Advertisement

गंगा: विष की अविरल धारा

असित जॉली और अमिताभ श्रीवास्तव ने पवित्र नदी की खोज की इस समापन किस्त में कोलकाता और पटना से गंगा की धारा के साथ विभिन्न ठिकानों पर उसकी दशा को देखा-जाना.

aajtak.in
  • नई दिल्ली, पटना,
  • 15 जुलाई 2014,
  • अपडेटेड 3:20 PM IST

पश्चिम बंगाल के जाने-माने नदी विशेषज्ञ कल्याण रुद्र (62 वर्ष) और 32 वर्षीय मछुआरे बाबू भाई दोनों की एक साझा चिंता हिल्सा मछली को लेकर है, जो गंगा से गायब होती जा रही है. बंगाल के लोगों के लिए हिल्सा मछली से बढ़कर स्वादिष्ट चीज इस धरती पर दूसरी नहीं है. बाबू भाई करीब दो दशकों से कोलकाता के बागबाजार घाट से अपनी छोटी-सी नाव चलाते हैं.

वे इन दिनों काफी चिंतित हैं, क्योंकि उनके जाल में बहुत कम हिल्सा मछली फंसती हैं, जिससे उनकी रोजी-रोटी पर संकट खड़ा होने लगा है. यहां तक कि इस साल जुलाई में बरसात के कारण पानी बढऩे पर भी यह मछली नदी में ज्यादा नहीं आई. उधर, नदियों के विशेषज्ञ कल्याण भी कोलकाता के दूसरे निवासियों की तरह अपनी पसंदीदा मछली के लुप्त होने के कारण चिंतित हैं. वे कहते हैं कि इस मछली का गायब होना किसी अपशकुन या महाविनाश की पूर्व चेतावनी हो सकती है.

नदी के किनारों पर स्थित कारखानों और नालों से बहकर नदी में लगातार गिरने वाले विषैले जल-मल और बंगाल की खाड़ी से मिलने वाले समुद्र के खारे पानी की मात्रा ही नदी में ज्यादा रह गई क्योंकि 1975 में फरक्का बांध बनने के बाद गंगा का प्राकृतिक बहाव अवरुद्घ हो गया है. इससे नदी में गाद बढ़ रही है.

उससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि इन कारणों ने गंगा की जैविक विविधता को स्थायी रूप से बदल दिया है. कल्याण रुद्र हिल्सा की ही तरह गंगा में पाई जाने वाली डॉल्फिनों के गायब होने पर भी चिंता व्यक्त करते हैं.

इसी वजह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने तीन मंत्रियों उमा भारती, नितिन गडकरी और श्रीपाद नाइक को नदी का पुराना गौरव लौटाने का जिम्मा सौंपा है. इन मंत्रियों ने गंगा से जुड़े तमाम लोगों के साथ नई दिल्ली में 7 जुलाई को गंगा मंथन के अवसर पर इस विषय पर गहन चर्चा की. उनकी योजनाओं  में कई पर्यटन स्थल बनाना और वाराणसी से कोलकाता तक नदी की धारा को 45 मी. चौड़ी और 5 मी. गहरी करके नौका परिवहन शुरू करना है.

सड़क परिवहन और जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी को उम्मीद है कि इस परियोजना के लिए वर्ल्ड बैंक भारी-भरकम मदद मुहैया करा सकता है, हालांकि इस काम पर कितना खर्च आएगा, इसका हिसाब अभी नहीं लगाया गया है. गडकरी ने हर 100 किमी के अंतर पर बैराज बनाने की भी बात की है.

उनके प्रस्तावों पर स्वच्छ गंगा अभियान से जुड़े लोग और विशेषज्ञ पहले ही आपत्तियां जताने लगे हैं. हालांकि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 10 जुलाई को अपने बजट प्रस्तावों में गंगा के पुनर्जीवन के लिए 2,037 करोड़ का आवंटन किया है, जिसमें 100 करोड़ रुपए गंगा के किनारे घाटों के विकास के लिए ही हैं.

पश्चिम बंगाल में गंगा, जिसे आम तौर पर भागीरथी और दक्षिण में आगे जाने पर हुगली कहा जाता है, कानपुर या वाराणसी के मुकाबले ज्यादा भरी होती है. लेकिन फरक्का से ताजा पानी आने के बावजूद मुर्शिदाबाद जिले में जलांगी से समुद्र तक 500 किमी के सफर में गंगा की दशा में कोई सुधार नहीं दिखता है. ऊपर की ओर बिहार में शहरों और उद्योगों के जल-मल तथा कचरे के अलावा बेरोकटोक रेत की खुदाई और गंगा के तटवर्ती इलाकों में बड़े पैमाने पर हो रहे अतिक्रमण से नदी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है.

