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अजित कुमार झा
दिसंबर 1992 की 6 तारीख को बाबरी मस्जिद गिराए जाने के पच्चीस साल बाद भी दिलोदिमाग में उसकी तस्वीरें उतनी ही साफ हैं: हाथों में लोहे की छड़ें और कुदालियां लहराते हुए मस्जिद के तीन गुंबदों के ऊपर चढ़े, हथौड़े की चोटों से उन्हें मलबे में बदलते बेलगाम कारसेवक. बताया जाता है कि मंदिर आंदोलन के पोस्टर बॉय लालकृष्ण आडवाणी बुरी तरह मायूस थे और झुंझलाहट में वहां से चले गए. कुछ दूसरे लोग खुशी से उछल रहे थे और ''एक धक्का और दो" नारा लगाते हुए कारसेवकों को उकसा रहे थे.
इंडिया टुडे की रिपोर्ट ''ए नेशंस सो" के मुताबिक, ''5 दिसंबर की दोपहर निर्णायक मोड़ थी. यही वह वक्त था जब आखिरकार ऐलान किया गया कि सांकेतिक कारसेवा होगी. अयोध्या दबे हुए गुस्से और हताशा से खदबदाने लगी. सैकड़ों कारसेवक मणिराम छावनी में धड़धड़ाते हुए घुस गए. वहां दो धार्मिक नेताओं—महंत रामचंद्र परमहंस और महंत नृत्यगोपाल दास—को गुस्से से खौलते सवालों की बौछारों का निशाना बनाया जा रहा था.
अयोध्या की संकरी, सर्पीली गलियों में नारे और ज्यादा डरावने होते जा रहे थे, श्जिस हिंदू का खून न खौला, खून नहीं वह पानी है." हजारों लोग अपने नेतृत्व के प्रति प्रचंड गुस्से का इजहार करते हुए केशवपुरम में इकट्ठा हो गए. बेकाबू दैत्य को पैदा किया जा चुका था. वही लोग इसका पहला शिकार थे जिन्होंने इसे पैदा किया था."
कई लोग राम जन्मभूमि आंदोलन को आडवाणी सरीखे भाजपा नेताओं की चाल के तौर पर देखते हैं जो उस वक्त प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की मंडल आयोग के फॉर्मूले के जरिए अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की रणभेरी को नाकाम करने के लिए चली गई थी. संघ परिवार की दलील का इस्तेमाल करें तो मंडल फॉर्मूले ने हिंदुओं को जातियों में बांट दिया था, जबकि राम जन्मभूमि आंदोलन ने तमाम जातियों के हिंदुओं को एकजुट किया था.
उत्तर प्रदेश की सियासत के जानकार पॉल ब्रास बताते हैं कि रामजन्म भूमि आंदोलन किस तरह पिछड़ी और दलित जातियों के कारसेवकों को बड़ी तादाद में संघ परिवार के पाले में ले आया.
इसका सबसे अच्छा सबूत 1991 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा का शानदार उभार था, जो करिश्माई लोध नेता कल्याण सिंह की अगुआई में लामबंद ओबीसी वोटों के नतीजतन हासिल हुआ था. पार्टी ने लगातार दो 1993 और 1996 के विधानसभा चुनावों में इसी गोलबंदी की चुनावी फसल काटी.
मस्जिद विध्वंस के बाद हालांकि यह लहर धीरे-धीरे कमजोर पड़ गई और, 2017 में वापसी से पहले, 21 साल तक उत्तर प्रदेश से भाजपा की विदाई की शक्ल में सामने आई. जाहिर तौर पर इस आंदोलन के आयोजकों की नाकामी महज नैतिक और कानूनी ही नहीं थी, सियासी भी थी.