तमिलनाडु के कई हिस्सों में अब भी लोगों को यकीन करना मुश्किल हो रहा है. 7 अक्तूबर की दोपहर राज्य में सब कुछ मानो ठहर-सा गया था. दफ्तर जाने वाले, दुकानदार, ऑटो ड्राइवर सभी 3जी स्मार्टफोन पर नजरें गड़ाए हुए थे. ये लोग असल में हाल ही में जेल पहुंचीं पूर्व मुख्यमंत्री जे. जयललिता की जमानत पर कर्नाटक हाइकोर्ट में चल रही सुनवाई पर कान लगाए हुए थे.
करीब ढाई बजे खबर आई कि सरकारी वकील को जयललिता की सशर्त जमानत पर कोई ऐतराज नहीं है. फौरन तने चेहरों पर चैन आ गया और लगा कि अब जमानत तो मिल ही जाएगी. खुशियों में नारे गूंजने लगे, ढोल बजने लगे. कहीं-कहीं तो मिठाइयां भी बंटनी भी शुरू हो गई थीं.
लेकिन घंटे भर बाद ही खुशी में उछल रहे लोगों के चेहरे गुस्से से तमतमाने लगे. अब तक खबर आ चुकी थी कि अदालत ने जमानत नामंजूर कर दी है. कुछ ही मिनट में एआइएडीएमके के कार्यकर्ता सड़कों पर जुलूस और धरने के लिए निकल पड़े. जयललिता के घर पोएस गार्डन के बाहर सैकड़ों औरतें रेलिंग पकड़कर चीख-चिल्ला रही थीं. नजारा बिल्कुल वैसा ही था जैसा पूर्व मुख्यमंत्री को सजा सुनाने के दिन नजर आया था. जयललिता के लिए मुकदमे और सजा का सिलसिला कोई नया नहीं है, लेकिन उनके समर्थकों की चिंता इस एहसास से बढ़ती जा रही है कि इस बार कोई आसान राह नहीं दिख रही है.
जयललिता जून, 1991 में जब पहली बार मुख्यमंत्री चुनी गईं तो उनकी संपत्ति करीब 3 करोड़ रु. घोषित की गई. पांच साल बाद यह संपत्ति करीब 66 करोड़ रु. की छलांग लगा गई. यह बढ़ोतरी उनकी नजरों से नहीं छिप सकी, जो उनकी राह में रोड़े अटकाने की फिराक में थे. 1996 के विधानसभा चुनावों में जयललिता और एआइएडीएमके को डीएमके के हाथों करारी हार झेलनी पड़ी थी. डीएमके की 200 से ज्यादा सीटों के मुकाबले उनकी झेली में महज चार ही सीटें आई थीं.
डीएमके ने चुनाव अभियान जयललिता के राज में भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाने के वादे पर ही चलाया था. सो, नई सरकार ने उन पर भ्रष्टाचार के कई मुकदमे चस्पां कर दिए. इसके अलावा, 1996 में एक शिकायत उस वक्त जनता पार्टी के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी दायर की कि जयललिता ने मुख्यमंत्री रहते अपनी आय के अनुपात से कहीं ज्यादा संपत्ति जुटा ली है.
इस मामले में जयललिता के सत्ता में तीसरे और सबसे कामयाब कार्यकाल के दौरान इसी 27 सितंबर को एक विशेष अदालत ने उन्हें आय से अधिक संपत्ति बटोरने का दोषी पाया और चार साल की कैद की सजा सुना दी. अगर वे ऊपरी अदालतों में अपील के बाद भी दोषी पाई जाती हैं तो 10 साल तक चुनाव लडऩे के अयोग्य हो जाएंगी, जिसका नतीजा यह हो सकता है कि तमिलनाडु का राजनैतिक माहौल हमेशा के लिए बदल जाएगा.
आय के अनुपात से कहीं ज्यादा संपत्ति वाले मामले में मुकदमे की सुनवाई के दौरान पांच लोकसभा चुनाव हो चुके हैं. मद्रास हाइकोर्ट में 16 मुख्य न्यायाधीश बदल चुके हैं और बंगलुरु में उनके मामले में छह जज सुनवाई कर चुके हैं. जयललिता कई लड़ाइयां लड़ चुकी हैं और ऐसी मिसालें हैं कि उन्होंने अतीत से पूरा सबक भी सीखा है. लेकिन उनके पहले कार्यकाल के शुरुआती वर्षों की गलतियां ही उनके गले की फांस बन गईं.
पड़तालसितंबर, 1996 में तमिलनाडु के प्रमुख सत्र न्यायाधीश ने स्वामी की शिकायत की पुलिस से जांच-पड़ताल करने को कहा और सतर्कता और भ्रष्टाचार निरोधक निदेशालय के पुलिस अधीक्षक एन. नल्लम्मा नायडु ने प्राथमिकी दर्ज की. कुछ महीने में नायडु और उनकी टीम ने कई गैर-कानूनी जमीन सौदों के बारे में जानकारी जुटाई और लेन-देन का संबंध कई गुप्त कंपनियों के साथ जोडऩे में कामयाबी हासिल की.
इन कंपनियों के जरिए पूर्व मुख्यमंत्री और उनकी सहयोगी शशिकला नटराजन, जे. इलावरासी और वी.एन. सुधाकरन ने जमीन खरीदी थी. कई कंपनियां जयललिता के सरकारी आवास 36 पोएस गार्डन के पते पर पंजीकृत थीं. जांच टीम के पास उनके आवास की तलाशी का वारंट था लेकिन उसने इंतजार करने का फैसला लिया.
फिर, मानो उनका भाग्य साथ दे गया. दिसंबर 1997 में एआइएडीएमके नेता के खिलाफ एक और शिकायत की जांच कर रही अपराध शाखा के जांच विभाग (सीबीसीआइडी) ने उनके आवास पर छापा मारने और उन्हें गिरफ्तार करने का फैसला किया. यह मामला ग्राम पंचायतों के लिए रंगीन टीवी सेट खरीद में कथित गड़बडिय़ों का था. सतर्कता विभाग को उसी छापे में बहुचर्चित 1,000 जोड़ी जूतियां, 25 किलो सोना और 800 किलो चांदी मिली थी.
अभी जयललिता और उनके तीन सहयोगियों के खिलाफ बेहिसाब दौलत जुटाने के मामले में विस्तृत चार्जशीट भी अदालत में दाखिल नहीं हो पाई थी कि डीएमके को ब्रिटेन में एक और संदिग्ध लेन-देन का सुराग मिल गया. कथित तौर पर शशिकला के भतीजे टी.टी.वी दिनाकरन ने यह रकम जयललिता के लिए जमा की थी. इस मामले की प्रवर्तन निदेशालय पहले ही जांच कर रहा था लेकिन तमिलनाडु जांच दल भी उसमें शामिल हो गया.
2000 तक उन्हें लगा कि उनके हाथ ब्रिटेन में एक होटल और रेसॉर्ट अवैध तरीके से खरीदने के सुराग लग गए हैं. फौरन चार्जशीट दाखिल हुई. डीएमके को लंदन होटल्स के मामले से काफी उम्मीद थी और उसे लगा कि भ्रष्टाचार का बड़ा मामला उसके हाथ लग गया है.
केस लटकाए रखने की चालाकियांइस बीच, 1997 में आय से अधिक संपत्ति जुटाने का मामला खुल गया था. इसमें पहली समस्या तो यह आई कि तमिलनाडु के प्रमुख सत्र न्यायाधीश ने कहा कि उनके पास मुकदमों का ढेर है और नेताओं के खिलाफ मुकदमों की जांच के लिए अतिरिक्त विशेष अदालतें बनाई जाएं. तीन अतिरिक्त अदालतें बनाई गईं. लेकिन जयललिता और उनके सहयोगियों ने इनके गठन और मामले की सुनवाई की उनकी क्षमता को चुनौती दे डाली.
इनके अलावा, शशिकला ने मांग की कि मामले से जुड़े सभी दस्तावेजों का तमिल में अनुवाद मुहैया कराया जाए क्योंकि वे अंग्रेजी नहीं जानतीं. इससे परेशान होकर अभियोजक पक्ष सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा लेकिन अंततः हथियार डाल दिए. करीब एक साल सभी दस्तावेजों के अनुवाद में बीत गया और मुकदमा 1999 में ही शुरू हो सका.
अगस्त 2000 तक सभी 259 गवाहों से जिरह हुई. फिर बचाव पक्ष की बारी आई. वह टाल-मटोल करता रहा और महज आठ गवाहों से ही जिरह कर पाया. तभी 2001 की गर्मियों में बाजी पलट गई. जयललिता विधानसभा चुनावों में भारी विजय के साथ लौटीं. वे तांसी (टीएएनएसआइ) मामले में प्रारंभिक न्यायिक फैसले की वजह से तत्काल तो मुख्यमंत्री नहीं बन सकीं लेकिन 2002 में गद्दी संभाल ली. अब बचाव पक्ष के वकीलों की तेजी देखते ही बनती थी. 76 गवाहों को दोबारा बुलाया गया और उनमें 64 मुकर गए और कहा कि उनसे दबाव डालकर बयान दिलवा दिया गया था.
कर्नाटक कथाआखिरकार 2003 में डीएमके औपचारिक रूप से इस मामले से जुड़ी. पार्टी महासचिव के. अंबझगन ने सुप्रीम कोर्ट में मुकदमे को तमिलनाडु से बाहर ले जाने की याचिका डाली. नवंबर, 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि मुकदमा कर्नाटक भेज दिया जाए और रोजाना सुनवाई की जाए. न्यायमूर्ति एस.एन. वरियावा और एच.के. सेमा की खंडपीठ ने कहा, ‘‘आप चाहे कितनी ही ऊंची शख्सियत हों, कानून आप से ऊपर है.’’
कर्नाटक सरकार ने पूर्व महाधिवक्ता बी.वी. आचार्य को विशेष लोक अभियोजक नियुक्त किया. लेकिन जब आय से अधिक संपत्ति के मामले में लंदन होटल्स का मामला जोड़ दिया गया तो झटका लगा. अभियोजन पक्ष को इसलिए झटका लगा क्योंकि लंदन होटल्स का मामला इतना पुख्ता नहीं था और दोनों मामले में अलग-अलग लेन-देन हुआ था. अगस्त 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने दोनों मामलों को जोडऩे की प्रक्रिया पर रोक लगा दी. यह रोक पांच साल तक के लिए थी.
इस बीच, 2006 के विधानसभा चुनावों में डीएमके सत्ता में लौट आई और उसने 2009 में होटल मामले को बंद करने का फैसला किया. आखिरकार 2010 में अभियोजन पक्ष को कुछ गवाहों को दोबारा बुलाने की इजाजत मिली जो पहले अपने बयान से मुकर गए थे. लेकिन देरी की और कई तरकीबें चली गईं. जयललिता ने अर्जी दायर कर दी कि वे अदालत में नहीं पहुंच सकतीं क्योंकि कर्नाटक सरकार पर्याप्त सुरक्षा नहीं मुहैया करा रही है.
उनकी सह-आरोपी शशिकला ने एक अनुवादक दिलाने की मांग की, जो उनकी बातों को तमिल से अंग्रेजी में अनुवाद करके बता सके. उसके बाद उन्होंने वाक्यों के गठन पर आपत्ति की और कहा कि अनुवाद सही नहीं है.
इस बीच, 2011 में जयललिता सत्ता में लौट आईं. तमिलनाडु सतर्कता निदेशालय ने अदालत को लिखा कि वह मामले में और जांच कर रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने यह अनुरोध नामंजूर कर दिया और इसे ‘‘मुकदमे को उलझने’’ की तरकीब बताया. अब आचार्य भी निशाने पर आ गए थे. उन्हें 2011 में छठी बार महाधिवक्ता बनाया गया था.
आरोपियों ने कहा कि आचार्य महाधिवक्ता और लोक अभियोजक साथ-साथ नहीं हो सकते. आचार्य ने महाधिवक्ता के पद से इस्तीफा दे दिया तो एक शिकायत राज्य लोकायुक्त के सामने यह लगा दी गई कि वे एक शैक्षणिक ट्रस्ट में शामिल हैं और वहां कई वित्तीय गड़बडिय़ां हैं. हाइकोर्ट में यह मामला तो खारिज हो गया लेकिन आचार्य ने परेशान होकर विशेष लोक अभियोजक के पद से अगस्त, 2012 में इस्तीफा दे दिया.
बाधाओं भरा मुकदमाफरवरी, 2013 में जी. भवानी सिंह को इस मामले में विशेष सरकारी वकील बनाया गया. इसके तुरंत बाद ही उनकी भूमिका विवादों के घेरे में आ गई. अगस्त में डीएमके ने उनके तहत होने वाली अदालती कार्रवाइयों की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुए एक याचिका दायर कर दी.
मामले पर निगाह रखे हुए डीएमके के एक कार्यकर्ता ने बताया, ‘‘प्रतिवादी ने अचानक गवाहों की संख्या घटा दी थी और हमने पाया कि उसने तमिलनाडु में प्रवर्तन निदेशालय के इंस्पेक्टर को प्रतिवादी के गवाह के तौर पर अधिसूचित करने की अनुमति दे दी थी. आखिर कौन-सा जांच अधिकारी प्रतिवादी के गवाह के तौर पर पेश होगा?’’
सुप्रीम कोर्ट में जब सिंह के खिलाफ एक शिकायत दर्ज करवाई गई, तो कर्नाटक सरकार ने हस्तक्षेप करके उन्हें यह कहते हुए हटा दिया कि इस पद के लिए विचारित नामों में उनका नाम शामिल नहीं था. इसके बाद एक अजीबोगरीब स्थिति उस वक्त आ गई जब आरोपी ने खुद को सरकारी वकील बनाए रखने और 30 सितंबर को रिटायर होने जा रहे जज को बनाए रखने के लिए आवेदन डाल दिया.
कार्यवाही में मौजूद एक वकील ने बताया, ‘‘कभी भी ऐसा मामला सामने नहीं आया था जब आरोपी ने किसी विशेष वकील को बनाए रखने की मांग की हो. इसके लिए जो कारण दिया गया था वह यह था कि आरोपी को मामले की त्वरित सुनवाई का अधिकार है.’’
सुप्रीम कोर्ट ने सिंह को बनाए रखने की अनुमति दी लेकिन संबंधित न्यायाधीश एम.एस. बालकृष्ण ने सेवानिवृत्त होना मंजूर कर लिया. इस मामले में सबसे निर्णायक मोड़ 17 साल बाद अक्तूबर, 2013 में आया जब कर्नाटक हाइ कोर्ट ने जॉन माइकल डी. कुन्हा को विशेष न्यायाधीश नियुक्त किया. वे पूर्व जिला न्यायाधीश थे जो कर्नाटक हाइकोर्ट में सतर्कता रजिस्ट्रार थे. उन्होंने यह पक्का किया कि मामला बिना किसी देरी के आगे बढ़े और उन्होंने दलीलों को एक साल से कम में ही निबटा दिया. एक मामले में तो उन्होंने अदालत से दो दिन तक गायब रहने के दंड स्वरूप सिंह पर 60, 000 रुपये का जुर्माना भी लगा दिया.
आगे क्या?सरकारी वकील भवानी सिंह की भूमिका अब भी विवादों में है. जयललिता की जमानत पर हाइकोर्ट में 7 अक्तूबर को हुई सुनवाई से निकली खबरों के मुताबिक, सरकारी वकील ने सबसे पहले आरोपी को जमानत दिए जाने का लिखित विरोध किया था. बाद में उन्होंने अपना पक्ष बदलते हुए कह डाला कि अगर आरोपी को सशर्त जमानत दी जाती है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी.
कर्नाटक हाइकोर्ट ने जमानत से इनकार कर दिया और कानूनी जानकारों की मानें तो निकट भविष्य में कोई भी अदालत अब इस मामले में देरी को देखते हुए जमानत नहीं देगी. वे कहते हैं कि लालू प्रसाद यादव तक को दस महीने तक जेल में रहना पड़ा था. उनके मामले में बिहार सरकार ने जेल परिसर में एक गेस्ट हाउस में उनके रहने की व्यवस्था कर दी थी.
इतने लंबे समय तक सुनवाई को लटकाए रखने की वजह से जयललिता ऐसी व्यवस्था हासिल करने का अवसर खुद खो चुकी हैं. ऐसा लगता है कि वे मान चुकी थीं कि मुकदमा अनंत काल तक चलता रहेगा और उनके दोषी ठहराए जाने का कोई मौका नहीं आएगा. अब उनका भविष्य कहीं ज्यादा मुश्किलों भरा दिख रहा है.