक राष्ट्र के प्रतीक के बतौर अपनी उपयुक्तता भी सिद्ध करती है.
इसके बावजूद इस तस्वीर में पर्याप्त रूप से स्पष्ट हिंदू धार्मिक व्यंजनाओं पर कभी कोई संदेह नहीं रहा है. भारत माता का यह प्रतीक लोकप्रिय उग्र राष्ट्रवाद के कंधे पर चढ़कर बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों में तब फैला जब राजनीति में समर्पण की भावना का प्रवेश हो चुका था और राष्ट्र की एक नई दैवीय छवि गढ़ने की कोशिश की जा रही थी. औपनिवेशिक प्रतिबंधों से बचने के लिए मिथकीय तस्वीरें उपनिवेश-विरोधी इंकलाबी भावनाओं को ढकने का एक नरम औजार थीं, खासकर राक्षस का वध करती भारतीय देवी की तस्वीर.
ऐसे बनी मातृभूमि की तस्वीर
बंगाल में स्वदेशी आंदोलन के शिखर दौर में रबींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास घरे बाइरे का राष्ट्रवादी नायक संदीप अपनी प्रेमिका बिमला से कहता है, ''इस देश का भूगोल पूर्ण सत्य नहीं है. कोई भी एक मानचित्र के लिए अपना जीवन दांव पर नहीं लगा सकता. हमारे देशवासियों में सच्ची देशभक्ति तब तक नहीं उभरेगी जब तक कि वे एक मातृभूमि की परिकल्पना न कर सकें—हमें उसे देवी का रूप देना ही होगा!'' इस तरह एक महिला से देवी बनी और मातृभूमि को एक देवी की तस्वीर से दर्शाया गया, जो भारत के मानचित्र से उभरकर सामने आती है और अपने शहीद बेटों के बलिदान को स्वीकार करती है. अबनींद्रनाथ टैगोर की बनाई एक तस्वीर में भारत माता को दिखाया गया. इस आकृति को बड़ा करके सिल्क के एक बैनर पर लगाया गया और रबींद्रनाथ टैगोर के राष्ट्रभक्ति वाले गीतों की धुन का सहारा लेते हुए कोलकाता के स्वदेशी आंदोलन में इससे पैसा जुटाने का काम लिया गया. इस छवि का राजनैतिक इस्तेमाल संक्षिप्त ही रहा क्योंकि बाद में कहीं ज्यादा संख्या में मुद्रित छवियों ने सार्वजनिक मानस से इसे बेदखल कर डाला.
कालांतर में काफी गहरे रंगों में इस तस्वीर को इस तरह बड़े पैमाने पर छापा गया कि वह भड़काऊ प्रतीत होने लगी—इसमें देवी के इर्दगिर्द विभिन्न राष्ट्रीय नायकों के चेहरे लगे हुए हैं जिन्हें फांसी पर लटका दिया गया, या फिर उसकी गोद में गांधी को दिखाया गया जिनके शरीर से खून रिस रहा है. यहां उन नायकों की एक काल्पनिक आकाशगंगा निर्मित कर दी गई जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास को उसके सिर के बल खड़ा कर दिया था.
जाहिर है, राष्ट्र के भड़कीले, लोकरंजक और मिथकीय निरूपण पर सवाल खड़ा करने वालों के लिए यह प्रतीक असहज करने वाला था. मातृभूमि के ऐसे ही निरूपण के चलते रबींद्रनाथ टैगोर का साहित्यिक पतन शुरू हुआ था. उनके नायक संदीप ने अनजाने में ही ऐसा प्रतीक चुन लिया था और उसे अंदाजा नहीं था कि राष्ट्र की उपासना जैसा भावनात्मक रेचन बड़ी आसानी से नफरत और सनक की राजनीति में भी तब्दील हो जा सकता है.
क्या मानचित्र और झंडे के निशान के मुकाबले राष्ट्र के निरूपण का कोई और ज्यादा सेकुलर रूपक संभव था? इसकी एक संभावना का संकेत हमें 1937 में मातृभूमि के रूप में मानचित्र के निरूपण में मिलता है जिसमें भारत माता तिरंगी साड़ी पहने हुए है, जिसकी किनारी पर चरखे की कढ़ाई है और उसकी पृष्ठभूमि में कांग्रेस के कई झंडे, टोपियां और राष्ट्रीय आंदोलन के नेता दिखाई दे रहे हैं. इससे एक साल पहले 1936 में महात्मा गांधी ने बनारस के भारत माता मंदिर में राष्ट्र के एक और कहीं ज्यादा सहज प्रतीक का अनावरण किया था, जिसमें किसी मानवीय छवि की बजाए देश का विशाल नक्शा फर्श पर लेटा हुआ दिखाया गया है. इस मानचित्र को हिंदू धर्म के गढ़ बनारस में निर्मित करने का प्रयास सचेतन था ताकि देश की सीमाओं को ही अपने आप में एक प्रतीक के तौर पर दर्शाया जा सके जिसके भीतर सभी धर्मों, जातियों और पंथों के लोगों का वास होता हो.