हाय रे, कोलकाता
''पॉलिथीन तो अमर है...कभी खत्म नहीं होता.” बाबू भाई जब भी अपनी नाव में निकलते हैं तो उन्हें इसी बात का एहसास होता है. वे दूसरे मछुआरों के मुकाबले काफी खुशकिस्मत थे, क्योंकि उनके जाल में दो-तीन किलो हिल्सा फंस जाती थीं. लेकिन यह करीब दस साल पहले की बात है.

वे बनावटी हंसी के साथ कहते हैं, ''अब तो जाल डालने पर पॉलिथीन की थैलियां ही मिलती हैं.” उनकी आजीविका का जरिया खत्म होता जा रहा है. जुलाई के पहले हफ्ते में उनके जाल में सिर्फ 600 ग्राम सर्डाइन जैसी मछलियां फंसी हैं, जिन्हें कोई भी नहीं खरीदना चाहता. बाबू कहते हैं कि अब वे कोई और धंधा करने की बात सोच रहे हैं.

गंगा की धारा के साथ कुछ ऊपर की ओर बढऩे पर मालपाड़ा में एक अन्य मछुआरे 36 वर्षीय सुजॉय हालदार कहते हैं, ''इस साल गंगा में हिल्सा नहीं है.” वे अब निर्माण स्थलों पर मजदूरी भी करने लगे हैं. हालांकि उनकी किस्मत बाबू से अच्छी है, क्योंकि उनके जाल में चिंगड़ी, भेटकी, बाचा और बेले जैसी कुछ मछलियां थोड़ी-सी मात्रा में आ गई हैं. हालदार कहते हैं कि इतने से वे चार सदस्यों वाले अपने परिवार की आजीविका नहीं चला सकते.

वे कहते हैं, ''मेरी एक लड़की स्कूल में पढ़ती है और बूढ़ी मां है, जिसे हमेशा दवाई की जरूरत होती है.” वे गंगा की दुर्दशा के लिए बहुत से कारकों को जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, ''गंगा बहुत गंदी हो गई है.” उनके मुताबिक, साल्मन मछली की तरह हिल्सा भी मूलरूप से समुद्री मछली है. वह हर मानसून से पहले अंडे देने के लिए नदी में आ जाती रही है. लेकिन अब वह गंगा में नहीं आती है क्योंकि नदी में बहुत ज्यादा गंदगी हो गई है और गाद बहकर आने के कारण नदी पहले से छिछली हो गई है.

कोलकाता मेट्रोपॉलिटन डेवलपमेंट अथॉरिटी (केएमडीए) के पूर्व मुख्य इंजीनियर और गंगा ऐक्शन प्लान (जीएपी-1 और 2) के दोनों चरणों से जुड़े रहे 68 वर्षीय सुजीत कुमार भट्टाचार्य स्वीकार करते हैं कि करीब 326 ऐसे नाले हैं, जो भारी मात्रा में अशोधित गंदा पानी गंगा में गिराते हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार, कोलकाता महानगर क्षेत्र की आबादी 1.41 करोड़ हो चुकी थी.

इस क्षेत्र में तीन नगर निगम, 38 नगरपालिकाएं और 527 छोटे कस्बे और गांव आते हैं, जो 1990 के दशक के अंत में मिले आंकड़ों के अनुसार गंगा में अविश्वसनीय रूप से रोज 135 करोड़ लीटर गंदा पानी डाल रहे थे. भट्टाचार्य मानते हैं कि यह मात्रा और भी बढ़ चुकी होगी, क्योंकि पिछले डेढ़ दशक में आबादी काफी बढ़ चुकी है और जीएपी 1 के तहत जो 19 सीवेज प्लांट लगाए गए थे, वे अब अपनी क्षमता से करीब 20 फीसदी से भी कम स्तर पर काम कर रहे हैं.

लेकिन चिंताजनक बात इतनी भर ही नहीं है. कल्याण रुद्र नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) के तहत सरकार की ओर से गठित आइआइटी विशेषज्ञ समिति के फ्लूवियल जियोमार्फोलॉजी ग्रुप के सदस्य के तौर पर काम कर चुके हैं. वे कहते हैं कि कोलकाता में गंगा के किनारे स्थित 150 बड़े कारखानों से निकलने वाले कचरे का निरीक्षण शायद ही कभी होता है. वे बताते हैं, ''गंगा में गिरने वाली कुल गंदगी का करीब 30 फीसदी हिस्सा इन्हीं कारखानों से आता है.”

कालीघाट में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के निवास से कुछ ही दूरी पर स्थित कचरे से भरा बदबूदार नाला आपको जैसे मुंह चिढ़ाता है. टॉली नाला, जिसमें ब्रिटिश राज के समय बरसात में ताजा पानी बहा करता था, अब दुर्गंध छोड़ते गंदे नाले में तब्दील हो चुका है. यह धीरे-धीरे बहता हुआ गंगा में अपना मैला पानी गिराता रहता है. सभी 326 नालों का यही हाल है. हावड़ा ड्रेनेज कैनाल तो इतनी बड़ी है कि उसे यूरोप में कोई नदी माना जा सकता है.

यह नाला घनी आबादी वाले नगरनिगम के क्षेत्र से गंदा पानी लाकर गंगा में उड़ेलता है, जिसमें तैलीय, काला और गंधक मिला पानी भरा होता है.

नजीरगंज के आसपास के कुछ युवा लड़कों ने एक खेल शुरू कर दिया है: काले रंग के गंदे पानी में उतरना और फिर तैरते हुए नदी की मुख्य धारा में अपेक्षाकृत साफ पानी में जाकर खुद को साफ करना. 15 वर्षीय एक नेपाली लड़का मान बहादुर कहता है, ''यह बड़ा मजेदार खेल है.” उसे जहरीले पानी के खतरे का कोई एहसास नहीं है.

60 वर्षीय जैनम खातून उत्तरी कोलकाता में खाली पड़े सागरदत्ता घाट के पास नदी के तट पर स्थित एक छोटी-सी एल्युमिनियम-रिकवरी यूनिट में ढलाई की राख के बड़े-से ढेर से धातु के टुकड़े बीनती हैं. एक अन्य बड़े नाले के मुहाने पर काम करते हुए मजदूर हमारी हैरानी देखकर भौचक हैं. खातून कहती हैं, ''यहां कोई नहीं आता. आप पहले बाहरी लोग हैं, जो कई वर्षों में यहां आए हैं.” उन्हें शायद इस बात का एहसास नहीं है कि वे आजीविका के लिए जो काम कर रही हैं, उससे गंगा का पानी जहरीला हो रहा है.

नदी को बचाने के लिए हालांकि कोई भी बड़ा कदम नहीं उठाया गया है, लेकिन मुख्यमंत्री बनर्जी का हुगली रीवरफ्रंट ब्यूटीफिकेशन प्रोजेक्ट कोलकाता में गंगा का रूप बदलने का वादा जरूर करता है. यह 2011 में शुरू की गई करोड़ों रु. की परियोजना है और शायद इसकी प्रेरणा अहमदाबाद में साबरमती वाटरफ्रंट से ली गई है.

इससे कोई फर्क तो नहीं पड़ा है, लेकिन अपने पहले चरण में इस योजना ने नदी से जुड़े कार्यकर्ताओं को जरूर नाराज कर दिया है. वे चाहते हैं कि गंगा का वास्तविक संरक्षण किया जाना चाहिए. चार्टर्ड एकाउंटेंट से क्लीन गंगा अभियान के कार्यकर्ता बने 64 वर्षीय सुभाष दत्ता, जो 1995 से अब तक कोलकाता हाइकोर्ट की ग्रीन बेंच में करीब 70 जनहित याचिकाएं दायर कर चुके हैं, कहते हैं, ''नदी में भीतर चाहे गंदा पानी गिरता रहे और सिर्फ तटों को सुंदर बनाना.

 यह तो बहुत कुछ ऐसा ही है जैसे कोई होठों पर लिपस्टिक लगा ले लेकिन उसके मुंह में बदबू भरी रहे.” लेकिन कल्याण रुद्र समझते हैं कि राजनैतिक लोग ऐसा ही विकास चाहते हैं, जो बाहर से दिखाई दे. नेताओं को असली मसलों की जरा भी परवाह नहीं है. वे कहते हैं, ''पानी की क्वालिटी हमेशा दिखाई देने वाली चीज नहीं होती है. उसे निरंतर जांच-पड़ताल करने पर ही जाना जा सकता है.” फिर वे चेताते हैं कि आज अगर ध्यान नहीं दिया गया तो अगले कुछेक वर्षों में ही इसके भीषण नतीजे दिखने लगेंगे.

(कोलकाता के दमदम बाजार में हिल्सा मछली)
पटना में नदी दोहन
बिहार में गंगा बक्सर के पास प्रवेश करती है और प्रदेश में 445 किमी के सफर में घाघरा, गंडक, सोन, बागमती और कोसी नदियों का पानी गंगा में आकर मिलता है. यहां गंगा की कुल लंबाई का 18 फीसदी हिस्सा स्थित है. हालांकि भारत और बांग्लादेश के बीच 1996 में फरक्का जल बंटवारे के समझौते की बंदिशों के कारण बिहार में गंगा के पानी का बड़े पैमाने पर सिंचाई के लिए इस्तेमाल नहीं होता, लेकिन प्रदेश में गंगा के किनारे रेत माफिया की ओर से अवैध खुदाई का काम पूरे जोर-शोर से जारी है.

इसके अलावा बेतरतीब शहरीकरण भी गंगा को नुकसान पहुंचा रहा है. भवन निर्माण के मुनाफे वाले धंधे के कारण रेतीले इलाके लखीसराय, सारण, भोजपुर, नवादा और पटना जिलों में हिंसक लड़ाइयां होती रहती हैं, जिनमें सैकड़ों लोगों की जान जा चुकी है. पटना विश्वविद्यालय में जीवविज्ञान विभाग के अध्यक्ष और एनजीआरबीए के सदस्य आर.के. सिन्हा कहते हैं, ''रेत की अनियंत्रित और अत्यधिक खुदाई के कारण कटाव हो रहा है और नदी का क्षेत्र अस्थिर होता जा रहा है. इससे नदी के पानी में रहने वाले जीव-जंतुओं के लिए जीने की स्थितियां नहीं रह गई हैं.”

गंगा के किनारों पर बड़ी संख्या में ईंट के भट्ठे बनते जा रहे हैं. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से इनकी संख्या 6,000 से ज्यादा है, जबकि अवैध रूप से चलने वाले भट्ठों की संख्या कई गुना  अधिक है. ईंट के भट्ठों से निकलने वाला कचरा सीधे नदी में डाल दिया जाता है. यह कचरा नदी के बहाव की दिशा बदल देता है, साथ ही नदी को भी प्रदूषित करता है.

2013 की एनजीआरबीए की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में रोजाना 67.14 करोड़ लीटर गंदा पानी गंगा में गिरता है. हालांकि राज्य में सात सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट हैं, लेकिन बिहार में प्रदूषण की मात्रा उसकी क्षमता से कहीं ज्यादा है. यह मात्रा प्रति 100 मिली. में 500 एमपीएन (मोस्ट प्रोबेबल नंबर) की स्वीकृत सीमा से बहुत ज्यादा है.

नदी 70 वर्षों में अपनी धारा बदलती है, लेकिन पटना में ईंट भट्ठे चलाने वालों ने 25 वर्ष में ही गंगा की धारा उत्तर की ओर बदल दी है और इसकी जमीन घटा दी है. 58 लाख की आबादी वाले इस शहर में प्रति वर्ग किमी में 1,823 लोग रहते हैं. पटना में तट से नदी की दूरी 5-8 किमी तक हो चुकी है. नदी की धारा दूर जाने का सबसे पहला असर नकता दियारा जैसे नदी के किनारे पर रहने वाले लोगों पर पड़ा है. पटना की शहरी आबादी को भी इसकी पीड़ा हो रही है.

शहर के लगभग सभी घाट, जहां छठ की पूजा हुआ करती थी, अब सूख गए हैं. एक समय ऐसा था जब पटना में नदी का किनारा 20 किमी से ज्यादा था. लेकिन अब जमीन पर अतिक्रमण के कारण इसका 70 फीसदी हिस्सा खत्म हो चुका है. 80 के दशक में बाढ़ का पानी रोकने के लिए यहां बाड़ बनाई गई थी. सिन्हा कहते हैं, ''नदी सूख चुके अपने कछार को बाढ़ से भर सकती है.” वे कहते हैं कि गंगा और हम सभी को बाढ़ की तबाही से बचाने के लिए रीवरबेड और बाढ़ क्षेत्र की सीमा तय कर दी जानी चाहिए.

बहरहाल, उद्गम से लेकर समुद्र तक 2,525 किमी. लंबी गंगा की सफाई के लिए मोदी की योजना को लेकर विशेषज्ञ गंभीर सवाल उठा रहे हैं. यह योजना अभी शुरुआती चरण में है. कल्याण रुद्र, जो दिल्ली में गंगा मंथन में शामिल नहीं हुए थे, वाराणसी से कोलकाता तक नौका परिवहन की नितिन गडकरी की योजना से हैरान हैं. वे कहते हैं, ''नदी इसकी अनुमति नहीं देगी.” उनका मानना है कि अपनी दिशा बनाए रखने के लिए गंगा तेजी से कटाव करेगी और किसी भी कृत्रिम रास्ते को गाद से भर देगी.   

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement