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आर्थिक वृद्धि में तेजी लाना सरकार का काम: रघुराम राजन

राजन ने इंडिया टुडे समूह के एडिटर (बिजनेस टेलीविजन) विवेक लॉ से खुलकर बात की कि ब्याज दरों में और कटौती का दरवाजा अभी क्यों “बंद नहीं है.”

रघुराम राजन रघुराम राजन
विवेक लॉ
  • ,
  • 08 जून 2015,
  • अपडेटेड 4:21 PM IST

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने 2 जून को ब्याज दरों में चौथाई फीसदी की और कटौती तो कर दी, लेकिन अर्थव्यवस्था के समक्ष मौजूद कुछ खतरों को भी रेखांकित किया, खासकर जो कमजोर मॉनसून की आशंका से उपज रहे हैं. उनके बयान का बाजार पर प्रतिकूल असर पड़ा और शेयर बाजार सूचकांक दो दिनों के भीतर 1,000 से ज्यादा अंक गिर गया. राजन ने इंडिया टुडे समूह के एडिटर (बिजनेस टेलीविजन) विवेक लॉ से खुलकर बात की कि ब्याज दरों में और कटौती का दरवाजा अभी क्यों “बंद नहीं है.” उन्होंने उम्मीद जताई कि इस बार सरकार कमजोर मॉनसून के नतीजों से निबटने के लिए बेहतर स्थिति में है. उन्होंने यह भी बताया कि आर्थिक समस्याओं को दुरुस्त करने के लिए क्या करना होगा. बातचीत के कुछ अंशः

आपने हाल ही में सरकार से अवास्तविक अपेक्षाओं की चर्चा की थी और उसके लिए “सफेद घोड़े पर बैठे रोनाल्ड रीगन” के जुमले का इस्तेमाल किया था. क्या आपके और भारतीय रिजर्व बैंक के मामले में भी यही लागू होता है?
देखिए, उम्मीदें तो अपनी जगह हैं. मैंने लगातार इस पर जोर दिया है कि हमारा काम रुपए के मूल्य, महंगाई दर और व्यापक आर्थिक स्थिरता के मामले में विश्वास का माहौल कायम करना है, लेकिन आर्थिक वृद्धि के मोर्चे पर हमारी कोई भूमिका नहीं है. हम कुछेक ढांचागत सुधारों में मदद जरूर कर सकते हैं, इसीलिए हमने ऐलान किया था कि हम अगस्त के अंत तक छोटे वित्तीय बैंकों को लाइसेंस देने में समर्थ हो जाएंगे, लेकिन इस मोर्चे पर अगुआई तो आखिरकार निजी क्षेत्र, सरकारी क्षेत्र, या खुद सरकार को करनी है क्योंकि निवेश का काम उन्हीं का है, जिससे वृद्धि दर बढ़ती है. हमारा काम माहौल बनाना है और हम तमाम उलझनों के बीच भी अपने स्तर पर बेहतर माहौल बनाते हैं. हालांकि हर कोई अपने नजरिए से देखता है. उद्योगपति इसे लागत की दृष्टि से देखते हैं. वे यह भूल जाते हैं कि एक दूसरा वर्ग बचतकर्ताओं का है जो इस बात की चिंता करता है कि उसे अपनी जमा पर मुद्रास्फीति दर से ज्यादा लाभ मिल सके. हमें दोनों के बीच संतुलन बनाना होता है. लोग यह नहीं समझते कि सारा दारोमदार संतुलन का ही है.

क्या रिजर्व बैंक ने व्यापक माहौल बनाने में अपनी भूमिका अदा की है? क्या बाकी माहौल अब अपने आप तैयार हो जाना चाहिए? आप सरकार या निजी क्षेत्र से क्या करने की उम्मीद रखते हैं?

अतीत की कुछ समस्याएं हैं जो हमें विरासत में मिली हैं. उनसे हम जैसे-जैसे निबटते जाएंगे, आर्थिक वृद्धि तेज होती जाएगी. मुझे लगता है कि यह प्रक्रिया जारी है लेकिन अभी और काम किया जाना है. हमारा काम खत्म नहीं हुआ है. हमें कुछेक परियोजनाओं के लिए रास्ता बनाना होगा जो अटकी हुई हैं. इस मामले में जिम्मेदारी सरकार, निजी क्षेत्र और बैंकिंग क्षेत्र की है.

क्या आप इन उपायों के बावजूद वृद्धि दर को लेकर निराश हैं?
मुझे लगता है कि काफी काम चल रहा है. हमें एक खास तंत्र के भीतर काम करना है. यह तंत्र अच्छा है. अच्छी बात यह है कि हमारा लोकतंत्र गतिशील है और इसमें संतुलन और नियंत्रण की प्रणालियां मौजूद हैं. इसी तंत्र के भीतर हमें आगे की ओर बढ़ना है और उसकी एक तय चाल होती है. दूसरी अहम चीज यह है कि हम जैसे-जैसे एक विकसित अर्थव्यवस्था बनते जाएंगे, हमें संस्थानों का भी निर्माण करने की जरूरत होगी. उसमें वक्त लगता है और वास्तविक अपेक्षाओं की दरकार होती है. हम मनमर्जी से नीतियां नहीं बना सकते जैसा अतीत में होता आया है. मसलन, मुद्रास्फीति पर काबू करने की दिशा में बढ़ते हैं तो अपने पूर्वानुमान के आधार पर कदम बढ़ाते हैं, लेकिन इस पर लगातार बहस जारी रहती है कि आपको अपने पूर्वानुमानों को छोड़कर आर्थिक वृद्धि पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि उसकी दर कमजोर है. लेकिन हमारा काम मुद्रास्फीति को भी काबू में रखना है. इसलिए  इस दिशा में हम सबसे ज्यादा ध्यान देने की कोशिश कर भी रहे हैं. 

बाजार दरों में कटौती चाहता था, आपने वही किया. पूर्वानुमान भरोसेमंद नहीं दिखता. क्या अब इस साल दरों में और कटौती नहीं की जाएगी?
मुझे लगता है कि यह गलत समझ है. हमने तो यही कहा था कि अपने पूर्वानुमान पर भरोसा करते हुए हम इस साल के अंत तक मुद्रास्फीति के अपने लक्ष्य को हासिल कर लेंगे. इस रास्ते में कई रोड़े हैं. हमने तीन की ओर इशारा किया था. एक तो मॉनसून है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा अहम कमजोर मॉनसून पर प्रशासनिक प्रतिक्रिया है. मॉनसून कमजोर रहता है लेकिन आपके पास उपयुक्त नीतिगत उपाए हैं, तो इससे बहुत फर्क पड़ सकता है. हमने कुछ तार्कि क अनुमानों को शामिल किया है लेकिन प्रतिक्रिया बहुत सशक्त रही और मॉनसून भी पूर्वानुमान के मुकाबले मजबूत रहा, तो हमारे काम करने के लिए ज्यादा नीतिगत गुंजाइश बन सकेगी. इसी तरह, तेल की कीमतें एक बड़ा कारक हैं. इधर बीच वे तेजी से बढ़ी हैं. हम मानते हैं कि इसकी कीमत का एक अधिकतम स्तर है. एक धारणा यह है कि बाजार में इसकी आपूर्ति जरूरत से ज्यादा है. पहले भी इसी वजह से इसकी कीमत गिरी थी. ऐसा फिर होता है तो हमें फिर ज्यादा गुंजाइश मिल सकेगी. यही बात बाहरी माहौल के साथ लागू होती है.

मतलब आप कह रहे हैं कि दरवाजा अभी बंद नहीं हुआ है?
दरवाजा अभी बंद नहीं हुआ है.

तेल पर आपकी राय क्या है? कीमतों में उछाल का खतरा कितना गंभीर है?
तेल बाजार का बुनियादी तथ्य यह है कि शेल का उत्पादन काफी बढ़ा है, शेल में निवेश कम समय में किए जा सकते हैं. तेल की कीमत 70 डॉलर प्रति बैरल से ज्यादा हुई तो शेल अन्वेषण के वे क्षेत्र जो बंद कर दिए गए थे, उन्हें तेजी से खोला जा सकता है. बाजार के खिलाड़ियों से मुझे यही रुझान प्राप्त हो रहे हैं. इसका मतलब हुआ कि 70 डॉलर प्रति बैरल इसकी अधिकतम कीमत है और हमने अपने अनुमानों में भी इसी को संज्ञान में लिया है. फिलहाल कोई प्रवाह नहीं है. अगर प्रवाह ज्यादा रहा और वैश्विक अर्थव्यवस्था कमजोर बनी रही, तो इसका असर तेल की कीमतों पर पड़ सकता है. इसमें गिरावट भी देखी जा सकती है. जो चीज हम नहीं जानते, वह है भू-राजनैतिक खतरे. क्या पता, आइएसआइएस के चलते इराक या लीबिया में क्या होने वाला है.

आपने ब्याज दरें तो घटा दीं लेकिन असल सवाल यह है कि उपभोक्ताओं तक इसका लाभ पहुंचता है या नहीं. क्या उस मोर्चे पर कुछ बदला है?
इसका लाभ धीरे-धीरे मिल रहा है. हम ब्याज दरों में गिरावट देख रहे हैं. बैंक भी ऐसा ही कर रहे हैं. बाजार में समय के साथ प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तो इसका लाभ भी मिलता दिखेगा. हम दरअसल यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि ऐसा करने में क्या हमारी नीतियां किसी तरीके से किसी बैंक की क्षमता को बाधित तो नहीं कर रही हैं, जिसमें आधार दरों की नीति भी शामिल है. मुझे उम्मीद है कि हम समय के साथ ज्यादा बाजार आधारित पैमाने की ओर बढ़ सकें. पहले हम मार्जिनल लागत मूल्य की ओर बढ़ें, फिर बाजार की बेंचमार्क दर की ओर और आखिरकार इस धंधे से ही बाहर निकल जाएं कि बैंकों को उनकी दरें तय करने के लिए बताना है. बैंकों को प्रतिस्पर्धा के आधार पर दरें तय करने देना चाहिए.