आज हम देश के इतिहास के दूसरे सुदूर छोर पर खड़े हैं जहां हमें खुद से यह सवाल पूछने को मजबूर किया गया है कि आखिर राष्ट्र की यह दूसरी परिकल्पना जमीन पर टिके रहने में क्यों नाकाम हो गई? आखिर क्या वजह है कि भारत के मानचित्र का वह विशिष्ट मंदिर भुला दिया गया और सार्वजनिक स्मृति में उसकी जगह आखिर कैसे आधी सदी बाद हरिद्वार में विश्व हिंदू परिषद के बनवाए उसी के एक हमनाम मंदिर ने ले ली? अस्सी के दशक में हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के ज्वार के बीच भारत माता की मुद्रित माध्यम में सदा से छपती रही वह तस्वीर अचानक संगमरमर के एक मंदिर में स्थापित कर दी गई और बनारस के मानचित्र वाले मंदिर के ऊपर उसने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया. इस तरह हमें उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद के अतीत से उठाकर राष्ट्रीयता के मौजूदा राज्य-प्रायोजित बहुसंख्यकवादी इतिहास में फेंक दिया गया.
आज भारत माता की तस्वीर वफादारी साबित करने की वस्तु
हम कह सकते हैं कि भारत माता का प्रतीक आज अपना सफर मुकम्मल कर चुका है. कला के इतिहास की जानकार गीति सेन इसके बारे में लिखती हैं कि इस प्रतीक ने कभी देश को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने के लिए धर्म का सहारा लिया था, आज देश को एक धर्म के तहत संगठित करने के लिए यह राष्ट्रवाद का सहारा ले रहा है. यह बदलाव विडंबनाओं से भरा हुआ है. अंग्रेजों के जमाने में भारत माता की तस्वीर चुपचाप प्रेम और अपनापे की चीज हुआ करती थी लेकिन आज यह वफादारी साबित करने की वस्तु बन चुकी है. आज इसी के बहाने देशभक्ति और नागरिकता की नई परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं. इनमें सबसे बड़ी विडंबना 'राजद्रोह' का वह कानून है जो औपनिवेशिक राज्य की विरासत है. आजादी से पहले मातृभूमि के मिथकीय चित्रात्मक निरूपण पर राजद्रोह लगाया जाता था, आज का राष्ट्र-राज्य इस कानून का इस्तेमाल हर उस व्यक्ति के खिलाफ कर रहा है जो इस प्रतीक को स्वीकार करने से मना करता है.
विभाजन के बाद इस राष्ट्र के खंडित नक्शे की जवाबदेही किसकी है? इस चाक-चौबंद सुरक्षा वाले राष्ट्र-राज्य में रहने का अधिकार किसे हो जबकि अपनी भौगोलिकता पर होने वाले संभावित हमलों को लेकर वह लगातार बेचैन भी है? जिस तरह यहां किसी को भी 'राष्ट्रभक्त' से 'राष्ट्रविरोधी' कभी भी ठहराया जा सकता है, वैसे ही इस राष्ट्र का जश्न मनाते-मनाते दंडभाव में फिसल जाना भी आसन्न स्थिति है. मरहूम कलाकार मकबूल फिदा हुसैन को कुछ इसी तरह मातृभूमि के निरूपण के अपने अधिकार की कीमत चुकानी पड़ी थी-आजादी की पचासवीं सालगिरह पर 1997 में उन्होंने भारत के नक्शे का एक उत्साही युवा की तरह चित्रण किया था जिसमें गणेश और गांधी के स्केच थे,
बहुमंजिला इमारतें तनी हुई थीं और हवाई जहाज उड़ रहे थे; लेकिन 2005 में राष्ट्र की यह छवि आक्रोशित, रक्ताभ और नग्न आकृति में तब्दील हो गई. मातृभूमि की क्षत-विक्षत देह और उसकी धड़ पर उन शहरों के निशान जहां दंगे और नरसंहार हुए—इस तस्वीर को एक 'मुस्लिम' कलाकार की सुनियोजित हरकत के रूप में देखा गया जिसने भारत माता को निर्वस्त्र कर डाला है. उसके बाद हुसैन को डराने-धमकाने का सिलसिला शुरू हुआ और हिंदू दक्षिणपंथियों ने उन्हें निर्वासन में धकेल दिया, जहां से वे कभी भी लौट नहीं सके. मातृभूमि ने अपने इस विशिष्ट नागरिक को उसी तरह बेदखल कर दिया जैसे वह आज हर उस नागरिक को करने के लिए धमका रही है जो उसके प्रतीक को पूरी तरह खारिज करता है.
भारत माता पर मौजूदा राजनैतिक बहसों के मद्देनजर कोलकाता
का विक्टोरिया मेमोरियल हॉल आधुनिक कला का अपना एक संग्रह (रबींद्रनाथ
भारती सोसाइटी से लेकर) सामने लाने जा रहा है जिसने कई मायनों में इस
प्रतीक को जन्म दिया था. महीने की कलाकृति के रूप में प्रदर्शित
अबनींद्रनाथ टैगोर की 1905 में बनाई 'वॉश' पेंटिंग मातृभूमि को त्याग और
मुक्ति की एक संन्यासिन की आकृति के रूप में पेश करती है. इसे बनाते वक्त
कलाकार के दिमाग में यह बात थी कि वह भारत राष्ट्र के लिए पहली बार एक
'कलात्मक' प्रतीक का निर्माण कर रहा है जो न तो धार्मिक है और न ही
राजनैतिक. इस आकृति के जरिए कोलकाता के स्वदेशी आंदोलन में पैसा जुटाने का
काम लिया गया. इस छवि का राजनैतिक इस्तेमाल संक्षिप्त ही रहा.
लेखिका ताप्ति गुहा-ठाकुरता कोलकाता के सेंटर फॉर स्टडीज इन सोशल साइंसेज में निदेशक हैं