Advertisement

चीन: लाल सेना की नई पेशबंदी

शी जिनपिंग चीनी सेना का जो कायापलट कर रहे हैं, उससे बेशक भारत को बेहद सतर्क हो जाने की जरूरत है.

अनंत कृष्णन
  • बीजिंग,
  • 15 फरवरी 2016,
  • अपडेटेड 3:29 PM IST

नवंबर 2012 में शीजिनपिंग ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव की गद्दी संभाली थी और मार्च 2013 में वे देश के राष्ट्रपति बने. तभी से उनके कामकाज में पूर्ववर्ती हू जिंताओ से जो सबसे खास फर्क दिखाई दिया है, वह शायद सेना के साथ उनका बर्ताव रहा है. पार्टी के मुखिया और राष्ट्रपति के तौर पर उनके राज्यारोहण की शर्त के तहत एक तीसरा पद भी उन्हें सौंप दिया गया और वह था सेंट्रल मिलिटरी कमिशन (सीएमसी) के अध्यक्ष की कुर्सी. इस तरह वे एक साथ पार्टी, सरकार और सेना तीनों की कमान संभालने की बेहद खास और अभूतपूर्व हैसियत में आ गए.

शी ने 1 फरवरी को कई फैसलों का ऐलान किया, जिन्हें पीएलए डेली ने “1950 के दशक के बाद से सबसे बड़े पैमाने पर किए गए सैन्य सुधार” करार दिया. इन सुधारों से देश की विशाल फौज के हरेक क्षेत्र पर उनका दबदबा और नियंत्रण कायम हो जाएगा. पिछले कई दशकों से यह फौज सत्ता के भीतर एक सत्ता की तरह काम करती आई है, जहां उसे बेरोकटोक अधिकार हासिल थे और निगरानी करने वाला कोई नहीं था. उसके चार मुख्य अंग हैं&सेना, नौसेना, वायु सेना और सेकंड आर्टिलरी कोर, जिसके हाथों में मिसाइलों और परमाणु हथियारों की कमान है. इन चारों के अलावा पीपल्स लिबरेशन आर्मी को विशाल नौकरशाही चलाती है, जो चार आम महकमों में फैली हुई है&जनरल स्टाफ, सियासी महकमा, सैन्य संचालन तंत्र और शस्त्रागार. ये सभी मोटे तौर पर स्वायत्त जागीरों की तरह काम करते रहे हैं, जिनमें पसंदीदा जनरलों ने चहेतों को आगे बढ़ाया, जेबें भरीं, विशाल लाव-लश्करों पर हुकूमत की और अरबों के कारोबारी हितों को मनमर्जी से तय किया.

जनवरी में शी ने इन चारों महकमों को एक झटके में भंग कर दिया और उन्हें सीएमसी के सीधे नियंत्रण में ले आए. उनका कद छोटा करके उन्हें विशेष कामों के लिए बने 15 बनिस्बतन छोटे “फौजी” महकमों की बराबरी में रख दिया गया. इनमें वह एक महकमा भी शामिल है जो पूरी तरह भ्रष्टाचार का मुकाबले करने और “अनुशासन निरीक्षण” के काम के लिए समर्पित है. शी ने इस पहल को “सैन्य नेतृत्व और कमान व्यवस्था के सुधार में नाटकीय कामयाबी” बताया. पीएलए के इतिहास में यह पहला मौका है जब उसका पूरा प्रशासन सीएमसी के नियंत्रण में आ जाएगा.