यह तो बड़ा सुधार है. इसके लिए आपकी योजना क्या है?
मुझे लगता है कि जनवरी के अंत तक हम ऐसा कर पाएंगे. इस वित्त वर्ष के अंत तक हम सभी बैंकों को सीमांत लागत मूल्य तक ला पाएंगे. अभी हम उनसे इस बारे में बात कर रहे हैं और उनकी जरूरतें जानने की कोशिश कर रहे हैं. जब बेंचमार्क तय हो जाए, जब बेंचमार्क कंपनी गठित हो जाए, तब हम उन्हें बेंचमार्क तक आने को कह पाएंगे.

विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की वास्तविक हैसियत दिलाने के लिए आपका नजरिया क्या है?  
अल्पावधि में हम वही कर रहे हैं जो हमें करना चाहिएः विरासत में मिली समस्याओं को दुरुस्त कर रहे हैं जो आर्थिक वृद्धि की तेज दर की राह में आड़े आ रही थीं. ये समस्याएं खुद विकास से पैदा हो रही हैं. आप भूमि अधिग्रहण पर चल रही पूरी बहस को ही देखिए. जमीन उन सुदूर इलाकों में अधिग्रहित की जानी है जहां अधिकतर आबादी आदिवासी है और उसके पास अपने अधिकारों की रक्षा करने का सामर्थ्य नहीं है, इसीलिए हम इस मसले पर इतना आगे-पीछे कर रहे हैं. कभी हम उन्हें वनाधिकार दे रहे हैं, कभी आदिवासियों के अधिकार दे रहे हैं और फिर हमें यह पता चल रहा है कि इन अधिकारों का सम्मान करते हुए वहां हमें खदानें भी खोलनी हैं. सवाल यह है कि इस काम को कायदे से कैसे किया जाए? यह लोकतांत्रिक समाज में मंथन की तरह है. हम इन समस्याओं से निबटने की कोशिश में जुटे हुए हैं. 

भारत का औद्योगकीकरण कैसे होगा? रोजगार सृजन के लिए, उत्पादन क्षेत्र को दुरुस्त करने के लिए हमें क्या करना होगा?

हमारी सबसे बड़ी ताकत यह है कि हमारे यहां तमाम किस्म के उद्यमी मौजूद हैं&युवा, बुजुर्ग, तकनीक प्रवण और तकनीक रहित, वगैरह. हमें इनके लिए एक सकारात्मक माहौल बनाना होगा, जिसका मतलब है इन्फ्रास्ट्रक्चर, यानी हमें मानवीय पूंजी की गुणवत्ता में संवर्धन करने की जरूरत होगी. आज स्कूल में तो हर कोई है लेकिन उसे ज्यादा सीखने की दरकार है. एक बढ़िया कारखाने में नौकरी के लिए हाइस्कूल स्तर के शिक्षण से उन्हें पर्याप्त आगे आना होगा. यानी रोजगार पाने की उनकी क्षमता को बढ़ाया जाना है. हमें कारोबार को नियमित करने पर काम करने की जरूरत है. हमें तमाम गलत नियमों से छुटकारा पाना होगा जबकि ऐसे उपयुक्त ढांचे तैयार करने होंगे जहां हमारा नियमन आज भी बहुत खराब है. मसलन, नियमों के रहते हुए यह कैसे संभव हो सकता है कि आज भी गंगा में सीवर का पानी बहता है? हमें ज्यादा सतर्क और सख्त नियमों को लागू करना होगा. आखिरी आयाम वित्त का है. हम इस बात पर जोर दे रहे हैं कि समूचे देश में वित्त कैसे ज्यादा उपलब्ध करवाया जाए ताकि हर क्षेत्र इसका इस्तेमाल करके तरक्की कर सके. इसके अलावा और ज्यादा सक्रिय बैंकिंग तंत्र की भी आवश्यकता है ताकि इस क्षेत्र में विरासत में मिली समस्याओं को दूर किया जा सके, सरकारी बैंकों में राजकाज को सुधारा जा सके. यही मुद्दे हमें जकड़े हुए हैं. सवाल यह है कि जो संकट में हैं उन्हें कैसे ठीक किया जाए. जैसा कि एक पूर्व मंत्री ने कहा था कि हमारे उद्यमी बीमार न हों, भले कंपनियां बीमार हों. हमें ऐसे मुद्दों से निपटने की जरूरत है.

प्रधानमंत्री कहते हैं कि आप अच्छे शिक्षक हैं. समस्याएं दूर करने के लिए सरकार को आप क्या सुझाव देना चाहेंगे.
मेरे ख्याल से सरकार जानती है कि समस्याएं क्या हैं और वह उस पर काम भी कर रही है. मुझे लगता है कि रुकी हुई परियोजनाएं अहम हैं. ऐसा पहली बार है कि हम ढेर सारी बिजली पैदा कर रहे हैं लेकिन वह उपभोक्ताओं तक नहीं पहुंच पा रही क्योंकि बिजली वितरक कंपनियां उसकी लागत नहीं चुका सकतीं. इसीलिए कुछ वितरक कंपनियों का पुनर्गठन किया गया है. हमें देखना होगा कि यह जरूरत के हिसाब से कारगर रहा है या नहीं. जिनका पुनर्गठन नहीं किया गया, उनके बारे में हम क्या करें, यह भी देखना होगा. बैंकों की बैलेंस शीट को दुरुस्त करना भी जरूरी है ताकि जैसे ही कर्ज की मांग बढ़े, बैंक वृद्धि की राह में खुद सुविधा महसूस कर सकें.

वैश्विक परिस्थिति को आप कैसे देखते हैं-मसलन, ग्रीस, अमेरिकी फेडरल रिजर्व का ब्याज दरें बढ़ाना?
ग्रीस के बारे में तो किसी को नहीं मालूम. इसके बारे में बात करना मुश्किल है. मुझे लगता है कि इस मामले में दोनों पक्षों से सहानुभूति रखी जा सकती है. मैं उम्मीद ही करूंगा कि इसकी दिशा ऐसी न होने पाए जो यूरोपीय वित्तीय तंत्र को नुक्सान पहुंचाने वाली साबित हो. मुझे नहीं लगता कि कोई भी इस बारे में कुछ कहने की स्थिति में होगा कि वे किसी समझौते तक आ भी पाएंगे या नहीं. जहां तक अमेरिका की बात है, उसकी पहली तिमाही खराब रही है और  फिर मौद्रिक कड़ाई को टालने की बातें हैं.

क्या आपको भारत से पूंजी के बाहर जाने का खतरा लगता है?
इसका जवाब हां में भी है और ना में भी. हम जब इक्विटी में विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआइआइ) की पूंजी को देखते हैं तो पाते हैं कि डेट में प्रवाह के मुकाबले यह कहीं ज्यादा स्थिर रही है. मैं मानता हूं कि जब तक कुछ बुनियादी बदलाव नहीं होते, लोग अस्थिरता के शुरुआती झटके के बाद उपयुक्त फैसले लेंगे. इसीलिए मुझे इसकी बहुत चिंता नहीं है कि अमेरिका में लिया गया फैसला हमारे बाजारों को गिरा देगा. हमारे बाजार की प्रतिक्रिया भी किसी दूसरे बाजार के जैसी ही रहेगी लेकिन मुझे नहीं लगता कि शुरुआती झटकों के बाद निवेशक इससे दूर रहेंगे. हमारी बुनियाद मजबूत रही तो वे लौटेंगे. इसीलिए मैं कहता हूं कि सतत वृद्धि के लिए अपनी बुनियाद को मजबूत करो.

एक वित्तीय भविष्यवक्ता से आरबीआइ के गवर्नर तक का आपका सफर कैसा रहा है? ऐसा लगता है कि स्कूल के दिनों में आप प्रधानमंत्री बनने का लक्ष्य रखते थे?
मेरे कहने का मतलब यह था कि मेरे ख्याल से स्कूल के बाद मेरे लक्ष्य कहीं ज्यादा व्यावहारिक हुए हैं. मुझे लगता है कि इस तरह के काम में काफी संतुष्टि है. एक प्रोफेसर या फिर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुख्य अर्थशास्त्री के बतौर भी आप बुनियादी रूप से सिर्फ  परामर्शदाता होते हैं और लोग आपकी कही बात की उपेक्षा कर सकते हैं और होता भी ऐसा ही है. लेकिन यहां कुछ वजहों से लोग वैसा करते हैं, जैसा आप उन्हें कहते हैं. केंद्रीय बैंकों ने हमेशा यह गलती की है कि वे जितना कर सकते हैं, उससे ज्यादा का वादा कर डाला है. केंद्रीय बैंक सिर्फ इतना ही कर सकता है कि वह ढांचा तैयार कर सकता है, अपने आप में वृद्धि नहीं पैदा कर सकता. वृद्धि कहीं और से आनी है. लोगों को हम यही बताने की कोशिश कर रहे हैं.

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