Advertisement

बॉलीवुड में असली कहानियों का दौर

हिंदी सिनेमा अब मैच्योर हो रहा है. बॉलीवुड के डायरेक्टर और ऐक्टर असल जिंदगी के किरदारों को फिल्मों में दिलकश अंदाज में पेश कर रहे हैं.

नरेंद्र सैनी
  • नई दिल्ली,
  • 02 सितंबर 2014,
  • अपडेटेड 2:11 PM IST

अब वे दिन लद गए जब हम इस ख्वाब में जिया करते थे कि सितारे आसमान से उतरते हैं. पुराना फलसफा बदल चुका है. वे तो हमारे-आपके बीच में ही मौजूद हैं. तभी तो बॉक्सिंग की दुनिया में लोहा मनवाले वाली दो बच्चों की मां; भगवानों को चेहरा देने वाला चित्रकार; प्यार की खातिर पहाड़ का सीना चीरने वाला संसाधनविहीन इनसान; और एथलेटिक्स में भारत का नाम दुनिया में रोशन करने वाले धावक का जीवन बॉलीवुड की फिल्मों का विषय बन गए हैं.

चक दे! इंडिया, भाग मिल्खा भाग, पान सिंह तोमर और शाहिद जैसी बायोपिक फिल्मों को जिस तरह की कामयाबी मिली, उसने बॉलीवुड में रिसर्र्च ओरिएंटेड फिल्मों की राह जैसे खोल दी. फिल्मों के प्रदर्शन के बारे में पूर्वानुमान लगाने वाली एक्सपर्ट सरिता सिंह इस रुझान के बारे में कहती हैं, बायोपिक्स में इमोशनल कनेक्ट होता है और उस शख्स का स्ट्रगल होता है. ऑडियंस ऐसी मूवी देखना पसंद करते हैं, जिससे वे खुद को कनेक्ट कर सकें.”

रंग रसिया में चित्रकार राजा रवि वर्मा और माउंटेन मैन में दशरथ मांझी के जीवन की कहानी लेकर आ रहे प्रोड्यूसर-डायरेक्टर केतन मेहता भी इससे इत्तेफाक रखते हैं, “समाज बदलाव के दौर में है. भारतीय सिनेमा भी बदला है. नए-नए फिल्ममेकर आ रहे हैं. ऐसे में सिनेमा और उससे जुड़ी चॉयस में भी बदलाव लाजिमी है.”

विश्लेषकों का मानना है कि फिल्मों के हिट होने मंे आज युवाओं का बड़ा हाथ है. यह वर्ग जानता है कि ख्वाबों की तामीर मेहनत के दम पर ही होती है और उसी तरह, जैसे मैरी कॉम हर विपरीत परिस्थिति के बावजूद पांच बार बॉक्सिंग की विश्व विजेता बनीं और फिर ओलंपिक में कांस्य पदक भी जीता. यही वजह है कि किताबों के बाजार में सितारों, खिलाडिय़ों और नेताओं की जीवनियों की काफी मांग है. खासकर उन लोगों की जिन्होंने फर्श से अर्श को छुआ है. मैरी कॉम को परदे पर उतारने वाले डायरेक्टर उमंग कुमार कहते हैं, “जब मेरे स्टोरी राइटर ने मुझे मैरी कॉम का नाम बताया, तो मैंने पूछा कौन है यह? उसने बताया पांच बार की विश्व बॉक्सिंग चैंपियन. तभी मुझे समझ आ गया कि जब मैं नहीं जानता तो बाकी लोग भी क्या जानते होंगे?”


समय और मेहनत का तड़का
मैरी कॉम को परदे पर उतारना आसान नहीं था. कहानी को तैयार करने में डेढ़ साल का समय लगा और उमंग को कई बार मैरी के घर तक जाना पड़ा. उमंग ने अपनी फिल्म को 57 दिन में शूट कर लिया लेकिन यह समय उन्हें दो साल में मिल सका क्योंकि पूरी फिल्म तैयारी से जुड़ी थी. वे बताते हैं, “पूरी फिल्म में आउटडोर शूटिंग करनी पड़ी है. जब हम मनाली में शूट कर रहे थे तो मौसम हमारे अनुकूल नहीं था. इसमें काफी समय लगता था और प्रियंका को भी खुद को रोल के मुताबिक ढालना पड़ता था.”

सरदार पटेल, मंगल पांडेय, राजा रवि वर्मा और दशरथ मांझी के जीवन पर फिल्म बनाने वाले मेहता रिसर्च वर्क को फिल्ममेकिंग का अहम हिस्सा मानते हैं. उनका कहना है, “हर फिल्म के लिए तैयारी की जरूरत होती है और किसी भी फिल्म के लिए रिसर्च खासा रोमांचक हिस्सा है क्योंकि हमें एक जानी-पहचानी शख्सियत के अनजाने पहलू पेश करने होते हैं.” तभी तो वे अपनी किसी भी फिल्म की रिसर्च पर ही डेढ़ साल का समय दे देते हैं. फिर चाहे वह रंग रसिया हो या दशरथ मांझी. वे बताते हैं, “एक जीवन के अंदर ढेर सारी कहानियां होती हैं. उन्हें कम्युनिकेट करना मुझे अच्छा लगता है.” यह रिसर्च, मेहनत और समय का अच्छी-खासी मात्रा में निवेश करने का ही नतीजा है कि फरहान अख्तर एकदम धावक मिल्खा सिंह दिखते ही नहीं बल्कि उनके जैसा व्यवहार भी करते हैं. इसी तरह तिग्मांशु धूलिया की पान सिंह तोमर में इरफान की बोलचाल और एटीट्यूड के अलावा कहानी ने दर्शकों पर गहरे तक असर किया था.

आसान नहीं कैरेक्टर को उतारना
फरहान ने मिल्खा बनने के लिए डेढ़ साल तक मेहनत की थी और खुद को किसी एथलीट की तरह ही ट्रेंड किया था. धीरूभाई अंबानी के जीवन पर बनी फिल्म गुरु (2007) के लिए अभिषेक बच्चन को अच्छा-खासा वजन बढ़ाना पड़ा था. यानी नॉर्मल फिल्म के मुकाबले चौगुनी मेहनत. प्रियंका के लिए मैरी कॉम बनना कोई आसान काम नहीं था. उन्हें रोजाना तीन घंटे जिम जाना पड़ता था. मसल्स निकालनी थीं. इस सारे काम में उन्हें तीन माह का समय लगा. उमंग बताते हैं, “हमने सारी बातों को ध्यान में रखते हुए बॉक्सिंग सीन की शूटिंग 20 दिन में ही कर ली थी. लेकिन इसके लिए प्रियंका को जबरदस्त रूटीन से गुजरना पड़ा.” उन्हें कई बार अपना वजन घटाना-बढ़ाना भी पड़ा. बॉक्सिंग की कई तरह की बारीकियां सीखीं और यह काम उन्होंने इंटरनेशनल ट्रेनर और मैरी कॉम के ट्रेनर की सलाह के साथ किया. उनकी ट्रेनिंग इस कदर थी कि जब वे कॉमेडी नाइट्स विद कपिल पर आईं और वहां डिप्स मारने (डंड पेलने) का मुकाबला हुआ तो वहां आए दोनों शख्स उनसे इस मुकाबले में हार गए.

प्रेम की खातिर पहाड़ का सीना चीरने वाले दशरथ मांझी की जिंदगी पर बनी मेहता की माउंटेन मैन फिल्म जल्द रिलीज होगी. फिल्म में दशरथ मांझी का किरदार निभाना नवाजुद्दीन सिद्दीकी के लिए आसान काम न था. वे कहते हैं, “इस रोल को हाथ में लेना तो आसान था लेकिन परदे पर उतारना बड़ी चुनौती थी.” उन्होंने वीडियो देखे. कई किताबें पढ़ीं. मांझी से जुड़े लोगों से मिले. वे हर समय मांझी और उनके 22 साल के संघर्ष के बारे में ही सोचते रहते. नवाज कहते हैं, “मैंने दशरथ मांझी के किरदार को अपने अंदर उतारने की कोशिश की. मैं वहां घंटों बैठा रहता था, जहां उन्होंने पहाड़ का सीना चीरकर सड़क बनवाई थी. कई बार तो आठ-दस घंटे वहीं निकल जाते और मुझे पता ही नहीं चलता.”

रंग रसिया में चित्रकार राजा रवि वर्मा बनने के लिए रणदीप हुड्डा ने पेंटिंग ब्रश चलाने से लेकर रवि वर्मा के स्टाइल तक, हर बात को आत्मसात किया. जॉन अब्राहम सुजीत सरकार की नई फिल्म में 1911 के फुटबॉल खिलाड़ी शिबदास भादुड़ी के रोल में नजर आएंगे. इसके लिए उन्हें अपना वजन 92 किलोग्राम से घटाकर 75 किग्रा पर लाना होगा.
 
