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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघः नया कलेवर, नए तेवर

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अब अधिक समावेशी, आधुनिक और राजनैतिक रूप से असरकारी संगठन बनने की ओर तेजी से अग्रसर है. अपने इतिहास में आरएसएस ने कभी इतनी तेजी से तरक्की नहीं की, जितनी पिछले पांच साल में की है. इसकी 2010 में 40,000 शाखाएं हुआ करती थीं. आज इनकी संख्या करीब 57,000 है.

अजीत कुमार झा/उदय माहूरकर
  • नई दिल्ली,
  • 18 अप्रैल 2016,
  • अपडेटेड 5:47 PM IST

बमुश्किल दशक भर पहले दिल्ली के दो महत्वपूर्ण पते-झंडेवालान का केशव कुंज और लुटियंस दिल्ली का 11, अशोक रोड-परस्पर विरोधाभासी पहचानों को उजागर करते थेः कठोर अनुशासन बनाम तड़क-भड़क, कमखर्ची बनाम संपन्नता, ठहराव बनाम तरक्की. केशव कुंज संघ परिवार के नैतिक और वैचारिक दिशा-निर्देशक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दिल्ली मुख्यालय है जबकि 11, अशोक रोड संघ के राजनैतिक मुखौटे भारतीय जनता पार्टी का कार्यालय है. पुणे में 1925 में आरएसएस की स्थापना करने वाले केशव बलिराम हेडगेवार के नाम पर आधारित केशव कुंज का परिसर, जो कभी निहायत सादा हुआ करता था, आज काफी तेजी से बदल रहा है. जबरदस्त पुलिस सुरक्षा और बंदोबस्त से घिरे इस परिसर में आज लगातार फैलते हुए संगठन को समाहित करने के लिए एक भव्य दस मंजिला इमारत बन रही है. इस इमारत को देखकर कहा जा सकता है कि आज संघ और बीजेपी के बीच फर्क करना मुश्किल हो चला है. यह इमारत संघ के संस्कृति के हाशिये से राजनीति के केंद्र में पहुंचने के शानदार सफर की अभिव्यक्ति है. 

महान छलांग 
अपने इतिहास में आरएसएस ने कभी इतनी तेजी से तरक्की नहीं की, जितनी पिछले पांच साल में की है. इसकी 2010 में 40,000 शाखाएं हुआ करती थीं. आज इनकी संख्या करीब 57,000 है. आरएसएस में सदस्यता का कोई “औपचारिक” ढांचा नहीं है लेकिन इसकी शाखाओं में हो रहे इजाफे ने इसे बीजेपी के एक उर्वर भर्ती केंद्र में तब्दील कर डाला है, साथ ही संगठन का राजनीति में दखल पहले के मुकाबले आज कहीं ज्यादा हो चला है. कितने संघ प्रचारक बीजेपी के नेता बन पाते हैं, इसका उदाहरण देखना हो तो पिछले 8 अप्रैल को उन पांच राज्यों के बीजेपी प्रमुखों का चयन देखना काफी होगा, जहां 2017 में चुनाव होने हैं. इनमें दो अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) से हैं, जबकि एक दलित है. उत्तर प्रदेश के नए बीजेपी अध्यक्ष केशवचंद्र मौर्य, पंजाब बीजेपी के अध्यक्ष चुने गए केंद्रीय मंत्री तथा दलित विजय सांपला, तेलंगाना में ओबीसी नेता के. लक्ष्मण, कर्नाटक में पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येद्दियुरप्पा और अरुणाचल प्रदेश में तापिर गाव-इन पांचों राजनैतिक नियुक्तियों को एक डोर में बांधने वाली सिर्फ एक बात यह है कि ये सभी संघ के पुराने प्रचारक हैं. मौर्य 14 साल तक संगठन में रह चुके हैं और अयोध्या तथा गोरक्षा आंदोलनों में सक्रिय थे. 

इमरजेंसी के 1977 में अंत के बाद ऐसे दो चरण आए हैं, जब संघ के आकार में फैलाव हुआ है. जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में सक्रिय रूप से हिस्सा लेने वाले तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस के नेतृत्व में 1977 से 1994 के बीच संघ की शाखाओं में तीन गुना वृद्धि हुई और इनकी संख्या 10,000 से बढ़कर करीब 30,000 तक पहुंच गई. उछाल की इस अवधि के बाद 2010 तक सुस्ती बनी रही. उसके बाद एक बार फिर प्रसार होना शुरू हुआ जो आज तक जारी है. मौजूदा चरण अतिशय राजनैतिक भी है. बीजेपी के साथ संघ की सक्रियता के चलते आरएसएस का मूल चरित्र ही बदल चुका है, ऐसा एक वरिष्ठ प्रचारक लक्ष्मी नारायण भाला का मानना है जो ओडिशा, असम और सिक्किम में काम कर चुके हैं. यह मूल चरित्र दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने अपनी किताब “बंच ऑफ थॉट्स” में परिभाषित किया है, “आरएसएस सिर्फ विचारों और आदर्शों की शिक्षा देने वाली पाठशाला नहीं है. यह चरित्र निर्माण की व्यावहारिक शिक्षा देने वाली पाठशाला है.” राजनीति इसके एजेंडे में कभी नहीं रही. भाला कहते हैं, “बीजेपी की हर राज्य इकाई में संगठन सचिव आरएसएस का तैनात किया हुआ कोई प्रचारक ही होता है, पर कुछ साल पहले तक संघ के भीतर राजनीति को ना-ना ही कहा जाता रहा.” हालांकि संघ के प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य कहते हैं, “लोग जिसे आरएसएस में बदलाव के तौर पर देख रहे हैं, वह वास्तव में प्राकृतिक विकासक्रम है. मं  बचपन से ही सऌंघ से जुड़ा रहा हूं और यहां कभी भी स्वस्थ और नवाचारी विचारों से परहेज नहीं किया गया है.” 
असलियत क्या है, इसका पता उन चार राज्यों के चुनाव प्रभारियों से लग जाता है जहां फिलहाल चुनाव हो रहे हैं. पश्चिम बंगाल में संघ के दिलीप घोष ने राहुल सिन्हा की जगह ली. इस साल बीजेपी की जंग में अहम स्थान रखने वाले असम में संघ के वरिष्ठ नेता राम माधव को संघ द्वारा बीजेपी के साथ तालमेल बैठाने के लिए नियुक्त किया गया और उन्होंने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के साथ मिलकर बीजेपी के प्रचार अभियान का प्रबंधन किया है. तमिलनाडु में एक और संघ प्रचारक मुरलीधर राव प्रचार में अहम भूमिका निभा रहे हैं. वे बीजेपी के महासचिव हैं, स्वदेशी जागरण मंच के पूर्व संगठन सचिव और संघ के विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी के सहायक रह चुके हैं. केरल में शाह ने संघ के कट्टर नेता कम्मनम राजशेखरन को राज्य प्रमुख बनाया है. 

भगवा इंद्रधनुष 
कुछ नियुक्तियां तो संगठन का आधार व्यापक करने के सरोकार की पहचान कराती हैं. संघ के कार्यकर्ताओं की जातिगत पृष्ठभूमि पर ठोस आंकड़ा हासिल करना कठिन है, लेकिन एक बात तो तय है कि संघ अब अपने जातिगत मूल यानी महाराष्ट्र के ब्राह्मणों और बनिया आधार से दूर खिसकता जा रहा है और उसने ओबीसी तथा दलितों के बीच प्रचारकों की भर्ती शुरू कर दी है. पहली बार इस ओर ध्यान दिलाने वालों में एक अमेरिकी राजनीति विज्ञानी पॉल ब्रास थे, जिन्होंने बताया था कि पिछड़ी जातियों के बीच संघ का प्रसार अयोध्या आंदोलन के दौरान शुरू हुआ था. कार्यकर्ताओं का एक नया आधार बना, उसमें ज्यादा ओबीसी और दलित आए, तो संगठन के भीतर आरक्षण और दलित एजेंडे पर भी शिद्दत से बहसें होना शुरू हो गईं. संघ इससे वाकिफ है कि 2014 की भारी जीत के बावजूद बीजेपी का कुल वोट प्रतिशत 31 फीसदी यानी मतदाताओं का महज एक-तिहाई रहा. साफ है कि हिंदू वोट जातियों में बंटा हुआ है. इसीलिए आज प्रयास किए जा रहे हैं कि ज्यादा समावेश के जरिए ऐसा भगवा इंद्रधनुष तैयार हो, जिसमें वे हिंदू भी शामिल हों जिन्हें लंबे समय तक संघ अपने दायरे से बाहर रखता आया है, यानी दलित और आदिवासी. संघ जानता है कि हिंदू समुदाय के भीतर करीबी सहयोग और सद्भावपूर्ण संबंध कायम किए बगैर भारत की “खोई विरासत” वापस पाने और राष्ट्रों का अगुवा बनने के लिए सांस्कृतिक और नैतिक कायाकल्प की उसकी महत्वाकांक्षा सुदूर सपना बनकर ही रह जाएगी. 

दिल्ली में सरसंघचालक मोहन भागवत की अध्यक्षता में 3 से 5 सितंबर 2015 के बीच चली तीन दिवसीय आरएसएस-बीजेपी समन्वय बैठक का अंत नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के समर्थन के साथ हुआ. परस्पर सहयोग का यह क्षण 1998 से 2004 के बीच अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार और के.एस. सुदर्शन के नेतृत्व वाले आरएसएस के बीच चले संघर्ष से बिल्कुल उलट तस्वीर पेश कर रहा था. बीजेपी के उपाध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धे कहते हैं, “अतीत के मुकाबले आज आरएसएस और बीजेपी के आला नेताओं के बीच कहीं ज्यादा सामंजस्य है. हमने 1977 से 1980 और खासकर 1998 से 2004 के बीच हुए घटनाक्रम से काफी सबक लिया है और आज हम कहीं ज्यादा समझदार हो चुके हैं.” हालांकि भीतर के लोगों का कहना है कि मोदी संघ के नेतृत्व पर इस मामले में भारी पड़े हैं कि वे अपनी सरकार के मौजूदा कार्यकाल के अंत तक सामाजिक एकजुटता और विकास पर आधारित एक समावेशी एजेंडे पर रणनीतिक रूप से आगे बढऩे के लिए संघ को राजी कर चुके हैं. उन्होंने संघ से वादा किया है कि अनुच्छेद 370, राम जन्मभूमि और घर वापसी जैसे मुद्दे उनके अगले कार्यकाल में ज्यादा आक्रामकता से उठाए जा सकते हैं. 

अब यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि संघ ने अपने ऊपर लादे उस “सांस्कृतिक” लबादे को धीरे-धीरे छांटना क्यों शुरू कर दिया है, जो आरंभिक दिनों में उसकी पहचान हुआ करता था. पिछले कुछ वर्षों के दौरान संघ को राजनीति में हिस्सेदारी करने की प्रेरणा देने वाले मुख्य कारक उसकी सांगठनिक ताकत और एक पूर्व प्रचारक की ऐतिहासिक जीत रहे हैं. समन्वय बैठकें संघ परिवार के सबसे अहम घटकों के बीच राजनैतिक सहयोग का एक पैमाना हैं, लेकिन सवाल उठता है कि क्या इस आत्मविश्वास ने संघ के मूल चरित्र को ही बदल डाला है?  

सबको जोडऩे वाले भागवत
संघ और बीजेपी के बीच बढ़ते सद्भाव का श्रेय मोटे तौर पर मोहन भागवत की व्यावहारिकता को जाता है, जिन्हें संघ परिवार के भीतर “सबको जोडऩे वाला, संतुलनकारी और राजनैतिक दृष्टा” माना जाता है. उन्होंने मार्च, 2009 में सुदर्शन की जगह ली थी. भागवत के बीजेपी नेताओं के साथ निजी संबंध काफी गर्मजोशी भरे हैं. उनके पिता मधुकरराव भागवत गुजरात के प्रांत प्रचारक थे, इसलिए मोहनजी- जैसा कि सभी उन्हें प्यार से बुलाते हैं- गुजराती में दक्ष हैं और खासकर प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के साथ उनके रिश्ते काफी मधुर हैं. 

तीसरे सरसंघचालक देवरस की तरह ही भागवत भी राजनैतिक संलिप्तता से संकोच नहीं करते हैं. बीजेपी के भीतर पीढ़ीगत बदलाव के प्रणेता रहे भागवत ने अपने इर्द-गिर्द दत्तात्रेय होसबाले और कृष्ण गोपाल जैसे आरएसएस के युवा नेताओं को जुटा रखा है. दरअसल, संघ का कायांतरण इन नए “उदार” चेहरों में सबसे ज्यादा दिखता है. सहसरकार्यवाह और संघ में तीसरे नंबर पर होसबाले मृदुभाषी कन्नड़ ब्राह्मण हैं और अंग्रेजी साहित्य के छात्र रह चुके हैं. संघ की संरक्षणवादी सोच से किनारा करते हुए उन्होंने इंडिया टुडे कॉनक्लेव में ऐतिहासिक बयान दिया, “समलैंगिकता से आरएसएस को दिक्कत क्यों होने लगी? जब तक यह दूसरों के जीवन को प्रभावित नहीं करता तब तक यह अपराध नहीं है. यौन प्राथमिकताएं निजी मामले हैं.” यह न सिर्फ पार्टी लाइन से प्रस्थान है, बल्कि वे संघ के भीतर ज्यादा महिलाओं को रखे जाने के भी पैरोकार हैं. 

भागवत ने खुद संघ के भीतर महिला सशक्तीकरण से संबंधित कई पहल आयोजित की हैं. यह समझते हुए कि संघ को अक्सर पुरुषों के विशुद्ध गिरोह के रूप में समझकर खारिज किया जाता रहा है, उन्होंने 2014 में दो दिवसीय महिला समन्वय का आयोजन गाजियाबाद में किया था जिसमें संघ परिवार से संबद्ध तमाम संगठनों की महिलाओं को मंच दिया गया था. संघ के अखिल भारतीय सहसंपर्क अनिरुद्ध देशपांडे, राष्ट्र सेविका समिति की प्रमुख संचालिका वी. शांता कुमारी, गीता ताई गुंडे, प्रमिला ताई और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी समेत 300 प्रतिनिधियों ने इस आयोजन में भाग लिया था. 

वक्त के साथ हमकदम 
संघ की हालिया बहसों में लैंगिक समावेश पर खूब जोर दिया गया है. पिछले साल वृंदावन में हुई दो दिन की बैठक में संघ के नेताओं ने अपने संबद्ध संगठनों को निर्देश दिया था कि वे महिलाओं को पदाधिकारी बनाएं. संघ के पास महिलाओं का एक मजबूत संगठन है, जिसका नाम है राष्ट्र सेविका समिति. इसका काम राष्ट्रीय गतिविधियों के लिए हिंदू औरतों को संगठित करना है. यह संस्था 1936 से ही संघ के साथ सामंजस्य में काम कर रही है. इस साल मार्च में राजस्थान के नागौर में हुई अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में भैयाजी जोशी ने देशभर के मंदिरों में औरतों के प्रवेश की मांग उठाई थी. 

इस नए और समावेशी संघ के भीतर दलितों और महिलाओं को ज्यादा सहज महसूस कराने के लिए बढ़ रहे प्रयास दरअसल उनकी सहभागिता को बढ़ाने के व्यापक प्रयासों का हिस्सा हैं. संघ द्वारा तकनीक के कुशल प्रयोग ने हजारों लोगों को आरएसएस की वेबसाइट पर पंजीकरण कराने में भूमिका निभाई है.  

आरएसएस ई-शाखाएं भी लगाता है, जिसमें सहभागी ऑनलाइन हिस्सेदारी कर सकते हैं और दिन के किसी पहले से तय वक्त पर लॉग इन कर सकते हैं. यह कदम युवा और व्यस्त पेशेवरों को अपील करने वाला है जिन्हें शायद परंपरागत रूप से लगने वाली शाखाओं में आने में दिलचस्पी न हो. पिछली 3 जनवरी को संघ ने पुणे के नजदीक शिव शक्ति संगम का आयोजन किया. यह पूर्ण गणवेश में करीब 85,000 कार्यकर्ताओं और 50,000 समर्थकों का जमावड़ा था. दो विशाल परदे लगाए गए और आयोजन की लाइव स्ट्रीमिंग इंटरनेट पर की गई. 
 
संघ की आदिम संस्कृति में एक और चौंकाने वाला बदलाव यह हुआ है कि उसने अपने सरस्वती शिशु मंदिरों में अंग्रेजी की पढ़ाई शुरू करवा दी है. संघ का नारा हुआ करता था “हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान.” गुजरात के मुख्यमंत्री के बतौर नरेंद्र मोदी ने जब सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में दूसरी भाषा के रूप में हायर ग्रेड अंग्रेजी को लागू किया था, तो संघ से संबद्ध गुजरात विद्या भारती ने उनका कड़ा विरोध किया था. विरोध इतना तीखा था कि मोदी को अपने फैसले को पलटना पड़ा. आज हालत यह है कि मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ के अपने स्कूल सरस्वती शिशु मंदिर की कुछ सौ शाखाओं में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा दी जा रही है.  

विरोधाभास बरकरार 
शाखाओं में लोगों की बढ़ती संख्या ने इन बैठकों को राजनैतिक विमर्श का अखाड़ा बना दिया है. नए और पुराने काडरों के बीच टकराव बढ़े हैं. यह संघ की बदलती सामाजिक संरचना का संकेत है. रोहित वेमुला की खुदकुशी के बाद से संघ के नेताओं के दिमाग में सिर्फ दलित प्रश्न ही घूम रहा है. हाल ही में बीजेपी के दलित नेता संजय पासवान ने अपनी सरकार को चेतावनी दी थी कि “सत्ता की राजनीति के पक्षकारों को रोहित वेमुला प्रकरण को गंभीरता से लेना होगा वरना वे आक्रोश, प्रतिशोध, बगावत और प्रतिक्रियाओं के लिए तैयार रहें.”   

रोहित वेमुला की खुदकुशी को जहां एक झटके के तौर पर देखा जा रहा है, वहीं संघ परिवार के भीतर इस वक्त सबसे भीषण बहस स्वदेशी बनाम विदेशी पर चल रही है. संघ से संबद्ध संगठन भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच कोयला क्षेत्र के सुधारों, श्रम सुधारों और खुदरा क्षेत्र में 100 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मुद्दों पर सरकार के विरोध में हैं. जनवरी, 2015 में मोदी सरकार ने कोयला खदान (विशेष प्रावधान) विधेयक को आगे बढ़ाने का प्रयास किया था जो इस क्षेत्र को निजी कंपनियों के लिए खोल देगा और सरकार को कोयला ब्लॉकों की ई-नीलामी की छूट दे देगा. बीएमएस ने विरोध किया था.  

पचास साल पहले गोलवलकर ने “हिंदू समाज को स्वस्थ स्थिति में” बचाए रखने को “पावन कर्तव्य” माना था. सवाल है कि क्या वह पावन कर्तव्य जनतांत्रिक राजनीति की चौखट पर किए जाने वाले अपरिहार्य समझौतों के साथ सुसंगत है? -साथ में किरण तारे

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