दूसरे बड़े सुधार का ऐलान 1 फरवरी को किया गया. इसके तहत चीन के संपूर्ण भूभाग में चारों तरफ फैली सात लंबी-चौड़ी मिलिटरी एरिया कमान को पांच मजबूत “थिएटर कमान” या युद्धक्षेत्र कमान में मिला दिया गया (ग्राफिक देखें). ये पांचों युद्धक्षेत्र कमान लड़ाई की पूर्व तैयारी और मुस्तैदी के लिए जिम्मेदार होंगी और सीधे सीएमसी के मातहत काम करेंगी. पहली बार पांचों युद्धक्षेत्रों के लिए थल, वायु और नौसेना की एक संयुक्त कमान भी होगी. दो नए सैन्यबल भी बनाए गए हैं. इनमें एक पीएलए रॉकेट फोर्स है, जो सेकंड आर्टिलरी कोर का उन्नत रूप होगी और चीन की मिसाइलों की देखरेख करेगी, और दूसरी पीएलए स्ट्रैटजिक सपोर्ट फोर्स होगी, जिसमें जानकारों के मुताबिक एक ज्यादा बड़ा साइबर युद्ध महकमा भी होगा.

छीजती हुई फौज

चीन के भीतर और बाहर भी पीएलए को दुश्मनों के छक्के छुड़ा देने वाला लड़ाका बल माना जाता रहा है. मगर उसका हाल का इतिहास इतना शानदार नहीं है. उसे जंग का आखिरी असल तजुर्बा 1979 में वियतनाम के खिलाफ लड़ाई में हुआ था, जिसमें उसे धूल चाटनी पड़ी थी. तब से पीएलए ने कोई बड़ी लड़ाई नहीं लड़ी है. मगर हाल की दो घटनाओं ने उसकी काबिलियत का इम्तिहान लिया था और बीजिंग के आला अफसरों और सैन्य पर्यवेक्षकों को बेचैनी से भर दिया था. इनसे यह धारणा भी पुख्ता हो गई थी कि किसी जमाने की जांबाज इंकलाबी फौज&जिसने कोरिया में अमेरिकियों से लोहा लिया, हिंदुस्तानी फौजों को हराया और रूसियों को ललकारा था&एक थुलथल लाव-लश्कर में बदल गई है, जिसके सेनापति फौजी टुकडिय़ों को लडऩा सिखाने की बजाए फौज के लंबे-चौड़े कारोबारी फायदों पर ज्यादा आंखें गड़ाए थे.
पहली घटना मई 2008 में घटी, जब पश्चिमी सिचुआन प्रांत में एक विनाशकारी भूकंप ने दस्तक दी थी और 70,000 से ज्यादा जिंदगियां लील गया. राहत के कामों के लिए पीएलए को लगाया गया. भूकंप से दूरदराज के इलाके प्रभावित हुए थे. वे प्रांतीय राजधानी चेंगदु में स्थित पीएलए के विशाल मुख्यालय की पहुंच के पूरी तरह बाहर भी नहीं थे. इसके बावजूद पीएलए की प्रतिक्रिया बहुत सुस्त और ढीली-ढाली थी, दरअसल इतनी नकारा थी कि सभी स्तरों पर प्रशिक्षण को दुरुस्त करने के लिए आंतरिक तहकीकात का काम हाथ में लेना पड़ा था.
मुश्किल से एक साल भी नहीं बीता था कि इम्तिहान की दूसरी घड़ी आ गई. मुसलमानों की बहुसंख्यक आबादी वाले शिनजियांग प्रांत की राजधानी उरुम्की में हथियारबंद उइगर लड़ाके सड़कों पर तबाही मचाते निकल पड़े. वे दो दिनों तक इमारतों में आग लगाते और चीनी बाशिंदों को मौत के घाट उतारते रहे. सरकारी आंकड़ों में 197 लोगों की मौत होना बताया गया, मगर उइगर और चीनी, दोनों मानते हैं कि दोनों ही तरफ मौतें इससे कहीं बड़ी तादाद में हुई थीं. यहां भी सेना की प्रतिक्रिया कमतर पाई गई. अर्द्धसैनिक इकाई पीपल्स आर्म्ड पुलिस के एक पूर्व अफसर कमान शृंखला में गड़बडिय़ों को याद करते हैं. शुरुआत में नौजवान अफसरों को सैकड़ों की हथियारबंद भीड़ का मुकाबला करने के लिए भेज दिया गया, जबकि उन्हें न तो कायदे का प्रशिक्षण दिया गया था और हथियार के नाम पर उनके पास बंदूकें तक नहीं थीं. नियम-कायदों के मुताबिक ज्यादा ऊंचे दर्जे की टुकडिय़ों को तैनात करने के लिए इजाजत की जरूरत थी. वह कभी नहीं मिली. गड़बडिय़ां इस हद तक थीं कि तब तक सीएमसी के मुखिया के नाते पीएलए की कमान संभाल चुके तत्कालीन राष्ट्रपति हू जिंताओ को इटली में चल रही जी20 की बैठक को बीच में छोड़कर उलटे पैर भागकर आना पड़ा.

भीतरी दुश्मन

उनके उत्तराधिकारी शी ऐसी घटनाओं के दोबारा होने देने का कोई जोखिम नहीं उठा रहे हैं. हू और उनसे पहले जिआंग, दोनों ने सत्ता के पहले कुछ साल फौज का नियंत्रण अपने पूर्ववर्तियों के हाथ में रहने दिया था. हू के वक्त में जिआंग रिटायर होने के बाद भी इतने असरदार थे कि पीएलए के बा यी मुख्यालय में उनका बाकायदा एक दफ्तर था और फाइलें उनके पास पहुंचती थीं. आज शी को जिस किस्म की सत्ता हासिल है, पीढिय़ों से किसी चीनी नेता को नहीं मिली थी. इसका इस्तेमाल करने में उन्हें कोई हिचक भी नहीं है. इसीलिए वे फौज में ये सुधार कर पाए हैं.

पीएलए किसी भी दूसरी फौज की तरह नहीं है. यह सरकार या राज्य के लिए काम नहीं करती. यह एक राजनैतिक पार्टी के लिए काम करती है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और पीएलए के बीच रिश्ता पेचीदा है. पीएलए पर नियंत्रण को लेकर पार्टी का असैन्य नेतृत्व इस कदर फिक्रमंद रहता है कि बीजिंग में कोई महीना नहीं गुजरता जब आला हलकों से ऐलान न किया जाता हो कि पीएलए की वफादारी सिर्फ पार्टी के प्रति ही होनी चाहिए. फौजी टुकडिय़ों को आज भी घंटों बैठकर सियासी प्रशिक्षण लेना पड़ता है और मार्क्सवाद तथा माओ त्से तुंग के सिद्धांतों की तालीम हासिल करनी पड़ती है.

अलबत्ता व्यवहार में पीएलए को खुद अपने तौर-तरीकों के भरोसे छोड़ दिया गया है. एक लिहाज से उसकी वफादारी खरीदी गई है. जबरदस्त व्यावसायिक फायदे फौज के हाथों में सौंप दिए गए थे, जो जमीन-जायदाद के कारोबार से लेकर बेशकीमती उद्योगों तक फैले थे. लगातार बढ़ता रक्षा बजट तो है ही, जिसमें पिछले एक दशक में सालाना दहाई अंकों की बढ़ोतरी हुई है और जो इस साल 150 अरब डॉलर को भी पार कर जाता. इस पर अब विराम लग जाएगा.

नई फौज का निर्माण

पीएलए के अफसर और विशेषज्ञ कहते हैं कि शी के सुधारों का बुनियादी मकसद दोहरा है. एक, पीएलए के फैसले लेने की ताकत को सीएमसी&और शी&के हाथों में केंद्रित करना और दूसरा, ऐतिहासिक तौर पर जमीन पर दबदबे वाली फौज को फुर्तीले एकीकृत बल में तब्दील करना. इसकी प्रक्रिया शी ने सितंबर में शुरू की थी, जब उन्होंने 23 लाख फौजियों की ताकतवर सेना में 3,00,000 सैनिकों की कटौती करने का ऐलान किया था. सीएमसी के मातहत फौजी महकमे पहले मकसद के लिए काम करेंगे, जबकि ये पांचों युद्धक्षेत्र कमान को दूसरे मकसद की जिम्मेदारी सौंपी गई है. बीजिंग के एक सैन्य विशेषज्ञ झाओ शिआओझुओ बताते हैं कि इस कवायद के पीछे इरादा सीएमसी के हाथ मजबूत करना और “सेना के ऊपर पार्टी का मुकम्मल दबदबा कायम करना” है.

यह कायापलट किसी हाल में रातोरात नहीं हुआ है. इसकी जमीन पिछले दो दशकों से ज्यादा वक्त से तैयार की गई थी. ये सुधार आखिरकार उस रणनीति को ही लागू कर रहे हैं, जो 1993 में खाड़ी की जंग के बाद अपनाई गई थी. उस वक्त अमेरिकी बमबारी के प्रदर्शन से सदमे में आई पीएलए ने अपने स्थायी मिशन को तब्दील कर दिया था. उसने श्पीपल्स वॉर्य के मिशन को तिलांजलि देकर “सूचना तकनीकी (या हाइ-टेक) से लैस हालात में स्थानीय युद्धों” को जीतने का मिशन तय किया था. पीएलए का इतिहास इंकलाबी फौज का रहा है. इसमें उसकी  खास ऐतिहासिक भूमिका थी और बाकी सेवाओं पर उसका खासा प्रभाव हुआ करता था. इसको देखते हुए उसे एकीकृत फौज में बदलना कम्युनिस्ट पार्टी के लिए टेढ़ी खीर रहा है.

शी के सुधारों से उम्मीद की जा रही है कि यह सूरत बदलेगी. पीएलए के जानकार और एमआइटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर टेलर फ्रावेल कहते हैं, “संगठन के नजरिए से सोचें या संस्था के नजरिए से, ये सुधार अभूतपूर्व हैं. ये 1950 के दशक में अपनाई गई जनरल स्टाफ व्यवस्था और सैन्य क्षेत्र के ढांचे को जड़ से मिटाते हैं. इनकी कामयाबी में फिलहाल संदेह है, लेकिन अगर ये कामयाब होते हैं, तो फौज की जंगी ताकत में खासा इजाफा होना चाहिए.”

पहले वाली व्यवस्था “संयुक्त कमान में अड़चन पैदा करती थी.” फ्रावेल कहते हैं, “जमीनी फौज का मुख्यालय बनाने और सेकंड आर्टिलरी को पीएलए रॉकेट फोर्स के तौर पर उन्नत करने के पीछे मुख्य वजह फौज की संयुक्त कमान को बेहतर बनाना है. मगर इन सुधारों के कामयाब अमल की मुश्किलों पर जोर देने की जरूरत है. संगठन में इतने लंबे-चौड़े बदलाव आसान नहीं है, इसलिए ये सुधार लगातार चलने वाले हैं और बदलाव अभी तो शुरू ही हुआ है.”

शी के सामने मुश्किल चुनौती है, इसमें कोई शक नहीं. मगर बीजिंग की सोच यही है कि दशकों बाद वही ऐसे नेता हैं जो इस काम को पूरा करने के लिए सबसे बेहतर हैसियत में हैं. शंघाई की फुतान यूनिवर्सिटी में चीनी सुरक्षा के प्रमुख विशेषज्ञ शेन डिंगली कहते हैं, “सार्वजनिक तौर पर मौजूद जानकारी के मुताबिक, पिछले तीन साल में तकरीबन सभी मोर्चों पर पीएलए को आधुनिक बनाने में प्रगति हुई है.” अपने पूर्ववर्ती जिआंग और हू के विपरीत, शी को अपनी “लाल जड़ों” की बदौलत निर्विवाद साख हासिल हुई है. उनके पिता शी झोंगशुन कम्युनिस्ट पार्टी के इंकलाबी नायकों में शुमार थे. साम्यवादी खानदानों के इतिहास पर निगाह रखने वाले बीजिंग के इतिहासकार झांग लिफान कहते हैं कि “दूसरी लाल पीढ़ी” &पार्टी के संस्थापक क्रांतिकारियों के बेटे और बेटियां&“शी के इर्दगिर्द लामबंद” हो गई है. उन्हें भरोसा है कि वे पार्टी और पीएलए में नई जान फूंकेंगे. झांग के मुताबिक, ये लाल खानदान पार्टी और पीएलए दोनों को अपनी “बपौती” के तौर पर देखते हैं.
इसकी एक अच्छी मिसाल हमकदम “छोटे प्रिंस लिउ युआन हैं. पूर्व राष्ट्रपति लिउ शाओ की के बेटे युआन पीएलए के जनरल हैं और शी ने फौज की कतरब्योंत की इस जंग में उन पर काफी भरोसा किया है. लिउ ने उस सामान्य सैन्य संचालन महकमे की भारी-भरकम जागीर को छिन्न-भिन्न करने में अहम भूमिका अदा की, जिसे लंबे वक्त से सबसे ज्यादा भ्रष्ट माना जाता रहा है. लिउ ने इसके डिप्टी डायरेक्टर लेफ्टिनेंट जनरल गु जुंशान का तक्चतापलट किया, जो इस जागीर पर काबिज थे. गु पीएलए के सबसे ऊंची पायदान के अफसर थे, जिन्हें 2015 में गिरफ्तार किया और मुकदमा चलाया गया. उन पर अदालत में सैन्य जायदाद की गैरकानूनी बिक्री के, जिससे उन्होंने करोड़ों कमाए, और “सत्ता के दुरुपयोग” के आरोप साबित हुए. लिउ यहीं नहीं रुके. गु के सफाए के एक साल बाद उन्होंने हू के मातहत सीएमसी के उपाध्यक्ष के तौर पर एक दशक से चीन के सबसे ऊंचे पायदान पर काबिज जनरल शू काइ होउ को भी गद्दी से बेदखल कर दिया. शू जबरदस्त भ्रष्टाचार के लिए 2014 में पार्टी से निकाले जाने वाले सीएमसी के पहले सदस्य बने. मार्च 2015 में सीखचों के पीछे उनकी मौत हुई.

सरहदों पर खम ठोकना
संगठन में यह सारा फेरबदल और पुरानी जागीरों को नेस्त-नाबूद सेना की साफ-सफाई के मकसद से तो किया ही जा रहा है, उतने ही ये सुधार चीन की सरहदों के पार सैन्य ताकत के रूप में पीएलए  की छवि को बदल देंगे. फ्रावेल बताते हैं कि पांच नए युद्धक्षेत्र “चीन की रणनीतिक दिशाओं को फौज की कमान की सीध में लाने के लिहाज से तय किए गए हैं.” वे कहते हैं, “इस तरह उत्तरी युद्ध क्षेत्र उत्तर कोरिया पर, केंद्रीय युद्ध क्षेत्र बीजिंग की हिफाजत पर, पूर्वी युद्ध क्षेत्र ताइवान और कुछ हद तक सेनकाकू/डिआओयू द्वीपों (जिनको लेकर जापान से विवाद चल रहा है) पर, दक्षिणी युद्ध क्षेत्र दक्षिण चीन महासागर पर और पश्चिमी युद्धक्षेत्र भारत तथा सीमा नियंत्रण पर फोकस करेगा.”
भारत के लिए इसका मतलब विवादित वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलओएसी) पर असंतुलन का और भी बढऩा हो सकता है. पिछले दशक में चीन ने तिब्बती पठार पर चारों तरफ राजमार्गों, रेलमार्गों और हवाई अड्डों का विशाल बुनियादी ढांचा पहले ही खड़ा कर लिया है. इरादा यह है कि “एक हाइ-टेक लड़ाई” को फतह करने के लिए बहुत कम वक्त में भारी तादाद में सैन्य असबाब को लामबंद किया जा सके.
दिल्ली स्थित जेएनयू में पढ़ाने वाले और चीनी फौज के विशेषज्ञ श्रीकांत कोंडापल्ली कहते हैं, “पीएलए जो कह रही है, वह यह है कि अब आगे से वह नेपोलियन के जमाने की जंग में उतरने नहीं जा रही है, बल्कि दुश्मन को लाचार करने का मकसद लेकर चलेगी. वे तेजी से प्रतिक्रिया करने वाली 40 इकाइयां खड़ी कर रहे हैं, जिनमें से 30 तो बन भी चुकी हैं. और फौजी टुकडिय़ों को लाने-ले जाने के लिए वे एक हवाई पलटन भी बना रहे हैं.”

लक्ष्मण रेखा खींचना
इस बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत और चीन, दोनों अपने-अपने दावों के मुताबिक एक दूसरे को ढकने वाली रेखाओं तक गश्त लगा रहे हैं. सीमा रक्षा सहयोग समझौते और सीमा कर्मियों की मुलाकात के अतिरिक्त ठिकाने बनाने के जरिए भरोसे के उपाय बढ़ाने की कोशिशें की गई हैं. फिर भी वास्तविक नियंत्रण रेखा सितंबर और नवंबर में हुई घुसपैठों के साथ, कोंडापल्ली के शब्दों में, “अब भी खदबदा रही है.”
पीएलए के कायापलट से अलबत्ता लंबे वक्त से चले आ रहे इस सवाल का जवाब मिल सकता है कि वह खुद सरहदों पर हालात के बेहतर होने में रुकावट है या नहीं. “हिंदुस्तान बरसों से इस सवाल से जूझता रहा है कि गैर-वाजिब मौकों पर होने वाली ये घुसपैठें स्थानीय कमांडरों की कारस्तानियां हैं या बीजिंग के वरिष्ठ नेतृत्व के निर्देशों और देखरेख में की जाती हैं.्य्य यह कहना है अमेरिकन फॉरेन पॉलिसी काउंसिल के एशियन सिक्योरिटी प्रोग्राक्वस के डायरेक्टर और कोल्ड पीस-चाइना-इंडिया राइवलरी इन द ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी के लेखक जेफ स्मिथ का.
वे कहते हैं, “राष्ट्रपति शी की पहली भारत यात्रा के दिनों में की गई घुसपैठ के तीन हफ्तों बाद उन्होंने देश लौटने के कुछ ही दिनों के भीतर पीएलए के आला अफसरों को सार्वजनिक फटकार लगाई, जो बनिस्बतन सख्त नजर आती थी, और पार्टी के प्रति वफादारी की अहमियत की घुट्टी पिलाई. दूसरी तरफ, बाद में चीन-भारत सरहद के उस हिस्से के लिए जिम्मेदार सैन्य क्षेत्र के कमांडर को ऊंचे ओहदे पर तरक्की दे दी गई.”

दोनों में से कोई भी देश टकराव नहीं चाहता. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और शी, दोनों में इस बात पर रजामंदी है कि रिश्ते को सीमा विवाद का बंधक बनाए रखना किसी के हक में नहीं है. खासकर तब जब आर्थिक रिश्ते बढ़ रहे हैं और भारत में चीनी निवेश में इजाफा हो रहा है. मगर एलओएसी पर पीएलए की रणनीति में कोई ढील नहीं आई है. भारतीय अफसर कहते हैं कि घुसपैठ की घटनाओं को “संभाल” लिया जाता है, मगर वे रिश्तों की फांस तो बनी ही हुई हैं. और अब जब शी फौज की नई शक्लो-सूरत गढ़ रहे हैं, भारत को फिक्र इस बात की है कि नाजुक शक्ति संतुलन चीन के हक में ही झुका रहेगा.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement