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जानें जहरीली शराब के तिलिस्म की पूरी कहानी

लखनऊ के मलिहाबाद में जहरीली शराब से हुई मौतों ने एक बार फिर पुलिस, नेताओं और शराब माफिया के जहरीले सिंडिकेट को उजागर किया.

आशीष मिश्र
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  • 19 जनवरी 2015,
  • अपडेटेड 12:43 PM IST

लखनऊ के मलिहाबाद इलाके के खड़ता गांव की एक झोपड़ीनुमा घर की दीवार पर लिखा है, ‘सदा शाकाहारी रहो, शराब मत पियो,’ इस घर में रहने वाले तीन भाई इस संदेश को याद रखते तो आज जीवित होते. 34 वर्षीय मंगला प्रसाद, 30 वर्षीय मेवालाल और सिद्घेश्वर ने अपनी बूढ़ी मां से वादा किया था कि वे शराब को नहीं छूएंगे. लेकिन 11 जनवरी की शाम गांव में चल रहे एक स्थानीय क्रिकेट टूर्नामेंट में पसंदीदा टीम के जीतने के रोमांच में वे यह जहर पी गए. स्थानीय दुकान से खरीदे गए पाउचों में भरी शराब जहरीली थी. अस्पताल पहुंचने से पहले ही मंगला प्रसाद और सिद्घेश्वर की मौत हो चुकी थी जबकि मेवालाल की आंखों की रौशनी जा चुकी थी. इस घर से दस कदम की दूरी पर अपने घर की चौखट पर तीन नन्ही बेटियों के साथ बैठी 28 वर्षीय राजरानी के पति राजू को भी इस जहर ने हमेशा के लिए छीन लिया है. इस गांव के एक दर्जन से अधिक परिवारों के बच्चों के सिर से उनके पिता का साया उठ चुका है.
 
खड़ता गांव के अलावा देवली गांव, लखनऊ और उन्नाव की सीमा पर बसे कस्बा बंथरा और उन्नाव के हसनगंज में भी 11 जनवरी की रात कोहराम मच गया जब जहरीली शराब पीने के बाद डेढ़ सौ से अधिक लोगों को असहनीय पेट दर्द हुआ और आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. कुछ ही देर में मलिहाबाद के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में मरीजों की बाढ़-सी आ गई. जहरीली शराब के शिकार सौ से ज्यादा गंभीर मरीजों को आनन-फानन में लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) में भर्ती कराया गया लेकिन तीन दिन में मरने वालों की संख्या 40 का आंकड़ा पार कर गई और इतने ही मरीज अपने आंखों की रौशनी गंवाकर अस्पताल में जिंदगी और मौत से लड़ रहे थे. इन सभी का गुनहगार मलिहाबाद के देवली गांव का रहने वाला और जहरीली शराब का धंधा करने वाला 43 वर्षीय जगनू था. जगनू और उसके छह साथियों पर गैरइरादतन हत्या समेत कई गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज हुआ है. पिछले साल 16 अक्तूबर को आजमगढ़ के मुबारकपुर इलाके में भी जहरीली शराब पीने से 44 लोगों की मौत हो गई थी. इसके तीन महीने के भीतर हुए और भी बड़े इस हादसे ने प्रदेश सरकार के कामकाज की असलियत सामने ला दी. आबकारी महकमे की कमान संभालने वाले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल की सबसे कड़ी और फौरी कार्रवाई करते हुए आबकारी आयुक्त अनिल गर्ग को पद से हटाने के अलावा मलिहाबाद और स्थानीय आबकारी प्रशासन के दो दर्जन बड़े अधिकारियों को सस्पेंड कर स्थिति को संभालने की कोशिश की.

चोखा धंधा है अवैध शराब का
जगनू पासी शराब टैंकर चालकों से अवैध रूप से शराब खरीदकर उसे आसपास के गांवों में बेचता था. इस धंधे के बल पर उसने शहर के पॉश इलाके में आलीशान मकान बनवाया और दो लग्जरी कारों समेत चार गाडिय़ां खरीदीं. उसे पुलिस और आबकारी विभाग के कर्मचारियों का भरपूर साथ मिला और अवैध शराब से लदी गाडिय़ां मलिहाबाद और लखनऊ-उन्नाव से सटे गांवों में फर्राटा मारने लगीं. शराब के टैंकरों से 50 रु. लीटर की दर से खरीदी गई अवैध शराब गांवों, कस्बों में पाउच में भरकर बेचने से एक लीटर पर 300 रु. से ज्यादा का मुनाफा होता है (देखें ग्राफिक्स). आबकारी विभाग के ही एक अनुमान के मुताबिक, लखनऊ में कच्ची और अवैध शराब के 20 से 25 हजार पाउच हर रोज बिकते हैं और अवैध शराब का व्यवसाय प्रति माह 3 से 5 करोड़ रु. का है. प्रदेश में यह आंकड़ा 200 करोड़ रु. प्रति माह है.

जहर के धंधे को पुलिस संरक्षण
पूर्व जिला आबकारी अधिकारी राम औतार वर्मा बताते हैं, “कच्ची शराब पीने से मौत नहीं होती. देश या प्रदेश, जहां कहीं भी जहरीली शराब का मामला सामने आया है वहां ‘मिथाइल एल्कोहल’ जैसे खतरनाक रसायन पीने की पुष्टि हुई है.” लखनऊ में मोहनलालगंज से सांसद कौशल किशोर पांच साल से ग्रामीण इलाकों में अवैध शराब के खिलाफ अभियान चला रहे हैं. उसी के चलते चार साल पहले देवली और खड़ता गांव में शराब की अवैध फैक्ट्रियां बंद करवाई गई थीं. कौशल किशोर बताते हैं, “शराब का अवैध कारोबार बंद होने से स्थानीय पुलिस और आबकारी विभाग के कर्मचारियों की ऊपरी कमाई बंद हो जाती है. इसलिए कुछ दिन बाद पुलिस के संरक्षण में अवैध कारोबारी फिर से शराब बेचने लगते हैं.” मलिहाबाद और उन्नाव में जहरीली शराब की घटना सामने आने के तीन दिन के भीतर पुलिस ने प्रदेश में 500 से अधिक कच्ची और अवैध शराब के ठिकानों पर ताबड़तोड़ छापे मारकर 150 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया है. अचानक सक्रिय हुई यूपी पुलिस के इस ‘कौशल’ पर भी सवालिया निशान लग रहे हैं. कौशल किशोर कहते हैं, “जहरीली शराब की घटना के तुरंत बाद पुलिस के इतने सारे अवैध कारखानों तक पहुंच जाना साफ इशारा करता है कि इनकी जानकारी पुलिस को पहले से थी.”  

नेता-शराब माफिया गठजोड़ प्रभावी
दिसंबर के पहले हफ्ते में लखनऊ पुलिस ने चिनहट इलाके में मिथाइल एल्कोहल ले जा रहे एक टेंपो को पकड़ा था. लाखों रु. का यह केमिकल नादरगंज स्थित एक फैक्ट्री से लाया गया था. पुलिस ने तीन लोगों को भी गिरफ्तार किया था. दो दिन तक थाने में गाड़ी खड़ी करने के बाद पुलिस ने एक स्थानीय प्रभावशाली नेता के इशारे पर केमिकल के डिब्बों समेत सभी पकड़े गए लोगों को छोड़ दिया था. ग्रामीण इलाकों में नशा उन्मूलन का काम करने वाले स्वयंसेवी जीतेंद्र दीक्षित बताते हैं, “शराब माफियाओं को स्थानीय नेताओं का खुला संरक्षण रहता है. चुनाव के दौरान यही कारोबारी नेताओं के समर्थकों के बीच बंटवाने के लिए अवैध शराब का इंतजाम करते हैं.” अब यूपी में चार महीने बाद होने वाले पंचायत चुनाव की आहट ने भी गांव, कस्बों में अवैध शराब के धंधे पर जोर मारा है.
मायावती के शासनकाल में, 2011 में वाराणसी में शराब पीने से 12 लोगों की मौत हो गई थी. इसके दो महीने बाद मिर्जापुर में भी जहरीली शराब से छह लोगों की मौत हुई थी. सितंबर, 2003 में लखनऊ के कैसरबाग इलाके में शराब पीने से हुई 16 लोगों की मौत के बाद पिछले दस वर्षों में राजधानी में ऐसे तीन बड़े मामले सामने आ चुके हैं. हर प्रकरण में जहरीली शराब के रूप में मिथाइल एल्कोहल का इस्तेमाल की बात सामने आई है लेकिन पुलिस और प्रशासन अभी तक एक भी शराब टैंकर को पकड़ नहीं सकी है जिससे अवैध रूप से मिथाइल एल्कोहल बेचा गया हो.
पूर्व जिला आबकारी अधिकारी रामऔतार वर्मा कहते हैं, “जहरीली शराब का नेटवर्क तोडऩे की बजाए पुलिस हर बार कच्ची शराब की भट्ठियों पर छापा मारकर जनता को गुमराह करती है.”

चहेते अफसरों का सिंडिकेट
मायावती के शासनकाल में समाजवादी पार्टी (सपा) ने शराब के जिस सिंडिकेट के खिलाफ आवाज उठाई थी, सरकार बनने के बाद वह भी उसे तमाम सहूलियतें देने को उतारू हो गई. सिंडिकेट के प्रभाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आबकारी विभाग ने वर्र्ष 2014 में प्रदेश में कुल 3,600 छापे मारे लेकिन अवैध या जहरीली शराब का कारोबार नहीं रोका जा सका. आजमगढ़ में जहरीली शराब का प्रकरण सामने आने के बाद छोटे अधिकारियों पर तो कार्रवाई हुई लेकिन आबकारी आयुक्त समेत कई अधिकारी बच गए. मलिहाबाद प्रकरण के बाद हटाए गए आबकारी आयुक्त अनिल गर्ग समेत 10 अन्य अधिकारियों पर अब सरकार की नजरें टेढ़ी हो गई हैं. एक अधिकारी बताते हैं, “इलाहाबाद में मुख्यालय होने के बावजूद अनिल गर्ग ने विभागीय कामकाज लखनऊ कैंप ऑफिस और अपने कार्यालय से चलाया. इससे विभागीय कार्यप्रणाली पर असर पड़ा” इतना ही नहीं, शराब सिंडिकेट के चहेते जूनियर अफसरों को बड़े पदों पर तैनाती भी मिली. बानगी के तौर पर लखनऊ को ही लीजिए. यहां जिला आबकारी अधिकारी (सहायक आबकारी आयुक्त) लाल बहादुर यादव (अभी निलंबित) से उप आबकारी आयुक्त का कार्य लिया जा रहा था. मुरादाबाद, वाराणसी, समेत 10 से ज्यादा मंडलों में जूनियर अधिकारी को उच्च पद दिया गया जबकि बड़े अधिकारी छोटे पदों पर आसीन हैं. अब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आबकारी विभाग की ‘ओवरहॉलिंग’ में जुट गए हैं. वे कहते हैं, “आबकारी विभाग के लापरवाह अफसरों पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी.”
खैर, 2012 के विधानसभा चुनाव के दौरान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एक चुनावी सभा में ‘शाम की दवा’ को सस्ती करने का वादा करके खूब तालियां बटोरी थीं. प्रदेश में सपा की सरकार बनने के बाद मजदूरों के लिए सस्ते दाम की शराब की एक विशेष श्रेणी भी लागू की गई लेकिन जहरीली शराब के नेटवर्क को भेदने में मुख्यमंत्री कामयाब नहीं हो सके. दरअसल, अब अखिलेश यादव के प्रशासनिक कौशल का असल इम्तहान है क्योंकि मामला उन्हीं के आबकारी विभाग से जुड़ा है.

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