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वित्त मंत्री अरुण जेटली की तरफ से बजट में की गई घोषणाओं ने दलाल स्ट्रीट को निराश किया है. लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन्स पर टैक्स लगाए जाने से और राजकोषीय गिरावट अपेक्षा से ज्यादा रहने का असर शेयर बाजार पर पड़ा है. बजट के बाद वैश्विक कारणों से भी बाजार में गिरावट देखने को मिल रही है, लेकिन मार्केट में लंबे समय तक गिरावट के लिए वैश्विक कारणों से ज्यादा घरेलू स्तर पर इकोनॉमी के सामने उठ रही चुनौतियां ही वजह बनेंगी.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अर्थव्यवस्था के अच्छे दिनों को लाने में बाजार का भी बड़ा हाथ होता है. यही वजह है कि शेयर बाजार में जारी उठापटक इस सरकार के लिए बेहतर भविष्यवाणी नहीं साबित हो रही है.
सरकार भले ही अच्छे दिनों का सपना दिखाती रहे, लेकिन कमजोर और अस्थिर बाजार का असर देश की अर्थव्यवस्था पर जरूर नजर आएगा. यह महंगाई बढ़ाने और आर्थिक सुस्ती का दौर शुरू होने का खतरा पैदा करने समेत अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर कई चुनौतियां खड़ी कर सकता है. बजट के बाद लगे झटकों के बाद शेयर बाजार दो गुटों (सतर्क और आशावादी ) में बंट गया है.
अर्थव्यवस्था के सामने बढ़ती महंगाई, तेल की बढ़ती कीमतें और चालू खाता व वित्तीय घाटा बढ़ने की चुनौती है. ऐसी स्थिति में जहां कुछ निवेशकों को लगता है कि बाजार लघु से मध्य अवधि में परिवर्तनशील रहेगा या फिर नियंत्रण में आ जाएगा. वहीं, कुछ का कहना है कि बाजार में अभी करेक्शन बाकी है और यह और भी नीचे जा सकता है.
लेकिन बाजार अगर यूं ही लंबे समय तक अस्थिर रहता है, तो इसका अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर काफी असर पड़ेगा.
म्युचुअल फंड में निवेश हो सकता है कम
भारत में 2014 के बाद वित्तीय निवेश में बढ़ोतरी आई है. इसकी बदौलत रियल इस्टेट और सोने में निवेश करने की बजाय मध्यम वर्ग ने अब मार्केट में निवेश करना शुरू कर दिया है. इसके लिए उसने म्युचुअल फंड का विकल्प चुना है. खासकर छोटे शहरों की तरफ से निवेश लगातार बढ़ रहा है. यही वजह है कि म्युचुअल फंड इंडस्ट्री का निवेश 2017 में 22 लाख करोड़ को पार कर गया है, जिसमें 1.69 लाख करोड़ रुपये इसी साल में आया है.
फंड मैनेजर्स को डर है कि अगर शेयर बाजार में यूं ही गिरावट का दौर बना रहा, तो इससे म्युचुअल फंड इंडस्ट्री का निवेश 50 फीसदी तक नीचे आ सकता है. घरेलू निवेशक जो अभी इनमें निवेश करने के लिए आगे आ रहे हैं, वे अपना हाथ खींचना शुरू कर सकते हैं. म्युचुअल फंड शेयर बाजार को वैश्विक अनियमितताओं से बचाने में अहम भूमिका निभाता है. कम रिटर्न और ज्यादा टैक्स भी निवेशक को म्युचुअल फंड से दूर खींच सकता है और वह एक बार फिर सोने व रियल इस्टेट में निवेश शुरू कर सकता है.
बाजार में आई तेजी की बदौलत पिछले साल इनिशियल पब्लिक ऑफरिंग्स (IPO) एक नये स्तर पर पहुंची हैं. 2017 में 36 कंपनियों ने आईपीओ के जरिये 67,141 करोड़ रुपये जुटाए हैं. पिछले 10 साल के दौरान यह दूसरा सबसे बड़ा आईपीओ कलेक्शन था. इंडस्ट्री का अनुमान है कि आने वाले दिनों में 48 से भी ज्यादा कंपनियां आईपीओ लाने वाली हैं. लेकिन बाजार में गिरावट का दौर अगर जारी रहता है, तो कंपनियां आईपीओ लाने को लेकर सतर्क हो सकती हैं. इससे 2017 में आईपीओ का जो उच्च स्तर रहा, वह नीचे आ सकता है.
विनिवेश के लिए बाजार की स्थिरता जरूरी :
सरकार अगर वित्तीय स्थिति को बेहतर बनाए रखना चाहती है, तो उसे बाजार में स्थिरता की काफी ज्यादा जरूरत है. 2017-18 में सरकार ने अपने विनिवेश के लक्ष्य को पार किया था. यह अब तक के सबसे ज्यादा के स्तर (72,500 करोड़) पर पहुंचा था. उम्मीद है कि सरकार को 1 लाख करोड़ रुपये मिलेंगे. वित्त वर्ष 2018-19 के लिए सरकार ने विनिवेश का लक्ष्य 80 हजार करोड़ रुपये रखा है. जो कि मौजूदा वित्त वर्ष के लक्ष्य से साल-दर-साल की दर से 10 फीसदी ज्यादा है. सरकार अगर अपने इस लक्ष्य को हासिल करना चाहती है, तो उसके लिए बाजार में बढ़त का दौर जरूरी है.
विदेशी निवेशकों के निकलने का खतरा :
भारतीय शेयर बाजार को हरे निशान के ऊपर रखने में विदेशी निवेशकों की भी बड़ी भूमिका है. उन्होंने ही बाजार में आई भारी गिरावट से पहले इसे रिकॉर्ड ऊंचाइयों पर पहुंचाया था. इस कारोबारी हफ्ते के पहले दिन सोमवार (5 फरवरी) को अमेरिकी बाजार में 6 साल की सबसे बड़ी गिरावट देखने को मिली. अमेरिकी बाजार में आई गिरावट के लिए बॉन्ड यील्ड बढ़ना जिम्मेदार है. भारत में भी बॉन्ड यील्ड में लगातार बढ़ोतरी हो रही है.
फॉरेन इंस्टीट्यूशनल इन्वेस्टर्स (FIIs) अपने कॉस्ट ऑफ कैपिटल को लेकर काफी ज्यादा संवेदनशील रहते हैं. ऐसे में बढ़ता बॉन्ड यील्ड उनके कॉस्ट ऑफ कैपिटल को बढ़ाता है. इस वजह से उनका भारतीय शेयर बाजार से बाहर निकलने का खतरा पैदा हो सकता है.
आर्थिक मोर्चों की इन चुनौतियों के बाद आगामी चुनाव भी शेयर बाजार की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं. गुजरात चुनाव और राजस्थान व पश्चिम बंगाल के उपचुनावों के दौरान साबित हो गया कि मार्केट भी चुनावी सरगर्मी से अब सतर्क होने लगा है. आने वाले दिनों में राज्यों में होने वाले चुनाव पर भी बाजार की नजर रहेगी.
छोटे निवेशकों की बात करें, तो लघु से मध्य अवधि में रास्ता थोड़ा मुश्किलों भरा रह सकता है. हालांकि अगर लंबी अवधि के लिए निवेश कर रहे हैं, तो आपके लिए रास्ता काफी ज्यादा आसान हो सकता है.