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जजों की नियुक्ति संबंधी विधेयकों में कुछ गंभीर खामियां हैं

जजों की नियुक्ति के मामले में संसद में पारित विधेयकों में कुछ गंभीर खामियां हैं. संसद न्यायिक नियुक्ति विधेयक को साधारण बहुत से पारित कर सकती है.

अभिनव चंद्रचूड़
  • नई दिल्ली,
  • 26 अगस्त 2014,
  • अपडेटेड 5:48 PM IST

संसद ने दो ऐसे विधेयक पारित किए हैं जो देश में आला अदालत के जजों की नियुक्ति के तरीके को मूलभूत रूप से बदल देंगे. लगता है, सरकार ने उन्हें भारी जल्दबाजी में पारित किया है. सरकार शायद जजों की नियुक्त में कॉलेजियम सिस्टम पर चारों तरफ से हो रहे हमले का फायदा उठाना चाहती थी. लेकिन इस जल्दबाजी के कारण इन विधेयकों में कुछ गंभीर खामियां रह गई हैं.

1993 से आला अदालत के जजों की नियुक्त कॉलेजियम सिस्टम के तहत होती रही है. इस सिस्टम में वरिष्ठ जज होते हैं और वे ही जजों की नियुक्ति करते हैं. लेकिन इस व्यवस्था में खुलापन न होने और जवाबदेही तय न होने की बात कहकर इसकी आलोचना होती थी. इन विधेयकों में कॉलेजियम सिस्टम की जगह नेशनल जुडीशियल एप्वाइंटमेंट्स कमिशन (एनजेएसी) लाने की बात कही गई है. एनजेएसी में छह सदस्य होंगेः प्रधान न्यायाधीश (सीजेआइ), ‘सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठ जज’, दो ‘प्रतिष्ठित व्यक्ड्ढित’ और कानून मंत्री. इसमें एकमात्र राजनैतिक सदस्य के रूप में मंत्री को रखा गया है. चूंकि ‘प्रतिष्ठित व्यक्ड्ढितयों’ का चयन एक समिति करेगी, जिसमें प्रधान न्यायाधीश और एक-दूसरे के विरोधी प्रधानमंत्री व विपक्ष के नेता होंगे, इसलिए ‘प्रतिष्ठित व्यक्ड्ढित’ संभवत: निर्दलीय और निष्पक्ष होंगे.

नए एनजेएसी में तीन न्यायिक सदस्य होंगे और तीन गैर-न्यायिक सदस्य. न्यायिक और गैर-न्यायिक सदस्यों के बीच इस समान संतुलन पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती. अब तक देश में न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया को एकतरफा बताया जाता था, जिसमें या तो कार्यपालिका को न्यायपालिका पर पूरी ‘सर्वोच्चता’ हासिल होती थी या फिर न्यायपालिका को कार्यपालिका पर. इस प्रकार 1981 में ‘फस्र्ट जजेज केस’ में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि कार्यपालिका को न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया में सर्वोच्चता हासिल होगी, जबकि 1993 में ‘सेकंड जजेज केस’ में न्यायपालिका को प्रमुखता हासिल हो गई थी. अब इन नए विधेयकों से जजों की नियुक्ति में दोनों को समान अधिकार प्राप्त होगा.

बहरहाल, एनजेएसी के मौजूदा स्वरूप में कुछ गंभीर खामियां हैं. पहली, जो शायद सबसे महत्वपूर्ण है, एनजेएसी में वोटिंग की प्रक्रिया सरकार द्वारा किसी भी समय खतरनाक रूप से बदली जा सकती है. संसद ने दो नए कानून पारित किए हैं—संविधान (99वां संशोधन) कानून, 2014 (जिसे प्रभाव में आने के लिए अब भी राज्यों की आधी विधानसभाओं के अनुमोदन की जरूरत है) और नेशनल जुडीशियल एप्वाइंटमेंट्स कमिशन कानून, 2014. इस समय सिर्फ दूसरे कानून में ही वोटिंग की प्रक्रिया आती है. यह कहता है कि एनजेएसी 5-1 के महा-बहुमत के आधार पर जजों की नियुक्तियां करेगा—एनजेएसी के किन्हीं भी दो सदस्यों को जजों की नियुक्ति पर वीटो लगाने का अधिकार होगा. यह संतोषजनक है, क्योंकि इसमें जजों की नियुक्तियों को एकमात्र राजनैतिक सदस्य यानी कानून मंत्री की सहमति के बिना गैर-राजनैतिक बनाया जा सकता है.

