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पुलेला गोपीचंद कि बैडमिंटन के क्षेत्र में चीन एक महान दीवार की तरह है

पुलेला गोपीचंद कहते हैं कि बैडमिंटन के क्षेत्र में भी चीन एक महान दीवार की तरह है. पी.वी सिंधु भी मानती हैं कि चीन के खिलाड़ी मुश्किल घड़ियों में भी दम दिखाते हैं.

अमरनाथ के. मेनन
  • नई दिल्ली,
  • 17 दिसंबर 2013,
  • अपडेटेड 12:09 PM IST

हैदराबाद की अपनी बैडमिंटन अकादमी के ग्राउंड फ्लोर पर बनी जिम की एक बेंच पर भारत के मुख्य राष्ट्रीय कोच 40 वर्षीय  पुलेला गोपीचंद और उनकी सबसे होनहार शिष्याओं में से एक 18 वर्षीया  पुसरला वेंकट सिंधु साथ-साथ बैठे हैं. सिंधु महिला बैडमिंटन में दुनिया की शीर्ष 15 खिलाडिय़ों में शुमार हैं. दोनों इस बारे में बातचीत कर रहे हैं कि इस खेल ने किस तरह से एक आकार लिया, किस तरह से उसका विकास हुआ. सीनियर एडीटर अमरनाथ के. मेनन के साथ एक मुलाकात में उन्होंने 1980 के ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप में प्रकाश पादुकोण की जीत पर चर्चा की. यह भी चर्चा का विषय बना कि 2001 में पादुकोण का करतब दोहराने के बावजूद अपनी तेज युवा शिष्या साइना नेहवाल के उभरने तक गोपीचंद कैसे वह असर छोडऩे में नाकाम रहे. और क्यों आखिर सिंधु एक उभरती हुई स्टार हैं.

पुलेला गोपीचंद प्रकाश पादुकोण सर के जमाने से ही भारत का बैडमिंटन का खेल कमोबेश एक ही खिलाड़ी के बूते चलता आया है. उन्होंने 1980 की ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप समेत कई खिताब जीते. उसके बाद एक दशक तो ऐसा लगा कि इस खेल में अब कोई खास आकर्षण नहीं रह गया है. मगर 1990 के दशक में लोगों की दिलचस्पी एक बार फिर से जगने लगी. उसके बाद मुझे एक मौका मिला और 2001 में अचानक मैंने भी ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप जीत ली. मगर मैं ज्यादा समय तक चोटी पर न रह सका. प्रकाश सर के बनाए दूसरे रिकॉर्डों को तोडऩा तो दूर, मैं उनकी बराबरी भी न कर सका. चोट और कुछ दूसरी वजहों से मुझे बहुत ज्यादा मौके भी नहीं मिल पाए. उसके बाद एक खराब दौर गुजरा. मगर 2008 में साइना नेहवाल ने उम्मीदें फिर से जगा दीं. पर भारतीय बैडमिंटन के लिए यह उतना अच्छा नहीं रहा जितना कि साइना के लिए. पिछले साल हमने सिंधु को एशियाई जूनियर चैंपियन बनते देखा और इस साल उन्हें मलेशियाई ग्रैंड प्रिक्स जीतते और विश्व चैंपियनशिप में भी एक पदक जीतते देखा. इसके बाद लोग भारतीय बैडमिंटन पर गंभीरता से ध्यान देने को मजबूर हो गए. यह एक नई शुरुआत इसलिए है क्योंकि अब हमारा यह खेल एक ही व्यक्ति के इर्द-गिर्द सिमटा नहीं रहा. यही वजह है कि इस साल पहले इंडियन बैडमिंटन लीग के रन-अप में दर्शक इस खेल के बदलते मिजाज पर टिप्पणी करते सुने गए. यही कि बैडमिंटन अब यहां एक परिपक्व अवस्था में आता दिख रहा है.
पुसरला वेंकट सिंधु गोपी सर, ऐसा लगता है कि आपके दौर में खेलों में करियर बनाना बिल्कुल अलग रहा होगा. यह बताइए कि उस वक्त की मुख्य चुनौतियां आखिर क्या थीं?

