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अपने ऊंचे पहाड़ों को पूरे साल हरा-भरा रखते आए चीड़ के पेड़ों पर नाज करने वाले राज्य उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश पिछले दिनों इन्हीं पेड़ों की वजह से भयानक तरीके से जलने लगे. उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग ने तो बीते वर्षों के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर डाले. उत्तराखंड में 4 मई तक 3,500 हेक्टेयर जंगल चल चुका है, जो पिछले वर्षों की तुलना में कहीं ज्यादा है.
विशेषज्ञों के मुताबिक, आग की वजह चीड़ की पत्तियां हैं, जो ज्वलनशील पदार्थ का काम करती हैं. देहरादून के फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट की डायरेक्टर डॉ. सविता बताती हैं, “अप्रैल के महीने में आमतौर पर उत्तराखंड में तीन-चार बार बारिश हो जाती है और अधिकतम तापमान 35-36 डिग्री सेल्सियस तक जाता है. पर इस बार बारिश नहीं हुई और तापमान में भी अचानक तेजी से बढ़ोतरी हुई. ऐसे में चीड़ की नीडल्स (इसकी पत्तियां सूई के आकार की होती हैं) में घर्षण बढ़ गया और यही आग की वजह बन गईं.”
उत्तराखंड में कुल क्षेत्रफल का 64.65 फीसदी वनक्षेत्र है, जिसमें 22 फीसदी सघन वन हैं. यहां वनों में चीड़ की तादाद सबसे ज्यादा हैं. राज्य के वनावरण का क्षेत्रफल 34,000 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें चीड़ ही करीब 17,000 वर्ग किलोमीटर में हैं. बाकी हिस्से में बांज, साल, शीशम, बुरांश, काफल जैसी विभिन्न प्रजातियों के पेड़ हैं. चीड़ हिमालय की मुख्य वृक्ष प्रजाति है. दुनिया भर में इसकी 105 प्रजातियां हैं. हिमालय में चीड़ का मुख्य केंद्र उत्तराखंड को माना जाता है, जहां चीड़ की दो प्रजातियां चीर पाइन और ब्लू पाइन मिलती हैं.
गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और वनस्पतिविद् प्रो. एस.पी. सिंह बताते हैं, “चीड़ की पत्तियों में लिग्निन नाम का रसायन होता है, जिसकी वजह से वे अत्यधिक ज्वलनशील होती हैं और जल्दी आग पकड़ लेती हैं. इस साल दो करोड़ टन से अधिक चीड़ की पत्तियां जंगलों में जमा थीं, जो कम नमी और शुष्क मौसम की वजह से बढ़ते पारे के साथ दहकनी शुरू हो गईं और आग ने विकराल रूप ले लिया.” हिमाचल प्रदेश में भी इस साल जंगलों में आग लगने की अब तक 573 घटनाएं हो चुकी हैं, जिसकी चपेट में प्रदेश का 5,195 हेक्टेयर जंगल आ चुका है.
लोगों की देन है यह आग?
डॉ. सविता बताती हैं, “उत्तराखंड में मिथक है कि आग लगाने के बाद जो घास उगती है, वह पशुओं के लिए ज्यादा पौष्टिक होती है. इसलिए कई मामलों में देखा गया है कि स्थानीय लोग ही जंगल में आग लगा देते हैं. इसी तरह जम्मू के सीमावर्ती जिले राजौरी के गंभीर मुग्लह और बथोनी गावों में 5 हेक्टेयर जमीन पर लगी आग के पीछे किसी टिंबर माफिया को नहीं बल्कि स्थानीय लोगों को ही जिम्मेदार माना जा रहा है. जम्मू-कश्मीर के वन मंत्री चौधरी लाल सिंह कहते हैं, “दरअसल, गर्मियों में जंगलों में जो लोग पशुओं को चराने के लिए जाते हैं, अधिकतर मामलों में आग के पीछे उनका ही हाथ होता है.” हालांकि वे यह भी कहते हैं कि अभी तक कोई सबूत नहीं मिला है कि हम ऐसे लोगों पर मामला दर्ज कर सकें.
दरअसल, जंगलों में चीड़ के पेड़ की पत्तियां गिरने से नई घास तब तक नहीं उगती, जब तक इन पत्तियों को हटा नहीं दिया जाता. नई घास उग सके, इसलिए लोग पत्तों को आग लगा देते है. वन मंत्री के मुताबिक, आग लगने की दूसरी वजह अप्रैल-जून के शुष्क मौसम में पशु चराने वाले लोगों का जंगल में बीड़ी-सिगरेट फेंक देना भी है. कभी-कभी इस मौसम में चीड़ की पत्तियां अपने-आप आग पकड़ लेती हैं. लाल सिंह कहते हैं, “ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सरकार को जंगल में बाड़ लगानी होगी और इसमें करीब 8,000 करोड़ रु. खर्च बैठेगा.”