लेकिन वोटिंग की इस व्यवस्था को संवैधानिक संशोधन में निर्धारित नहीं किया गया है, बल्कि साधारण कानून में निर्धारित किया है, इसलिए जरूरत के समय संसद द्वारा इसे किसी भी समय बदला जा सकता है. देश में न्यायिक नियुक्तियों के मामले में संविधान के प्रावधानों में संशोधन करना आसान नहीं है. ऐसा के लिए संसद में दो-तिहाई बहुमत की जरूरत होती है और राज्यों की विधानसभाओं से अनुमोदन प्राप्त करना होता है. इसके विपरीत साधारण कानून संसद में साधारण बहुमत से पारित किए जा सकते हैं. इस प्रकार न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी कानून को संसद साधारण बहुमत के जरिए कभी भी बदला जा सकता है.

दूसरा, एनजेएसी बहुत ज्यादा केंद्रीकृत है. कॉलेजियम सिस्टम में स्थानीय हाइकोर्ट के कॉलेजियमों को हाइकोर्ट के जजों की नियुक्तियों में प्रमुख भूमिका हासिल होती है. इसके विपरीत एनजेएसी पूरी तरह केंद्रीय संस्था है, जिसमें स्थानीय प्रतिनिधित्व के लिए कोई स्थान नहीं है. अपने राज्यों की जमीनी हकीकतों से वाकिफ हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों को एनजेएसी में कोई भूमिका हासिल नहीं है. इसके अलावा, केंद्रीय मंत्री को यह फैसला करने का अधिकार क्यों प्राप्त होना चाहिए कि मद्रास हाइकोर्ट में कौन जज होगा. नए कानून में एनजेएसी को हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों और राज्य सरकारों की सिफारिशों पर सिर्फ विचार करने की जरूरत है, लेकिन उन सिफारिशों को पूरी तरह अनदेखा किया जा सकता है. इस पर कोई रोक नहीं है.

तीसरी, हालांकि न्यायिक नियुक्तियों की प्रणाली बदल गई है, लेकिन लोगों को आशंका है कि न्यायिक नियुक्तियों में गहराई से पैठे पारंपरिक तौर-तरीके में शायद कोई बदलाव आएगा. इस समय ये अलिखित नियम हैं कि 55 साल से कम उम्र के व्यक्ति को सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं नियुक्ति किया जा सकता है और सिर्फ ‘वरिष्ठ’ जज (ज्यादातर हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश) ही सुप्रीम कोर्ट के जज बन सकते हैं. जबकि इसके लिए योग्यता को आधार मानना चाहिए, न कि उम्र और वरिष्ठता को. एनजेएसी में इस चलन को बदलने की कोई व्यवस्था नहीं है. अगर इस तरह की व्यवस्था डाली जाती तो अपेक्षाकृत ऊर्जावान, योग्य और युवा जजों को भी सुप्रीम कोर्ट में आने का मौका मिल पाता.

इन विधेयकों के साथ कुछ और भी समस्याएं हैं. 99वां संविधान संशोधन इस बात को स्पष्ट नहीं करता है कि राष्ट्रपति क्या एनजेएसी की सिफारिशों को मानने के लिए बाध्य हैं. इसके अलावा, प्रधान न्यायाधीश के चयन में एनजेएसी में गैर-न्यायिक सदस्यों का बहुमत है. संक्षेप में कहें तो कॉलेजियम व्यवस्था में हालांकि कुछ सुधार की जरूरत थी, लेकिन जल्दबाजी में तैयार किए गए मौजूदा विधेयकों में कई गंभीर गलतियां हैं, जिन पर गहराई से गौर करने की जरूरत है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि सरकार इस कानून को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने की बजाए एक बेहतर कानून बनाने के बारे में सोचे. यह संविधान की मूल भावना और लोकतंत्र के सभी बुनियादी स्तंभों की स्वतंत्रता के लिए बेहतर होगा.

(अभिनव चंद्रचूड़, द इनफार्मल कांस्टीट्यूशनः अनरिटेन क्राइटेरिया इन सेलेक्टिंग जजेज फॉर सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया के लेखक हैं)

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