गोपीचंद 1980 के दशक की शुरुआत में 1982 के एशियाई खेलों तक काफी हद तक क्रिकेट को और थोड़ा-बहुत हॉकी को प्रोत्साहन और प्रायोजक मिल रहे थे. क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों के प्रोत्साहन और इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने पर लगने वाला कुल प्रयास और धन क्रिकेट के क्षेत्र में लगने वाले प्रयास और धन का बहुत मामूली हिस्सा हुआ करता था. लेकिन क्रिकेट के साथ किसी भी तरह की तुलना बेमानी है. पिछले दो दशकों में यह सब कुछ बदल गया है. हमारी सुविधाओं और प्रशिक्षण कौशल की तुलना इस खेल में दुनिया की कुछ सर्वश्रेष्ठ सुविधाओं और प्रशिक्षण कौशल से की जा सकती है. पर हां, ओलंपिक स्वर्ण पदक के लिए अब भी उतनी भूख नहीं है, जितनी भारत जैसे विशाल देश में होनी चाहिए. इस मामले में शायद हमें चीन से सबक लेना होगा.
सिंधु आज की तारीख में बैडमिंटन में चीन की चुनौती बहुत मजबूत है. अगर आप उनके किसी खिलाड़ी के खिलाफ खेल रहे हैं तो यह बिल्कुल ही अलग तरह का खेल हो जाता है. आपके समय में विश्व स्तर के प्रतिस्पर्धियों का सामना करना निश्चित तौर पर और भी मुश्किल रहा होगा.

गोपीचंद देखिए, आप अगर बैडमिंटन में कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो आपको चीनियों को पछाडऩा ही होगा. चीन की एक महान दीवार बैडमिंटन के क्षेत्र में भी है. साइना ने चीनियों के खिलाफ खेले लगभग 60 गेमों में हर तीन में से सिर्फ एक गेम ही जीता है. पुरुषों में पी. कश्यप उनके खिलाफ खेले गए हर पांच में से सिर्फ एक गेम ही जीत पाए हैं. पुरुष और महिला बैडमिंटन में दुनिया के शीर्ष 25 खिलाडिय़ों में पांच भारतीय हैं जबकि चीन के सात खिलाड़ी हैं और वे सभी शीर्ष 10 खिलाडिय़ों में शुमार हैं. वे सचमुच जबरदस्त हैं. फिलहाल सिंधु का रिकॉर्ड शानदार है क्योंकि उन्होंने चीनियों के खिलाफ खेले गए अपने आधे मैच जीते हैं.
सिंधु उनका कमिटमेंट सचमुच देखने लायक है. उनकी रणनीति और मुश्किल क्षणों में अपने खेल को ऊंचाई पर ले जाने का उनका तरीका उन्हें दूसरों के मुकाबले बेहतर खिलाड़ी बना देता है. कभी-कभी वे शुरुआत में ही कुछ प्वाइंट्स दे देने का प्रयास करते हैं ताकि हम खुश होकर अपनी एकाग्रता खो बैठें.

गोपीचंद मगर सिंधु उनके इस जाल में बहुत ज्यादा नहीं फंसी हैं. ऐसा इसलिए हो सका है क्योंकि हम भी अपने विरोधियों के खेलने के तरीके का अध्ययन कर रहे हैं, उसे रिकॉर्ड कर रहे हैं और एक-एक खिलाड़ी से निबटने के लिए जरूरी सुधार कर रहे हैं.
सिंधु यहीं पर योग और ध्यान बहुत मदद करते हैं. मुझे याद है कि मेरे माता-पिता सुबह 4.30 बजे जगा दिया करते थे और करीब 30 किलोमीटर ट्रैवल कर मुझे अकादमी छोडऩे आया करते थे. यह मेरे लिए बहुत कठिन था क्योंकि मुझे स्कूल की क्लास छोडऩी पड़ती थी और फिर मुझे मानसिक प्रशिक्षण पसंद नहीं था. मुझे लगता था कि सिर्फ बैडमिंटन खेलना ही पर्याप्त है. उसके बाद गोपी सर ने कमान संभाली और मुझे और कई दूसरे खिलाडिय़ों को बिल्कुल बदल दिया.
गोपीचंद ऐसा इसलिए क्योंकि 2001 में ऑल इंग्लैंड चैंपियनशिप जीतने के बाद मैंने तय किया कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सुविधाओं और प्रशिक्षण की व्यवस्था कर बैडमिंटन के लिए काफी कुछ और किए जाने की जरूरत है. 2003 में आंध्र प्रदेश सरकार ने अकादमी शुरू करने के लिए 45 साल के पट्टे पर मुझे पांच एकड़ चट्टानी जमीन दी. लेकिन उसे विकसित करने के लिए पैसे नहीं थे. कर्ज लेने के लिए मुझे अपनी पारिवारिक संपत्ति गिरवी रखनी पड़ी. योनेक्स और एक रिश्तेदार की मदद से 2008 तक हमने इसे हर तरह की सुविधाओं से लैस एक अकादमी के रूप में विकसित कर लिया.
सिंधु मेरे माता-पिता दोनों राष्ट्रीय बास्केटबॉल खिलाड़ी रहे हैं और वे लोगों को बताते आए हैं कि कैसे उनकी युवावस्था के दिनों में किसी भी खेल के लिए प्रशिक्षण सुविधाओं का नितांत अभाव हुआ करता था. और वे मुझे बताते हैं कि सिकंदराबाद से आकर अकादमी से 2 किलोमीटर की दूरी पर बस जाने से मैं यहां की सुविधाओं का अधिकतम इस्तेमाल करने में कामयाब हो पाई.

गोपीचंद मुझे लगता है कि पूर्ण समर्पण पहली जरूरत है. यही वजह है कि मैं हर किसी से टाइम-टेबल और प्रशिक्षण नियमों का कड़ाई से पालन करवाता हूं. ऐसी मूल प्रवृत्तियां ही दृढ़ संकल्प का निर्माण करती हैं. इसमें दो राय नहीं कि कोई भी दो खिलाड़ी एक जैसे नहीं होते. अलग मानसिकता, अलग डील-डौल, शारीरिक कद-काठी और खेल की एक व्यक्तिगत शैली के साथ हर खिलाड़ी अपने आप में अनूठा होता है. एक व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम महत्वपूर्ण होता है जिसमें आप गति, चपलता और फिटनेस वगैरह विकसित करते हैं.
सिंधु खेल में ताकत लाने के लिए मुझे चॉकलेट छोड़कर स्पाइरुलिना का हरा पाउडर, सी-वीड और कुछ दूसरे आहार लेने पड़े. इस जैसे कई और त्याग कठिन प्रशिक्षण का हिस्सा हैं. फिल्में देखने के मोह पर थोड़ा लगाम लगाना भी इसमें शामिल है.

गोपीचंद
हमने खिलाडिय़ों की एक समृद्ध-संपन्न नर्सरी से अच्छी फसल काटनी शुरू भी कर दी है. सिंधु की ही तरह भारतीय खिलाडिय़ों की एक युवा पौध है जो बेहतर प्रदर्शन कर रही है और उसके अच्छे नतीजे देने में महज एक-दो सालों की देर और है. व्यक्तिगत स्पर्धा के खिलाडिय़ों के अलावा मुझे यकीन है कि हमारी डबल्स वाली कुछ जोडिय़ां जल्द ही जबरदस्त छाप छोडऩा शुरू कर देंगी.
सिंधु इंडियन बैडमिंटन लीग (आइबीएल) एक शानदार अनुभव रहा है और इससे यह खेल फोकस में आया है. गोपी सर, क्या आपको लगता है कि इस तरह का प्रयोग लंबे दौर में उपयोगी होने जा रहा है?

गोपीचंद यह एक जबरदस्त मौका है. आइबीएल बैडमिंटन को आज की तुलना में और अधिक लोकप्रिय बनाने में योगदान दिया जा सकता है. लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है. दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाडिय़ों के साथ और उनके खिलाफ खेलते हुए हमारे ज्यादा से ज्यादा खिलाडिय़ों को प्रतिस्पर्धा का अनुभव मिलता है. सर्वश्रेष्ठ खिलाडिय़ों को बैडमिंटन खेलते हुए देखना एक सुखद अनुभव है. हम करीब से उनकी रणनीतियों का अध्ययन कर सकते हैं. यह भविष्य के लिए सीखने की जमीन के तौर पर काम करता है.

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