जब स्मृति ईरानी ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एचआरडी) में केंद्रीय मंत्री का अपना काम शुरू किया तो उनकी अनुभवहीनता को लेकर काफी आलोचना हुई थी. लेकिन कार्यभार संभालने के कुछ ही दिन के भीतर उन्होंने ऐसा कदम उठाया, जिसने मंजे हुए नेताओं को भी पीछे छोड़ दिया. वह फैसला था विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के बहुचर्चित चार वर्षीय अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम (एफवाइयूपी) को खत्म कराना.
यह फैसला आरएसएस की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और बीजेपी की दिल्ली इकाई की मांग को देखते हुए किया गया था. इस फैसले की कोई अकादमिक वजह बताने की कोशिश नहीं की गई थी-सिर्फ प्रक्रियात्मक खामियां बताई गई थीं. मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने यूजीसी पर जोर डालकर चार वर्षीय पाठ्यक्रम खत्म करने के लिए विवश किया, हालांकि यूजीसी ऐसा करने से हिचक रहा था.
बताया जाता है कि यूजीसी के चेयरमैन ने 20 जून की आधी रात को खुद आदेश टाइप किया, जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय को तत्काल चार साल का कोर्स खत्म करने के लिए कहा गया था. ईरानी एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के अंदरूनी मामले में दखल देने में सफल रहीं और यूजीसी को अपनी बात मानने के लिए मजबूर कर दिया. अब इस बात में कोई संदेह नहीं रह गया था कि लगाम किसके हाथ में है.
एफवाइयूपी का दूरगामी असर
स्मृति के लिए एफवाइयूपी का अनुभव भले ही मुश्किल लड़ाई जीतने का रहा हो, लेकिन वह हारी हुई लड़ाई थी. उन पर देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय के शैक्षिक फैसले के मामले में दखल देने का आरोप लगा है. डीयू सिर्फ पहला संस्थान था जहां इस टकराव की वजह से उसका शैक्षिक एजेंडा कमजोर हो गया.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस को 5 जुलाई को यूजीसी के अधिसूचित प्रारूप को मानने के लिए अपने चार वर्षीय बीएससी कोर्स को पुनर्गठित करना पड़ा. पुणे के सिम्बायोसिस ने इस मामले को अदालत में उठाया है. हरियाणा में नया अशोक विश्वविद्यालय चार साल का अपना पहला लिबरल आर्ट्स डिग्री कोर्स शुरू करने जा रहा था, लेकिन इस आदेश के बाद उसे अपने कोर्स का स्वरूप बदलना पड़ा.
बहरहाल, मामला अब पेचीदा होता नजर आ रहा है क्योंकि 20 अगस्त के निर्देश के बाद यूजीसी और 16 इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आइआइटी) में ठन गई है. इस निर्देश में आइआइटी को यूजीसी के सुझवों के अनुसार अपनी डिग्रियों में तालमेल बनाने के लिए कहा गया है. आइआइटी का कहना है कि यूजीसी के निर्देश उन पर लागू नहीं होते हैं. वे इस मामले को अब आइआइटी काउंसिल की स्थायी समिति में ले गए हैं. एचआरडी मंत्री के तौर पर स्मृति इस समिति की मुखिया हैं.
आइआइटी-बॉम्बे के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के चेयरमैन अनिल काकोडकर ने आइआइटी की स्वायत्तता कम करने की इस कोशिश के लिए यूजीसी की आलोचना की है. हालांकि मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति इस मामले में अब तक खामोश रही हैं, लेकिन उन्हें आइआइटी को किसी तरह का नुकसान पहुंचाए या यूजीसी कानून और निर्देशों को कमजोर किए बिना खुद को इससे अलग रखना होगा.
फैसले का इंतजार
अधिकारियों का मानना है कि स्मृति ने हायर एजुकेशन को बल देने वाले जरूरी फैसले लेने की जगह स्कूलों के लिए संस्कृत सप्ताह और निबंध लेखन जैसे सांकेतिक कदमों पर ज्यादा समय खर्च किया है. एक अधिकारी कहते हैं, ‘‘साफ है कि मंत्री जरूरत से ज्यादा सजग हैं...वे हर फाइल जांच रही हैं, भले ही वह सामान्य मामलों की हो. इससे फैसले लेने में देरी हो रही है.’’
नियामक संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने के लिए कपिल सिब्बल के पहली बार शुरू किए गए हायर एजुकेशन और अनुसंधान राष्ट्रीय परिषद के गठन के विधेयक का मामला ही लें. स्मृति ने शुरू में इस बात का संकेत दिया था कि यूपीए के इस विधेयक को वापस ले लिया जाएगा, लेकिन उसकी फाइल मंत्री के दफ्तर में पड़ी हुई है और अगले निर्देश का इंतजार कर रही है. इसी तरह कई और फैसले अभी लंबित हैं, जिनमें से हायर एजुकेशन संस्थानों में भारी संख्या में खाली पड़े पदों का मामला भी है.
तीन आइआइटी-रोपड़, पटना और भुवनेश्वर-में निदेशकों का अभाव है. बताया जाता है कि यह फाइल मंत्री की मेज पर धूल खा रही है. नौ नए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (आइआइआइटी) में अध्यक्ष ही नहीं हैं. माना जाता है कि विभिन्न संस्थाओं में नियुक्तियों से संबंधित 50 से ज्यादा फाइलें मंत्री के दफ्तर में लंबित हैं.
हालांकि ये सभी नियुक्तियां पहले की सरकार को करनी थीं, लेकिन चुनाव आचार संहिता लागू हो गई और फैसले नई सरकार के विवेक पर छोड़ दिए गए. लगता है स्मृति आवेदकों पर नए सिरे से विचार करना चाहती हैं. अपना पद संभालने के कुछ दिन बाद उन्होंने अधिकारियों से कहा कि वे खाली पदों और हाल की नियुक्तियों की सूची तैयार करें, जिससे अधिकारियों को लगा कि अब फैसले लेने की प्रक्रिया में तेजी आएगी. लेकिन फैसले बहुत धीमी रफ्तार से लिए जा रहे हैं.
जहां 12 केंद्रीय विश्वविद्यालयों को कुलपतियों का इंतजार है, वहां सिर्फ तीन कुलपतियों की नियुक्ति हो पाई है. यूपीए-2 के एम.एम. पल्लम राजू ने जो तलाश-और-चयन समितियां गठित की थीं, वे विवाद में फंस गईं क्योंकि बीजेपी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने इस पर अनुचित होने का आरोप लगाया था और राष्ट्रपति से उन्हें खत्म करने की अपील की थी. बीजेपी मध्य प्रदेश में डॉ. हरि सिंह गौड़ विश्वविद्यालय में सिर्फ एक समिति को खत्म कराने में कामयाब रही थी.
अध्यक्ष के अभाव में नौ नए आइआइआइटी कागज पर किसी तरह की योजना शुरू करने में असमर्थ हैं. पांच साल पहले 44 अपूर्ण डीम्ड विश्वविद्यालयों को ब्लैकलिस्ट करने के लिए कपिल सिब्बल का शुरू किया गया एक अन्य प्रोजेक्ट अब भी लंबित है.
स्मृति के बचाव में
एचआरडी मंत्रालय के पास इस आलोचना का आसान-सा जवाब है. मंत्रालय के उच्चस्तरीय पदों पर अधिकारियों का भारी अभाव है, जिसकी वजह से फैसले लेने की गति धीमी पड़ जाती है. हायर एजुकेशन ब्यूरो में इस समय सिर्फ दो जॉइंट सेक्रेटरी हैं क्योंकि चार आइएएस अधिकारी रिटायर हो चुके हैं. उन्होंने या तो अपना कार्यकाल पूरा कर लिया था या अपने पैरेंट काडर में तबादला ले चुके हैं. हायर एजुकेशन सेक्रेटरी भी इस महीने के अंत में रिटायर हो रहे हैं. इतना ही नहीं, खुद स्मृति के पास अभी हाल तक कोई फुल टाइम प्राइवेट सेक्रेटरी नहीं था.
मंत्री के करीबी सूत्रों का कहना है कि स्मृति की पहली प्राथमिकता व्यवस्था को ‘‘साफ-सुथरा’’ बनाने और बीजेपी के घोषणापत्र में किए गए वादों को सुनिश्चित करने की रही है. उनका कहना है कि अब सारा जोर नियुक्तियों से संबंधित फाइलों को निबटाने पर होगा.
हाल के वर्षों में करीब सभी मानव संसाधन विकास मंत्री कु छ-न-कुछ विवादों में रहे हैं. मुरली मनोहर जोशी का कार्यकाल अगर पाठ्यपुस्तकों के ‘‘भगवाकरण’’ के आरोपों से घिरा रहा तो अर्जुन सिंह के समय ओबीसी कोटा का मामला विवादों में रहा था.
कपिल सिब्बल ने आइआइटी के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) में फेरबदल करने के फैसले से विवाद खड़ा कर दिया था. स्मृति ईरानी ने अपना कार्यकाल एफवाइयूपी को जबरन खत्म करने से शुरू किया है. इस फैसले से मंत्रालय, यूजीसी और आइआइटी के बीच अनावश्यक जंग छिड़ गई और मंत्रालय हायर एजुकेशन की तात्कालिक जरूरतों के मुद्दे से भटक गया.