वृक्षों की चोटी तक पहुंची आग
एक अनुमान के मुताबिक, उत्तराखंड में हर साल चीड़ की 51 लाख टन पत्तियां जिन्हें पिरूल भी कहा जाता है, पेड़ों से गिरकर जंगलों में बिछ जाती हैं. इनका जंगल से उठाव नहीं होता और ये विघटित होने में भी वक्त लेती हैं. पिछले चार साल से यह पिरूल जंगलों में ही जमा रहा. इस बार कम बारिश, न के बराबर नमी और चढ़ते पारे से इसने बारूद का रूप ले लिया, जिसका परिणाम भयावह आग के रूप में सामने है.
चीड़ की अति ज्वलनशील और अम्लीय प्रवृत्ति की पत्तियों की वजह से हर साल आग लगती है. अध्ययनों के मुताबिक, उत्तराखंड का औसतन 1,000 हेक्टेयर जंगल चीड़ की सूखी पत्तियों की वजह से हर साल आग की चपेट में आता है. भारतीय वन सर्वेक्षण के आंकड़े भी इसकी पुष्टि करते हैं. लेकिन यह आग जमीनी स्तर पर ही बुझ जाती है और इसके वृक्षों की चोटी तक पहुंचने के बहुत कम ही मामले सामने आते हैं लेकिन इस बार आग वृक्षों की चोटी तक पहुंच गई, जो चिंता की बात है.
जंगलों में बड़े पैमाने पर लगी आग की वजह से प्रदूषण का स्तर भी बढ़ गया है. हिमाचल प्रदेश में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. मनोज चौहान कहते हैं, “मई माह में जंगलों में अक्सर आग लगती है. इसलिए अप्रैल की तुलना में इस महीने में प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है.” हालांकि इस साल तो अप्रैल में ही प्रदूषण का स्तर बढ़ गया है.
हिमाचल प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव विनीत कुमार बताते हैं, “वनों में आग की वजह से वायु प्रदूषण का स्तर कितना बढ़ा है इसका तो कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता पर एसपीएम मापने के लिए बने हमारे केंद्रों के पास जो डाटा है, उससे यही पता चलता है कि अप्रैल माह के अंत और मई माह की शुरुआत में वायु में सस्पेंडेड पर्टिकुलेट की मात्रा सामान्य से अधिक है.” प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का केवल राजधानी शिमला का ही एसपीएम का पैमाना देखें तो इस साल अब तक यह 40.6 पर पहुंच गया है, जबकि अप्रैल में औसतन यह 36 के आसपास रहता था. शिमला, सिरमौर और सोलन सबसे अधिक प्रभावित जिले हैं. जाहिर है कि वनों में आग राज्य की हवा को प्रदूषित कर रही है.
आग बुझाता राजस्व
कुमाऊं विश्वविद्यालय में फॉरेस्ट्री डिपार्टमेंट के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर जीत राम के मुताबिक, चीड़ हिमालय की सबसे सख्त प्रजाति है और यह आग लगने के साथ बढ़ती है. चीड़ के वनों से हर साल प्रति हेक्टेयर औसतन तीन टन पत्तियां झड़ती हैं. आग से बचने के लिए इनकी पत्तियों का नियमित उठाव जरूरी है. जीत राम के मुताबिक, इसका एकमात्र उपाय इन पत्तियों का वाणिज्यिक इस्तेमाल ही हो सकता है. इस बाबत निजी उद्यमियों से कई बार एमओयू साइन भी किए गए, लेकिन उन्हें अमल में नहीं लाया गया. हालांकि पिथौरागढ़ जिले में इस किस्म की एक कोशिश जारी है. यहां इस पिरूल से बिजली बनाने के लिए 9 किलोवॉट का बिजली संयंत्र लगाया गया है और फिलहाल यह 200 घरों में रोशनी पहुंचा रहा है. अवनी बायो एनर्जी नामक कंपनी ने 2009 में इसकी शुरुआत की थी. कंपनी अब चचरेट नामक जगह पर 120 किलोवॉट का एक और बिजली संयंत्र लगाने की योजना बना रही है.
इस कंपनी से जुड़े रजनीश जैन बताते हैं, “चीड़ की पत्तियों को काटकर इन्हें एक गैसीफायर में नियंत्रित ऑक्सीजन की आपूर्ति कर जलाया जाता है, जिससे कार्बन मोनो ऑक्साइड, मीथेन और हाइड्रोजन का मिश्रण मिलता है. इसे साफ और ठंडा कर एक जेनरेटर में भरकर इससे बिजली हासिल की जाती है.” 1997-98 में इन पत्तियों के जरिए ईंधन में प्रयुक्त ब्रिक्स बनाने का एमओयू भी वन विभाग और कुछ उद्यमियों के बीच हुआ था पर जंगल से पिरूल उठाने का खर्चा ज्यादा होने से यह योजना परवान नहीं चढ़ सकी.
हर हालत में जिंदा रहता है चीड़
चीड़ जंगलों के पुनर्जनन में बेहद सहायक होता है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह प्रजाति ऐसे क्षेत्रों में भी रह सकती है, जहां मिट्टी में पोषक तत्व न के बराबर हों. चीड़ में आग प्रतिरोधक क्षमता भी होती है. हिमालयी पठार में खासतौर से हरियाली का श्रेय चीड़ को ही जाता है. वहीं प्रो. एस.पी. सिंह चीड़ को आग के लिए जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं मानते. वे कहते हैं, “उत्तराखंड में आग स्वाभाविक तौर पर न तो पत्थरों की चिनगारी से लगती है, न ही पेड़ों की आपसी रगड़ से, जैसाकि बताने की कोशिश हो रही है. वजह मानवजनित है. मुमकिन है आग वन विभाग के कंट्रोल बर्निंग के वक्त लगाई गई हो, जो बाद में फैल गई हो या फिर गांववालों ने इस धारणा से लगाई हो कि बरसात में घास की कोपलें जल्दी उगकर नई घास जल्दी मिलेगी.”
आग लगने की घटना में वन तस्करों के शामिल होने की बात पर डॉ. अजय रावत कहते हैं, “अगर वन तस्कर आग लगाते तो पकड़े जाते क्योंकि बड़े वृक्षों को उठाने की मशक्कत करते हुए उन्हें पकडऩा आज आसान हो गया है. सो वन तस्कर जंगल में इस आग की वजह नहीं हो सकते. हां, यह हो सकता है कि वन्यजीव तस्कर आग लगाकर वन्यजीवों की तस्करी करें.” डॉ. रावत कुमाऊं विश्वविद्यालय में इतिहास के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं.
वन्यजीवों और वनस्पतियों को खतरा
जंगलों में आग लगने से सबसे ज्यादा खतरा यहां के वन्यजीवों को है. इसके अलावा यहां की वनस्पतियों पर भी खत्म होने का खतरा मंडरा रहा है. कुमाऊं विश्वविद्यालय के वनस्पतिविज्ञान विभाग के प्रोफेसर ललित तिवारी कहते हैं, “आग की वजह से कई वनस्पतियां समाप्त होने की कगार पर पहुंच सकती हैं. इस क्षेत्र में आग ने जहां बांज जैसे वनों के लिए खतरा पैदा किया है, वहीं किल्मोड़ा, हिसालू, काफल और अन्य जंगली फलों समेत इस क्षेत्र की 9,000 से ज्यादा वानस्पतिक प्रजातियों को भी खतरा पैदा हो गया है.”
प्रो. तिवारी के मुताबिक अब तक बड़ी संख्या में जंगली भालू, कांकड़, हिरन समेत मोनाल और चीर फेजैंट जैसी पक्षियों की प्रजातियां इस आग की भेंट चढ़ चुकी हैं. आग से बचने को झाडिय़ों में छिपे बैठे बड़े जंतु जैसे शेर और बाघ भी आग की भेंट चढ़ गए हों तो आश्चर्य की बात नहीं. उनके मुताबिक, रेपटाइल्स की प्रजातियों पर भी इस आग ने खतरा पैदा कर दिया है. इसके अलावा तितलियों की तमाम नस्लें भी इससे स्वाहा हो गईं.
प्राकृतिक स्रोतों पर भी इस आग की मार पड़ी है. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इससे उठी धुंध और वायुमंडल में पैदा हुई कार्बन डाइऑक्साइड यहां के ग्लेशियरों के लिए नुक्सानदायक है. खतरा यह है कि कार्बन के कण जब बारिश के साथ जमीन पर गिरेंगे और ग्लेशियरों में चिपकेंगे तो उनकी गलन दर बढ़ जाएगी और इससे कई प्राकृतिक आपदाओं को बढ़ावा मिल सकता है. हिमालयन ग्लेशियोलॉजी मिशन के निदेशक डॉ. डी.पी. डोभाल बताते हैं, “आग से उठी धुंध यहां के सभी गलेशियरों के लिए खतरनाक सिद्ध हो सकती है.”
मई माह की शुरुआत में हिमाचल और उत्तराखंड में हुई बारिश चीड़ और बांज के जल रहे जंगलों के लिए राहत की खबर लेकर आई. एक दिन की बारिश ने थोड़ी राहत जरूर दी है, लेकिन एनजीटी ने राज्य सरकार को नोटिस जारी करके पूछा है कि उसने जंगल की आग पर काबू पाने के लिए क्या किया? सरकार के पास इसका कोई ठोस जवाब शायद ही हो क्योंकि इस तरह की आपदा के लिए वह तैयार थी ही नहीं. बीते चार साल में हिमाचल के वनों में लगी आग से करीब आठ करोड़ रु. की संपत्ति खाक हो चुकी है.
जंगल की आग शहरों या रिहाइशी इलाकों तक नहीं पहुंची है पर तीनों ही राज्यों में इस आग ने पर्यटन को खासा प्रभावित किया है. हालांकि इन राज्यों के अधिकारी पर्यटन के प्रभावित होने की बात नहीं स्वीकार करते. लेकिन शिमला के होटल एसोसिएशन के सदस्य नितिन शर्मा कहते हैं, “आग की वजह से फैला धुंआ सैलानियों को भी शिमला से विमुख कर रहा है.” दावे जो भी हों, इस बार जंगलों में आग की भयावहता चिंताजनक तो है ही. -साथ में अश्विनी कुमार और दुर्गादास गुप्ता