तब और अब
बॉलीवुड में एक समय था जब भगत सिंह और झांसी की रानी या अकबर जैसे चरित्रों पर ही फिल्में बना करती थीं. लेकिन पिछले कुछ साल में इस रुझान में बदलाव आया है. इसमें 2007 को अहम माना जा सकता है. उस साल मशहूर उद्योगपति धीरूभाई अंबानी के जीवन के संघर्ष पर गुरु और यश चोपड़ा की चक दे! इंडिया आईं. चक दे! इंडिया  की कहानी कुछ-कुछ हॉकी खिलाड़ी मीर रंजन नेगी से भी मिलती थी. हालांकि निर्माताओं ने इसे संयोग भर माना. इसके बाद दौर बदला. 2011 में द डर्टी पिक्चर ने सिद्ध कर दिया कि बायोपिक्स में लगाया गया छौंक इन्हें जनता में खूब हिट कर सकता है. फिल्म दक्षिण की सनसनी सिल्क स्मिता पर थी. 2012 में पान सिंह तोमर ने सबको हैरत में डाल दिया. एथलीट से डाकू बने इस शख्स की कम बजट फिल्म ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए. फिर बॉलीवुड को बायोपिक की राह पर डालने की असल प्रेरणा बनी 2013 की भाग मिल्खा भाग. जिसने बॉक्स ऑफिस पर 100 करोड़ रु. का कारोबार किया और बॉलीवुड की पूरी तस्वीर को बदल कर रख दिया.

सवाल उठता है कि इन कहानियों में क्या कुछ छौंक भी लगाया जाता है? इस बाबत सरिता सिंह बताती हैं, “किसी भी कहानी को नाटकीय बनाया जाता है और जानदार डायलॉग्स डाले जाते हैं. ऐसे सीक्वेंस पिरोए जाते हैं जहां गाने डाले जा सकें. इससे फिल्म का कनेक्ट ऑडियंस से गहरा होता है तो कैरेक्टराइजेशन को भी मजबूती मिलती है.”

बॉलीवुड के ताजा रुझान को कुछ उसी तरह माना जा सकता है जैसा कि हॉलीवुड में है. आम से खास बने लोगों के अनजान पलों को दर्शकों के सामने पेश किए जाने की कोशिश हो रही है. बॉलीवुड

इस मामले में काफी समझदारी से कदम उठा रहा है. 2002 में तो भगत सिंह के ऊपर एक साथ तीन फिल्में आ गई थीं. शायद वह दौर अब नजर आने वाला नहीं.

हॉलीवुड और बॉलीवुड
हॉलीवुड में जिस तरह फेसबुक ईजाद करने वाले मार्क जकरबर्ग, अफ्रीकी नेता नेल्सन मंडेला, ब्रिटेन की राजकुमारी लेडी डायना, अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन, फिल्म निर्माता अल्फ्रेड हिचकॉक और पोर्न स्टार लिंडा लवलेस जैसे लोगों पर बेहतरीन फिल्में बन चुकी हैं और वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग की जिंदगी पर बनी फिल्म द थ्योरी ऑफ एवरीथिंग 2015 में रिलीज होने जा रही है. आने वाले समय में बॉलीवुड में भी इसी तर्ज पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, वैज्ञानिक शिवकर बापूजी तलपदे, पहलवान दारा सिंह और फुटबॉल खिलाड़ी शिबदास का जीवन परदे पर दिखेगा. यही नहीं, बॉलीवुड किशोर कुमार, मीना कुमारी और साहिर लुधियानवी के जीवन को भी परदे पर उतराने की तैयारी में है.

हॉलीवुड से बॉलीवुड के प्रेरित होने पर सरिता सिंह का कुछ और ही कहना है. उनके मुताबिक, “मेरे ख्याल से हम हॉलीवुड से टेक्निकल पहलुओं से जुड़ी प्रेरणा ले सकते हैं. लेकिन हमारी स्टोरीज तो हमारे घर से ही निकल रही हैं.” बिल्कुल उसी तरह जैसे हंसल मेहता ने मानवाधिकारों के लिए लडऩे वाले वकील शाहिद आजमी पर शाहिद (2013) बनाई थी.

कॉमर्शियल फैक्टर
बायोपिक्स न सिर्फ बॉक्स ऑफिस पर कमाल दिखा रही हैं, बल्कि हिंदी सिनेमा में नई राहें भी खोल रही हैं. इस पर फिल्म विश्लेषक तरण आदर्श कहते हैं, “बायोपिक फिल्मों का बनना पॉजिटिव ट्रेंड है. हमें राष्ट्रीय स्तर की शख्सियतों पर फिल्में बनानी ही चाहिए, लेकिन उनमें प्रामाणिकता और विश्वसनीयता बनाए रखनी होगी.”

फरहान ने मिल्खा बनने के लिए अपने डेढ़-दो साल लगाए, वह हर ऐक्टर के बस की बात नहीं है. लेकिन प्रियंका ने जिस तरह मैरी कॉम के साथ अपने बाकी असाइनमेंट्स को भी अंजाम दिया, वह उम्मीद जगाता है. तरण आदर्श कहते हैं, “”बॉलीवुड बदल रहा है, ऐसे कई सितारे हैं जो साल में एक ही फिल्म करते हैं.”

सितारे बदल रहे हैं, फिल्ममेकर बदल रहे हैं, नई कहानियां आ रही हैं. सब अच्छा चल रहा है. लेकिन बॉलीवुड को अपने पुराने रोग यानी भेड़चाल का शिकार बनने से बचना होगा.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement